आहार की आध्यात्मिक स्वच्छता

April 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“जैसा खाए अंन, वैसा बने मन” की उक्ति शत-प्रतिशत सच है। आहार से रस, रक्त, मांस, अस्थि वीर्य आदि बनते-बनाते अततः वह मस्तिष्क के रूप में विकसित होकर मन-बुद्धि में परिणत हो जाता है।

शरीर विज्ञानी और आहारशास्त्री बहुधा संतुलित भोजन का यश बखानते रहते हैं। उसमें वे प्रोटीन और विटामिन 'ए' का उल्लेख करते हुए मांस, मछली, अंडा आदि की भी सिफारिश करते हैं। हो सकता है कि मांस बढ़ाने के लिए मांस खाना उपयोगी बैठता हो, पर साथ ही उसका चेतनात्मक पक्ष भी है; जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आहार में सूक्ष्मशक्ति भी होती है। छनते-छनते, छूटते-छूटते, अंत में आहार की कारणशक्ति ही मन की चेतना बन जाती है। पशु विवेक-बुद्धि से रहित होता है। उसके शरीर में मनुष्यों की तरह रोग के कीटाणु भी हो सकते हैं, होते ही हैं। वे तत्त्व भी खाने वाले के शरीर में पहुँचे बिना नहीं रहते। इसके साथ प्राण-हरण करते समय का, अंत: का रुदन भी उस आहार में सम्मिलित हो जाता है और क्रिया की प्रतिक्रिया-कर्म का प्रतिफल सिद्धांत सेवनकर्त्ता के लिए अभिशाप बनकर बरसता है; उसकी प्रकृति में क्रूरता बढ़ती है, जिसके कारण वह अपने परायों के लिए निष्ठुर आक्रामक बनता जाता है।

मदिरा या दूसरे नशों के संबंध में भी यही बात है, अनुपयुक्त पेयों की कमी नहीं। कोका–कोला जैसे पदार्थ में मादक द्रव्यों का अंश रहता है। चाय-काॅफी भी नशा स्तर की उत्तेजना भरे रहती है; जो शरीर में पहुँचकर काय पंजर तक सीमित नहीं रहतीं; वरन्, मन: संस्थान को भी प्रभावित करती है। वे स्वभाव को चिड़चिड़ा और आवेशग्रस्त बना देती है।

आहार का एक अध्यात्म पक्ष यह भी है कि वह न्यायपूर्वक ईमानदारी की कमाई से उपलब्ध किया गया है या नहीं। मुनाफाखोरी कर चोरी-मिलावट कम नापतोल या बिना समुचित परिश्रम किए मुफ्त के माल के रूप में जो कमाया, खाया जाता है, वह भी अखाघा है। रिश्वत, जुआ, चोरी, हरामखोरी से जो कुछ हथियाया गया है वह अन्न रूप में प्रयुक्त हो या वस्त्र-आभूषण आदि के रूप में व्यवहृत हो, अपने साथ जुड़े हुए अशुद्ध संस्कारों के कारण प्रभाव उत्पन्न किए बिना न रहेंगे। उसका प्रभाव शरीर पर रुग्णता, अक्षमता, दुर्बलता के रूप में पड़ सकता है और मानसिक स्वास्थ्य में विकृतियाँ भर सकता है। ऐसे लोग तनावग्रस्त रह सकते हैं, चिंताशील, निराश, उद्विग्न देखे जा सकते हैं। उन्हें दुःस्वप्न अक्सर सताते रह सकते हैं।

कुधान्य दुर्बुद्धि उत्पंन करता है। उसे आत्मसात करने वाला जो सोचता है, उसमें सदाशयता की मात्रा कम होती है और मायाचार की अधिक। ऐसे लोगों का वास्ता कुमार्गगामियों से अधिक पड़ता है। वे ही उनके घनिष्ठ बनते हैं और ऐसे मार्ग पर घसीट ले जाते हैं, जिनमें छल, प्रपंच और अनाचार-अपराध के जाल-जंजाल बिछे होते हैं। हेय कमाई प्रायः व्यभिचार, नशेबाजी एवं रोगोपचार में खर्च होती रहती है। कई बार वह मित्रों द्वारा ठग ली जाती है। या गुंडों द्वारा दबाव देकर उगलवा ली जाती है।

यदि कुधान्य किसी दूसरे द्वारा आतिथ्य उपहार में दिया गया है, तो भी उसका प्रभाव पड़े बिना न रहेगा। स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से आहार के हर पक्ष पर ध्यान रखा जाना चाहिए, अन्यथा अशुद्धता रोगकारक हो सकती है। अध्यात्म पक्ष में यह स्वच्छता पकाने-परोसने वाले की चारित्रिक स्थिति तक पहुँचती है। यदि कोई स्वार्थ-साधनों के लिए उपहार दिया गया अथवा भोजन कराया गया है तो नीयत के अनुरूप उसका प्रभाव पड़ेगा।

आहारशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र यहाँ दोनों एक मत है कि ताजा, स्वच्छ, बिना तला-भुना सरल भोजन किया जाए और उसे भूख से कम खाया जाए। अधिक प्रगति के लिए की जाने वाली सभी साधनाओं को सर्वोपरि यह सोपान है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118