भवबंधनों की जकड़न और पीड़ा

April 1987

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प्राणी को भवबंधनों से आबद्ध माना जाता है। कैदी की स्थिति में जिस प्रकार कारागार में पड़े रहने पर अनेकानेक वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं, समझा जाता है कि  भवबंधनों में बँधे व्यक्ति की भी वही दुर्दशा होती है। आए दिन की शारीरिक पीड़ाएँ, स्वजन-संबंधियों द्वारा बरती जाने वाली अवज्ञा-उपेक्षा भी कम कष्टकर नहीं होतीं। घाटा, अपमान, असफलता, विछोह, विश्वासघात जैसी घटनाएँ भी मर्मांतक कष्ट पहुँचाती हैं।

दुर्घटनाओं का सिलसिला चलता रहता है। प्रतिकूलताएँ चित्र-विचित्र रूप बनाकर त्रास देती रहती हैं। वृद्धावस्था में शरीर की जरा-जीर्ण स्थिति हो जाती है। युवाकाल के विनोद, मनोरंजन, मित्रों के सहयोग याद आते रहते हैं और वे शूल की तरह चुभते हैं। इंद्रियों के शिथिल हो जाने पर शरीर-यात्रा भी अपने बलबूते नहीं चल पाती। इसके लिए दूसरों का सहारा ताकना पड़ता है। यदि वह उपलब्ध न हो तो उचित आहार-विहार की, चिकित्सा-स्वच्छता की विधि-व्यवस्था नहीं बन पाती और नरक जैसी स्थिति में पड़े हुए दूसरों की उपेक्षा-अवमानना का भाजन बनना पड़ता है। मृत्यु के समय होने वाले कष्टों को सभी को ज्ञान है। हृदयगति रुक जाने जैसी सरल मृत्यु तो किसी-किसी की ही होती हैं। अन्यथा अधिकांश को महीनों शय्या पर पड़े-पड़े मूल-मूत्र त्यागना पड़ता है। रातें जागते बीतती हैं और अंग-अंग में होने वाली पीड़ाओं से रोना-कराहना पड़ता है।

बचपन की स्थिति और भी अधिक दयनीय होती है। गर्भावस्था में चेतना तो रहती है, पर वह अविकसित और असहाय होती है। इसलिए हाथ-पैर बाँधकर कालकोठरी में कैद कर दिए जाने जैसी स्थिति में नौ महीने पड़ा रहना पड़ता है। साँस लेने, हाथ-पैर चलने और कुछ सुन सकने तक की सुविधा नहीं होती। जकड़े हुए गटर की स्थिति में मल-मूत्र के घड़े में पड़े-पड़े किसी प्रकार समय गुजारना पड़ता है। भ्रूण के परिपक्व हो जाने पर उसकी आकुलता बाहर निकलने के लिए मचलती है। द्वार बंद रहता है। उसे खोलने के लिए उस असहाय स्थिति में ही प्रबल पराक्रम करना पड़ता है। प्रसव जननी की तरह नवजात शिशु के लिए भी कम कष्टकर नहीं होता। दोनों जीवन-मरण की विभीषिका को विवशतापूर्वक सहन करते हैं। जन्मदात्री उस संकट से मुक्ति पाकर बहुत दिनों में सामान्य स्वास्थ्य प्राप्त कर सकने की स्थिति तक पहुँचती है। शिशु के लिए अनभ्यस्त परिस्थितियों में निर्वाह करना और भी अधिक भारी पड़ता है। कोमल त्वचा बाहर के तापमान में अपना गुजारा ज्यों-त्यों करके ही कर पाती है। उदरांत जिस वायुमंडल में रहना पड़ता है उसमें कभी शीत की अधिकता होती है, तो कभी उष्णता की। शरीर इतना दुर्बल, असमर्थ होता है कि साँस लेना तक भारी पड़ता है। सिकुड़े हुए फेफड़ों को गतिशील बनाने में सफलता प्राप्त करने के लिए जोर-जोर से रोना-चिल्लाना पड़ता है। हृदय की धड़कन अत्यंत मंद होती है। उसमें इतना दम नहीं होता कि नाड़ियों को अत्यंत सिकुड़ी हुई स्थिति से विकसित करके इस योग्य बना सके कि उनमें रक्त-संचार का नितांत आवश्यक क्रम स्वाभाविक रीति से चल पड़े। इसके लिए उस बालक को बार-बार तेजी से हाथ-पैर चलाने पड़ते हैं। रोना और हाथ-पैर फेंकना, यह एक अनिवार्य व्यायाम होता है। जिसके कारण त्वचा में बाह्य वातावरण को सहन कर सकने जितनी उष्णता पैदा होती है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास और पाचनतंत्र को क्रियाशीलता का आधार मिलता है।

नवजात शिशु से लेकर दो-तीन वर्ष तक ऐसी स्थिति रहती है जिसे निविड़ पराधीनता ही कहना चाहिए। मल-मूत्र त्यागकर उसकी सफाई करने का बोध नहीं होता। सर्दी-गर्मी से बचने के लिए वस्त्र धारण करना-उतारना तो दूर, करवट बदलने तक का बल नहीं होता। भोजन-जल के संबंध में तो नितांत पराधीनता रहती है। अपने मुख से तो अपनी आवश्यकता एवं कठिनाइयाँ बताने तक की स्थिति नहीं होती। इन सब बातों का अनुमान माता ही अपने अनुभव के आधार पर लगाती है और अपने ज्ञान तथा साधन के आधार पर उनकी पूर्ति करती है। भाषाज्ञान प्राप्त करने के लिए शिशु को अपना सारा कौशल दाँव पर लगाना पड़ता है। मुख, कंठ, तालु को शब्दोच्चारण के लिए अनुकूल बनाने में इतने बड़े पौरुष की आवश्यकता पड़ती है जितनी किसी दुर्बलकाय व्यक्ति को पहलवान बनाने के लिए वर्षों अखाड़े की साधना करनी पड़ती है। प्रायः दस वर्ष की आयु हो जाने तक यही स्थिति रहती है। अल्पज्ञान और बड़ों का विकसित ज्ञान परस्पर ताल-मेल नहीं बिठा पाते। न शिष्टाचार आता है, न व्यावहारिक ज्ञान होता है। ऐसी दशा में बचपन के प्रायः सभी क्रियाकलाप बालविनोद जैसी स्थिति में बने रहते हैं। उपहास होता रहता है, पर उसमें क्षमा और ममता का भाव जुड़ा रहने से रोष, प्रतिशोध से बचाव होता रहता है। दस वर्ष की आयु होने तक स्थिति केवल इतनी बन पाती है कि अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त कर सके। कुछ उलटे-सीधे क्रियाकलाप कर सके। सीखने और चाहने के निमित्त आवश्यक विलंबन प्राप्त कर सके।

दस से लेकर अठारह-बीस वर्ष की आयु तक बालक को सभी बातों के लिए अभिभावकों पर निर्भर रहना पड़ता है। भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा आदि के लिए अभिभावकों की सहायता के बिना और कोई चारा नहीं। किशोरावस्था तक ऐसी ही पराधीनता रहती है, जैसी बंधुआ मजदूरों की होती है। अच्छाई इतनी ही है कि साथी-संगी में हँसने-खेलने की सुविधा मिलने से समय किसी प्रकार कटता रहता है। वयस्क होने तक यही स्थिति बनी रहती है। स्वच्छंदता के समय बिजली की चमक जैसा स्वस्थकाल नहीं आता है। उसमें जोश तो रहता है, पर होश नहीं। इस कारण लोक-व्यवहार में सही रीति से प्रवेश करने का अवसर भी नहीं मिल पाता।

अल्प वयस्कता से निबटने और क्रिया-कौशल में प्रवेश करने की उठती आयु में इस निश्चय की गुंजायश रहती है कि जीवन को महान प्रयोजनों, आदर्शों, सिद्धांतों एवं उत्कृष्टताओं के साथ जोड़कर महामानव जैसा साहसिक कदम बढ़ा सके। पर वह संभावना भी क्रियान्वित नहीं दिखती। पिंजड़े में चूहे के फँसने की तरह कामुकता की विलास-लिप्सा उभर पड़ती है और विवाह हो जाता है। विवाह आरंभ में ऐसा लगता है कि मानो परीलोक में गंधर्वों की बिरादरी में प्रवेश मिल रहा है। पर वह दिवास्वप्न देर तक नहीं टिकता। अभिभावकों के बंधन शिथिल होते हैं। पहले अपने लिए पराधीनता थी, अब अपने ऊपर पराधीनों का भारवहन करने की जिम्मेदारी लद जाती है। परिवार का संतान का भरण-पोषण सिर पर आ जाता है। इसके लिए उपार्जन के निमित्त निरंतर चिंतारत और प्रयत्नरत रहना पड़ता है।

यही है वह समय, जिसमें कुसंग दबोच लेता है। दुर्व्यसनों की लत पड़ जाती है। वातावरण के प्रचलन ओर जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कार उभरने लगते हैं। कुकर्म करने को मन चलता है। कुसंग उसे आग में घी पड़ने की तरह बढ़ाता है। फलतः दुष्कर्मों में मन निरत हो जाता है, अपराध और अनाचार बन पड़ते हैं। इनके दुष्परिणाम आरंभ में समझ में तो नहीं आते, पर वे मिलते निश्चित रूप से हैं। बीज बोने और फसल काटने का सिलसिला चल पड़ता है। अनाचार हाथों-हाथ अपना प्रतिफल दिखाने लगते हैं, समाज के प्रचलन ऐसे हैं जिनके अनुगमन करते हुए कदाचित ही कोई चैन से रह पाता है। दाद खुजाने की तरह अनर्थों को चावपूर्वक किया जाता है; जब खुजाते-खुजाते चमड़ी फटती और पीड़ा होती है तब पता चलता है कि जीवन में अनर्थ अपनाए ओर बदले में भाँति-भाँति के त्रास पाए जा रहे हैं।


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