निंदक नियरे राखिए .....

April 1987

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हर वस्तु या व्यक्ति के दो पक्ष हैं। एक भला दूसरा बुरा। एक काला दूसरा उजला। समय के भी दो पक्ष हैं— "एक दिन, दूसरा रात। दोनों की स्थितियाँ एक दूसरे से भिन्न होती हैं, फिर भी दोनों को मिलाकर ही एक समग्रता बनती है।"

मनुष्यों में गुण भी हैं और दोष भी। किसी में कोई तत्त्व अधिक होता है, किसी में कोई। हर किसी में गुण, दोष दोनों ही होते हैं। मात्रा की दृष्टि से न्यूनाधिक भले ही हो। न कोई पूर्णरूप से श्रेष्ठ है, न निकृष्ट। मात्रा का अंतर भले ही हो। सर्वथा निर्दोष कोई भी नहीं और न कोई ऐसा है, जिसे सर्वथा बुरा ही कहा जाए।

अच्छाईयों की प्रशंसा होती है और बुराईयों की निंदा। यह अच्छा तरीका है। चर्चा से वस्तुस्थिति से अनेकों अवगत होते हैं और जिसके संबंध में कहा जाए, उसको भी अपने संबंध में अधिक जानकारी मिलती है। आमतौर से लोग दूसरों की आलोचना-समीक्षा करते हैं। अपने संबंध में अनजान ही बने रहते हैं। अपनी बुराई कोई बिरला ही देख पाता है। जो दीख भी पड़ती है उनका मूल कारण दूसरों को समझाता है। भाग्यदोष, परिस्थिति-दोष कहकर मान-समझा लिया जाता है। अपने तो गुण ही दिखते हैं। इसलिए आत्मप्रशंसा करने की गर्वोक्ति से भी कोई नहीं चूकता। आत्मश्लाघा भरे बखान ही होते रहते हैं। चापलूस भी अपनी गोट बिठाने के लिए मुँह सामने प्रशंसा ही करते हैं। पीठ पीछे भले ही निंदा करते हों। सामने की प्रशंसा से मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है। अपनी गुणवत्ता पर फूला नहीं समाता। उस ठकुरसुहाती को सच्चाई मान बैठता है। इससे अहंकार की वृद्धि होती है और मिथ्या-धारणा की जड़ें मजबूत होती हैं। इस विडंबना की आड़ में दोष छिप जाते हैं, उनका पता भी नहीं चलता। ऐसी दशा में सुधार का प्रयत्न बन ही नहीं पड़ता। जब दोषों को स्वयं देख सकने की क्षमता न हो, अन्य कोई बताए या सुझाए नहीं, ऐसी दशा में आत्मसुधार कैसे हो? उसके बिना प्रगति के अवरुद्ध द्वार खुले कैसे? जिसे वस्तुस्थिति का ज्ञान ही नहीं, वह अवगुणों को सुधारने और सद्गुणों को और अधिक बढ़ाने का प्रयत्न कैसे करे?

आलोचना आवश्यक है। इसे कोई निष्पक्ष, हितैषी, शुभचिंतक ही कर सकता है। सो भी तब, जब बुरा मान जाने का खतरा उठाने की हिम्मत हो। आमतौर से निष्पक्ष आलोचना कर सकने वाले निंदा करते हैं। असत्य लांछन भी लगाते हैं। बदनाम करके अपनी जलन शांत करते हैं। ईर्ष्या ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है। इसे सुनकर रोष एवं द्वेष बढ़ता है। सुधार करने के स्थान पर चिढ़ाने के लिए वैसी बुराई करके दिखाने की हठवादिता भी अपनाता है। इससे बुरा व्यक्ति और भी बुरा हो जाता है। दूसरी ओर ऐसा भी होता है कि मिथ्या प्रशंसा से अपनी श्रेष्ठता पर फूलकर कुप्पा हो जाने और समय--कुसमय शेखी बघारते रहने की लत पड़ जाती है। इससे वस्तुस्थिति जानने वाले उपहास उड़ाते हैं। ओछापन ताड़ लेते हैं। यह स्थिति निंदा के ही समतुल्य है।

सही आत्मसमीक्षा कोई विचारशील ही कर सकते है, अथवा कोई यथार्थवादी मित्र वस्तुस्थिति को समझने-समझाने का प्रयत्न करते है। ऐसे समीक्षक जिन्हें मिल जाए उन्हें अपने को भाग्यशाली ही मानना चाहिए; क्योंकि इसी आधार पर सुधरने एवं प्रगति करने का अवसर मिलता है। इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है।


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