महाप्रज्ञा के आठ दिव्य अनुदान

April 1987

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गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर अपरिमित शक्ति का भांडागार है, अपने में दिव्य प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ निहित किए हुए है। इस मंत्र की उपासना व इन प्रेरणाओं को जीवन में उतारकर भौतिक एंव आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्र में प्रगति-पथ परं बढ़ा जा सकता है। चौबीस अक्षरों में से चौबीस शक्तिधाराएँ फूटती है जो आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रसर साधक का मार्गदर्शन करती है।

गायत्री मंत्र का भावार्थ है— “उस प्राण स्वरूप, पाप नाशक सुख स्वरूप परमात्मा के सविता तेज को हम अपने अंदर धारण करते हैं, जो हमारी बुद्धि को संमार्ग की ओर प्रेरित करता है इस मंत्र के अंतिम चरण में 'धीमहि' आता है, जिससे हम यह अर्थ समझते है कि इन दिव्य गुणों को हम अपने अंदर धारण करते है, जिसका समुच्चय यह परमात्मा है। इसमें भी “धी” अक्षर मानव को सर्वांगपूर्ण प्रगति की प्रेरणा व व्यक्तित्व के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण दिशा देता है। “गायत्री स्मृति” में कहा गया है—

'"धीरस्तुष्टो भजेन्नैव ह्येकस्याँ हि समुन्नतो।

क्रियतामुन्नतिस्तेन सर्वास्वाशासु जीवने॥"

अर्थात्— "धीरपुरुष को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में प्रगति का प्रयास करना चाहिए।"

किसी इंग्लिश कवि ने कहा है— “ नेवर बी कंटेण्टेड विद युअर एफर्टस” अर्थात्— “अपने प्रयासों में सदैव पूर्णता लाने का प्रयास करो, संतुष्ट होकर रुको मत। जिस दिन तुम मन में यह भाव मन में लाने लगोने कि तुम अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हो, तुम्हारी प्रगति-यात्रा रुक जाएगी। “

वस्तुतः मनुष्य को बहुमुखी विकास का प्रयास सतत् करते ही रहना ही चाहिए। जीवन की विभिन्न दिशाएँ हैं। उन सबमें प्रगति करना मानव  के लिए अभीष्ट है। शरीर के विभिन्न अंग है, उन सभी का पुष्ट होना आवश्यक है। पेट बहुत बढ़ जाए एवं हाथ-पाँव पतले रह जाएँ, तो इस विषमता से शरीर कुरूप ही होगा। इसी प्रकार उस विध्दता का क्या महत्त्व? जिसमें मनुष्य सदा रोगग्रस्त, चिंतित बना रहे। उस वैभववान् का धन अर्थ हीन है, जिसके पास न विद्या है, न स्वास्थ्य

गायत्री महामंत्र का ‘धी’ अक्षर आठ प्रकार की शक्तियाँ अर्जितकर जीवन की समग्र-प्रगति की प्रेरणा देता है। ये है स्वास्थ्यबल, विद्याबल, धनबल, मित्रबल, प्रतिष्ठाबल, बुद्धिबल, मनोबल, आत्मबल। इनका समुचित मात्रा में संचयकर आदमी व्यक्तित्वसंपंन पूर्णरूप पुरुष बनता है।

गायत्री की चौबीस शक्ति धाराओं में एक शक्तिधारा है— दुर्गा की— 'भवानी' की। भवानी को अष्टभुजा भी कहते हैं। अष्टभुजा आठ पुरुषार्थों की ही प्रतीक है। दुर्गा अष्टभुजा की उपासना का अर्थ है— आठों प्रकार की शक्तियाँ साधक को मिलती है। उसका जीवन एकांगी नहीं होता, बहुमुखी होता है।

इन आठों शक्तियों की अपनी उपयोगिता एवं महत्ता है। स्वास्थ्य की महत्ता से सभी परिचित है। जीवन की समस्त स्थूल गतिविधियाँ सुस्वास्थ्य पर ही ठीक प्रकार से संचालित होती है। निरोग एवं स्वस्थ काया एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। स्वस्थ शरीर द्वारा ही वस्तुओं के विषयों का रसास्वादन किया जा सकता है। रोगग्रस्त रहने पर तो अच्छे से अच्छा भोजन भी नहीं अच्छा लगता। वस्तुओं की पौष्टिकता का लाभ भी तभी मिल पाता है, जब उन्हें पचाने के लिए पाचन संस्थान सही हो। रोगी होने पर तो पौष्टिक तत्त्व तक उल्टे हानि पहुँचाते हैं। वस्तुओं के रसास्वादन से लेकर श्रम करने तक में नीरोग शरीर ही समर्थ होता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन के निवास करने की उक्ति अकारण नहीं है। साँसारिक सफलताओं से लेकर आत्मिक उपलब्धियों में शरीर सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है।

विद्याबल की भी उतनी ही आवश्यकता है। विद्या अर्थात् सत-असत्, औचित्य-अनौचित्य के बीच अंतर कर सकने योग्य सद्बुद्धि। शास्त्रों में इसे ही दूरदर्शी विवेकशीलता कहा गया है। विद्या पुस्तकीय ज्ञान से अलग  है। यह स्कूल-कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा नहीं है। यह तो चिंतन एवं मनन द्वारा प्राप्त होती है, जिसके लिये आत्मनिरीक्षण करना होता है। ब्रह्मविघा का अवलंबन लेना पड़ता है। सत्यासत्य के बीच अंतर करने एवं सत्यावलम्बन के लिए प्रेरित करने वाली बुद्धि का नाम ही विद्या है।

अविद्या के कारण ही जीवसत्ता काम, क्रोध, लोभ मोह के बंधनों में जकड़ी भटकती रहती है। विद्या-सद्बुद्धि का अवलंबन इस तमिस्रा को मिटाता, सही राह दिखाता है। मनुष्य संसार में सांसारिक आकर्षणों के मध्य रहता, वस्तुओं का उपयोग करता हुआ भी उनसे निर्लिप्त बना रहता है। फलस्वरूप बंधनों में आबद्ध नहीं होता, मुक्त बना रहता है। ‘धी’ अक्षर मानवमात्र को विद्याबल संचित करने की प्रेरणा देता है।

मानव की सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए गायत्री मंत्र का धी शब्द तीसरे प्रकार के बल, धनबल को नीतियुक्त उपायों से प्राप्त करने का मार्गदर्शन करता है। सुख-सुविधाओं जीवन निर्वाह के साधनों की प्राप्ति श्री शक्ति से ही होती है। शरीर को रोटी, वस्त्र, निवास के लिए मकान की जरूरत पड़ती है। इनके बिना शरीर को सुरक्षित एवं जीवित नहीं रखा जा सकता। जीवन निर्वाह के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है उनकी आपूर्ति धन से होती है। साधनों के अभाव में न स्वार्थ सध सकता है और न ही परमार्थ। अतएव ‘श्री’ बल का उपार्जन भी उतना ही आवश्यक है।

बहुमुखी विकास में सहायक चौथी शक्ति है— "मित्र परिकर की सहयोगियों की।" मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। प्रगति और अवगति सामाजिक सहयोग-असहयोग के ऊपर निर्भर करती है। सहयोगियों की संख्या बढ़े उसके लिए मनुष्य को शालीन, उदार एवं व्यावहारिक होना चाहिए। अपने व्यक्तित्व को ऐसा आकर्षक बनाना चाहिए कि उससे सभी प्रभावित हो अपना साथ चाहें, सहयोग दें व माँगे।

स्वार्थों पर आघात होते ही मित्रगण संकीर्ण व्यक्ति का साथ छोड़कर भाग जाते हैं। स्थाई और सच्चे सहयोगी तो वे ही बना पाते हैं, जिन्होंने अपने अंतःकरण को महान बना लिए हो। संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठ चुके हो। विपुल परिमाण में जनसहयोग ऐसे ही व्यक्तियों को मिलता है।

पाँचवा बल है— "श्रेय और सम्मान का।" जिन कार्यों को करने से अंतरात्मा प्रफुल्लित एवं गौरवांवित होती हो सही अर्थों में वही सम्मान है। गायत्री का धी अक्षर आत्मगौरवरूपी दैवी विभूति अर्जित करने की शिक्षा देता है है। सुनिश्चित है कि यह सद्मार्ग पर चलने से, परमार्थ अपनाने से ही यह मिल सकना संभव है। स्वार्थों की परिधि से निकला लोक-कल्याण में निरत व्यक्ति ही सच्चे श्रेय एवं सम्मान का अधिकारी बनता है। उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलती है। आत्मगौरव को बढ़ाने वाला, स्वतः मिलने वाला श्रेय एवं सम्मान मनुष्य जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है।

छठी शक्ति है—  'बुद्धिबल' । सांसारिक उपलब्धियाँ इसी आधार पर अर्जित की जाती है। अपनी योग्यता बढ़ाने, प्रतिभासंपंन बनने की शिक्षा “धी” अक्षर में सन्निहित है। मूर्ख, अज्ञानी, अशिक्षित व्यक्ति न तो विशेष सांसारिक सफलता प्राप्त कर सकता और न ही आध्यात्मिक प्रगति की ओर बढ़ सकता है। धनवान मूर्ख अपनी संपत्ति की सुरक्षा नहीं कर पाते। अज्ञानी अभावग्रस्त रहते, हेय स्थिति में पड़े कष्ट झेलते हैं। संपदा मिल भी जाए तो भी उनके पास अधिक दिनों टिक नहीं पाती। बौद्धिक क्षमता विकसित करना भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि शरीरबल एवं धनबल एकत्रित करना।

समग्र प्रगति के लिए सातवाँ बल है— 'मनोबल'। मनोबल को एक प्रचंड शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। साहस, शौर्य, पराक्रम जैसे गुण मनोबल की ही उपलब्धि है। भौतिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर जा पहुँचने वाले व्यक्ति का पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है कि उनकी सफलता में मनोबल का असामान्य योगदान रहा है।

सर्वतोमुखी प्रगति का अंतिम और सबसे प्रमुख आधार है— "आत्मबल का संपादन।" यह वह आधार है। जिसके द्वारा मनुष्य आंतरिक विकारों एवं बाह्य आकर्षण पर विजय प्राप्त करता है। आत्मबलसंपंन व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। गायत्री उपासना आत्मबल-संवर्धन की सशक्त साधना है। मंत्र का “धी” अक्षर मनुष्य की अंतशक्ति जागृत करने की शिक्षा देता है। जीवात्मा ही परमात्मा का अंश है। बीजरूप में वे सभी शक्तियाँ विद्यमान है, जो ईश्वर में हैं। आवश्यकता उन्हें जागृत करने की है। उच्चस्तरीय साधनाओं से यह अंतशक्ति जागृत होती है और प्रचंड आत्मबल के रूप में परिलक्षित होती है।

आठों शक्तियों में एक से बढ़कर एक संभावनाएँ सन्निहित हैं। 'धी' अक्षर सभी प्रकार की सामर्थ्यों को अर्जित करने की प्रेरणा देता है। गायत्री महामंत्र की उपासना द्वारा साधक के मन में सर्वतोमुखी उन्नति की उमंग उठनी चाहिए। गायत्री उपासना के अवलम्बन से साधक ऐसी प्रेरणा प्राप्त करता है, जिससे समग्र प्रगति के लिए समग्र प्रयास चल सकें।


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