नारद का अभिमान (कहानी)

April 1987

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नारद को अभिमान हो गया कि मैं भगवान को बहुत प्यार करता हूँ। भगवान ने इस बात को जाना और अभिमान के निवारण का प्रयत्न किया, क्योंकि अभिमान ही अध्यात्म मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

भगवान नारद को साथ लेकर भ्रमण को चल दिए। चलते-चलते एक तपस्वी ब्राह्मण मिला जो सूखे पत्ते खाकर तप कर रहा था, शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था। फिर भी कमर में तलवार लटकाए था।

भगवान साधारण वेश में थे। उनने तपस्वी से पूछा—  "आपके पत्ते खाने और तलवार धारण करने का क्या कारण है। तपस्वी ने कहा पत्ते इसलिए खाता हूँ कि मेरे भगवान की प्रजा को अंन, दूध आदि वस्तुँ पर्याप्त मात्रा में मिलें। मेरे खाने के कारण किसी जीव के आहार में कमी न पड़े और तलवार इसलिए बाँधे हुए हूँ कि संसार में तीन भक्ति को कलंकित करने वाले हैं, ये कभी मिल जाएँ तो इस तलवार से उनका सिर काट दूँ।"

नरवेशधारी भगवान ने पूछा—  "भक्ति को कलंकित करने वाले तीन भला वे कौन-कौन हैं?" तपस्वी ने कहा—  "एक अर्जुन जिसने मेरे भगवान से अपने स्वार्थ के लिये रथ हँकवाया, दूसरी द्रौपदी जिसके चीर के बढ़ाने के लिए भगवान को नंगे पैरों दौड़ना पड़ा, तीसरा नारद जिसे आत्मज्ञान पर संतोश नहीं। कभी कुछ कभी कुछ पूछकर मेरे भगवान का सिर खाता रहता है।"

दोनों तपस्वी को प्रणाम करके चल दिए। नारद की समझ में अब आया कि उच्च कोटि के प्रेम का क्या लक्षण है? अपने प्रेमी को ही नहीं उसके प्रियजनों को भी अपने कारण कुछ कष्ट न पहुँचने देना और अपने सुख के लिए किसी प्रकार की भी प्रेमी से याचना न करना।

नारद ने अपनी प्रेम की तुलना उस तपस्वी के प्रेम से की तो उनका अभिमान चूर हो गया।


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