चेतना और ऊर्जा का भांडागार-सविता देवता

April 1987

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पारसमणि की कल्पना अतिपुरातन है। मांयता के अनुसार उस पाषाण खंड को छूने से लोहा सोना बन जाता है। ऐसा कोई पदार्थ अभी तक दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि ऐसा कुछ कहीं रहा होता तो उसके स्पर्श का क्रम चल पड़ता और प्रकारांतर से संसार भर का लोहा सोना बन गया होता। तब सोने से अधिक उपयोगी धातु लोहे का मूल्य उतना हो गया जितना कि अब सोने का है और लोहा इस भाव बिकता, जितना इन दिनों सोना।

यह अलंकारमात्र है। कल्पना तब उठी होगी जब रात्रि का काला अंधकार लोहे जैसा समझा गया होगा और प्रातःकाल का उदीयमान सूर्य अपनी प्रथम आभा स्वर्ण के रूप में बिखेर रहा होगा। काले अंधकार और सुनहरे का  पारस्परिक मिलन पारस की उपमा सार्थक कर संभवत ऊषाकाल के इस स्वर्णिम सूर्य की अलंकारिक विवेचनाकर ऋषिगणों ने पारस के वर्णन द्वारा उसके माहात्म्य को प्रतिपादित किया होगा।

यह मात्र दृश्य-प्रयोजन ही नहीं, वरन अवसर भी वैसा ही मूल्यवान, महत्त्वपूर्ण है। दिन-रात मिलाकर चौबीस घंटे होते है; पर उनमें इतना प्रभावोत्पादक समय और कोई नहीं होता, जितना प्रभातकाल का। उसमें कुछ ही घंटे का समय होता है, सायंकाल संध्या समय का। रात्रि बढ़ती आती है और अस्त होता सूर्य श्वेत से स्वर्णिम बनता जाता है। इस असाधारण परिवर्तनकाल का समूची प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। भौतिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी ।

इस संकेतकाल का उद्बोधन-स्पंदन सभी पदार्थ और प्राणी अनुभव करते है। पदार्थों के तापमान और गुणधर्म में अंतर पड़ता है। चेतना में उल्लास और अवसाद बढ़ता है। प्रातःकाल सभी प्रफुल्लित, पुलकित दिखते हैं और सायंकाल को रात्रि के आगमन के साथ ही निद्रा का दबाव बढ़ने लगता है। अपराधों की, अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है, किंतु प्रभातकाल हर किसी को सात्विकता-सक्रियता अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह सूर्य का अनुदान है। ब्रह्ममुहूर्त में साधना करने का निर्देश ऋषिगणों ने इस अनुदान का भरपूर सदुपयोग करने हेतु ही किया है। सविता  देवता के माहात्म्य पर आर्षग्रंथों में प्रचूर संख्या में उदाहरण मिलते हैं।

                                                     “य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृष्यते “

                                                                                                                                                                                          - महर्षि व्यास

                                               -अर्थात् - “इस स्वर्णिम सूर्य के अंतराल में परम पुरुष के दर्शन होते हैं।”

                                            ”य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः-......... हिरण्यश्म. . . हिरण्यकेश:” ...............

                                                                                                                                                                                         -छान्दोग्य(1/6/6)

                                           -अर्थात्-”यह आदितय सवर्णमय है। सुनहरे ही उसके रोम और केश हैं।”

                    स्वर्णिम होने के साथ-साथ सूर्य निरंतर गतिशील भी है। उसे किसी के आश्रय की, सहयोग की आवश्यकता नहीं। इसलिए उसका रथ एक चक्र वाला माना गया है। उसे सुदर्शनचक्र अथवा कालचक्र भी कह सकते हैं।

इस रथ में सात घोड़े जुते हुए है और सप्तक स्वर विज्ञान से लेकर कालगणना की आधारभूत इकाई सप्ताह वारों के रूप में निर्धारित हुआ है। पुष्टि आप्तवचनों से होती है—

“सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं।”

- सूर्योपनिषद्

“ जिसके रथ में सात घोड़े जुते हुए है, जो सुवर्ण वर्ण है, यही सूर्य का ध्यान करने योग्य सामान्य स्वरूप है।”

“सप्ताश्वं चैव चक्रं”

- सूर्य पुराण

-अर्थात्- “सूर्य के रथ में एक पहिया है। सात घोड़े जुते हुए है।”

सप्तद्वीप, सप्तसागर, सप्तवर्ण, सप्तपर्वत, सप्तसरिता, सप्तधातु, सप्तलोक, सप्तचक्र, सप्तअग्नि, सप्तऋषि, सप्तदिवस, सप्तस्वर आदि अनेक प्रकार से उपमा देते है। सूर्य के सप्तअश्वों की अलंकारिक विवेचना की गई है।

विज्ञान क्षेत्र में सात प्रकार की विकिरण - ऊर्जाएँ ब्रह्मांड में सक्रिय हैं। (1) कास्मिक ऊर्जा (2) पराबैंगनी विकिरण ऊर्जा (3) दृश्य-प्रकाश विकिरण-ऊर्जा (4) अवरक्त-विकिरण-ऊर्जा (5) रेडियो-विकिरण ऊर्जा (6) एक्स विकिरण ऊर्जा औऱ (7) गामा-विकिरण ऊर्जा।

सूर्य के सप्तअश्वों से प्रार्थना करते हुए साधक आत्मविजय एवं ऊर्जा सुनियोजन की अपेक्षा रखता है।

“जयोजयश्च विजितो जयः प्राणोजित श्रमः।

  मनोजवोजित क्रोधो वाजिन: सप्तकीर्तताः। “

-आदित्य ह्रदय

-अर्थात्- “जहाँ जय की आवश्यकता है। वहाँ जय मिलती है। विजेता को भी जीता जा सकता है। प्राण,थकन,मन और क्रोध को जीता जा सकता है। आपके सप्तअश्व क्या नहीं कर सकते?

मनीषी कहते है— कि सूर्य की सात रंग की सात किरणें जब मनुष्य के व्यक्तित्व में समाहित होती है, वे कुछ विभूति विशिष्टताओं के रूप में परिलक्षित होती हैं। ये हैं— (1) साहस (2) पराक्रम (3) संयम (4) संतुलन (5) एकाग्रता (6) प्रफुल्लता एवं (7) उत्साह। यही है वेविशेषताएँ जिनके आधार पर साधारण सामान्य स्तर का मनुष्य भी प्रतिभावान एवं सफल संपन्न बनता है। इन गुणों का अभाव या न्यूनता ही मनुष्यों को पिछड़ेपन से ग्रस्त रखती है।

विभिन्न प्रयोजनों के लिए सूर्यशक्ति के अनेकानेक उपयोग हैं। कुंडलिनी जागरण में प्रधान भूमिका सूर्यशक्ति की ही है। उसी के आधार पर षट्चक्र, पंचकोश, मूलाधार गह्वर,सहस्रार कमल, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना का त्रिवर्ग ही प्रसुप्त स्थिति छोड़कर उत्तेजित होता है और साधक को प्रचंड दिव्य क्षमता से संपन्न करता है।

इन सात चक्रों को सप्तप्राण केंद्र कहा गया है। इन्हीं को सात ऋषि, सात यज्ञ, सात समिधा, सात लोक आदि कहा गया है। ये सभी सात-सात अंतर्गुहा में निहित है। इस रहस्य को मुंडकोपनिषद् में इस प्रकार प्रकट किया गया है।

“सप्तप्राणः प्रमवन्ति तस्मात्,

सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।

सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा,

गुहाशया निहिताः सप्त सप्त“॥ 8॥

- मुण्डक 2।1।8

अर्थात्— “सात चक्रों में समस्त तीर्थ प्रतिनिधि के रूप में विद्यमान हैं। इनका अवगाहन करने से समस्त तीर्थों का पुण्यफल साधक को प्राप्त होता है।“

विज्ञान के विद्यार्थी प्रकृतिशक्ति की सात धाराओं से परिचित हैं। उन्हें (1) गति (2) ध्वनि (3) उष्मा (4) प्रकाश (5) कोहेजन (6) विद्युत (7) चुम्बक कहते है। इन सातों का प्रतिनिधित्व मानवी काया में अवस्थित सात चक्र करते है।

चेतनाशक्ति के भी सात विभाग है (1) पराशक्ति (2) ज्ञानशक्ति (3) इच्छाशक्ति (4) क्रियाशक्ति (5) कुंडलिनीशक्ति (6) मातृकाशक्ति (7) गुप्तशक्ति। इन सबके संयुक्त स्वरूप को “लाइट ऑफ लोगोस” कहते है। इसी को लेटेंट लाइट, एस्ट्रल लाइट आदि नामों से पुकारते है। यही ब्राह्मीचेतना का दिव्य-प्रकाश है, जो सविता की किरणों के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

  सविता एवं कुंडलिनी का परस्पर सघन संबंध है।

  “यदा कुंडलिनी शक्तिरार्विमति साधके।

  तदास पंचकोशे मत्तेजेनुभवति ध्रुवम्“ ।।

- सूर्य गीता

 अर्थात्— जब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है तो साधक को पाँचों कोशों में प्रकाश भरा गया अनुभव होता है। पाँचों कोश, छहों चक्र, तीन ग्रन्थियाँ, चौबीस उपत्यिकायें साधक को प्रकाशवान हुए परिलक्षित होने लगते है।

“भुवन ज्ञानं सूर्य सयमात्“

— योग दर्शन 

अर्थात्— “सूर्य की ध्यान-साधना करने से विश्व-ब्रह्मांड का रहस्यमयज्ञान प्राप्त होता है। यही कुंडलिनी सिद्धि है। “

सूर्यग्रहण के समय उस मंडल की विचित्र स्थिति होती है। दिन में रात्रि का बोध होता है। इसका प्रभाव तो भौतिक-जगत पर भी पड़ता है; पर आध्यात्मिक-साधनाओं पर उसका चमत्कारी प्रतिफल दृष्टिगोचर होता है। इसलिए आगम और निगम दोनों ही संप्रदायों के लोग सूर्यग्रहण के अवसर पर बिना  कुछ विशेष कोई साधना किए चूकते नहीं।

“सूर्य ग्रहण कालेन समोन्योनासि कश्चन।

तत्र यत् तत् कृतं सर्वमनन्तफलं भवेत्“।

—अगस्त्य संहिता

 अर्थात्—   “सूर्यग्रहणकाल अंय सामांय समयों की भाँति नहीं है। उस समय जो कुछ भी किया जाए उसका अनंतगुना फल होता है।“

अग्निहोत्र भी प्रकारांतर से सूर्यआराधना ही है। दिव्यअग्नि का सूर्य के साथ महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान संभव होता है। याज्ञिक उस दिव्य विद्या द्वारा पूर्ण शक्ति का आवश्यक भाग अपनी ओर आकर्षित करते है। साथ ही सूर्य अनुदानों में उन तत्त्वों की अभिवृद्धि करते हैं, जो प्राणियों,वनस्पतियों एवं ऋतु-चक्र वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए आवश्यक है।

“ एतस्मिन् मण्डले सोऽग्नि।

  अर्थात्— “जो इस सूर्य मंडल में है वही तत्त्व यज्ञाग्नि, रूप में प्रकट होता है।

यच्चाग्नो ततेजो विद्वि मामकम् “

 — गीता

  अर्थात्— “जो याग्नि की ज्वलनशीलता है वह मेरी ही है। “

“यत्र-यत्र च संकीर्णमात्मनं मन्यते सुधीः

तत्र तत्र तिलै होमो गायन्न्या अग्निहोत्र वै। “

अर्थात्—  “जहाँ साधक को अनुष्ठान का निश्चित विधि-विधान विदित न हो, वहाँ तिल का गायत्री मंत्र से हवन करके काम चलाना चाहिए।

अग्निहोत्र में विभिन्न जड़ी-बूटियों और शाकल्यों का उपयोग किया जाता है; पर यदि वे उपलब्ध न हों तो सविता या सावित्री का यजन मात्र तिलों से भी हो सकता है।

सूर्य भौतिक ऊर्जा का अक्षयभंडार है। पृथ्वी की आवश्यकताओं से कहीं अधिक क्षमता उसके आकार के विस्तार में विद्यमान है। अब तक अभावों की आवश्यकता खनिजों से, विभिन्न प्रकार के ईंधनों से पूरी की जाती रही है; पर अब जब कि स्रोत सूखते जा रहे हैं, सूर्य से ही उन आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ेगी।

अमेरिका की 'टाइम्स' पत्रिका के अनुसार इन दिनों अमेरिका में 40 लाख घरों में सूर्यशक्ति से प्रकाश लेने, मकान गर्म रखने, भोजन पकाने जैसे कार्य किए जा रहे है। इज्राइल में उसकी आबादी का पँचमांश अर्थात् 2,20,000 व्यक्ति सूर्य से विभिन्न कार्यों के लिए ऊर्जा और प्रकाश प्राप्त करते हैं। जापान में 20 लाख घरों में यह सुविधा उपलब्ध है। फ्रांस, जर्मनी आदि, अनेक देश इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। 3 मई 1978 में विश्व भर में सूर्य दिवस मनाया गया था और उपाय सोचा गया था कि सूर्य-ऊर्जा का अधिक प्रयोग किस प्रकार किया जाना संभव हो सकता है। यह सौर-ऊर्जा का दृश्यमान प्रत्यक्ष उपभोग है।

पुरातन सूर्योपासना के स्थान पर अर्वाचीनकाल में शिव प्रतीक को अपना लिया गया था। ज्योतिर्लिंग का पुरातन स्वरूप सूर्यमंडल था। अब उसी आकृति को शिवलिंग के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा है। इस प्रकार परिवर्तित रूप से सूर्योपासना अभी प्राचीनकाल की तरह ही प्रचलित है।

इसकी साक्षी आर्षग्रंथ देते है :—

“आदित्यं च शिवं विद्यात् शिव आदित्य रुपिणम्।

उभयोंरंतरंनास्ति आदित्यस्य च शिवस्य च। “

—शिव पुराण

अर्थात्—  “शिव और आदित्य को एक ही समझना चाहिए।इन दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है।”

शिव के साथ अनेक कथानक जुड़ गए है। उनमें कुछ बुद्धि संगति भी है और कुछ नहीं भी। किंतु सूर्य के संबंध में ऐसी कथा गाथाएँ नहीं जुड़ी है, जिससे उनके शिवत्त्व पर किसी प्रकार की उँगली उठती हो।

भौतिक दृश्यमान सूर्य को सवितादेव का, शिवसत्ता का कलेवर माना गया है। वस्तुतः उस कलेवर के अंतर्गत विद्यमान चेतनाभंडार को ही उपास्य माना गया है। जीवन उसी से हर किसी को उपलब्ध होता है। जीवन में उत्कृष्ट वरिष्ठता भर देने का कार्य भी उसी की उपासना द्वारा संपन्न होता है। हर साधक को इसका अवलंबन लेकर अपना जीवन धन्य बनाना चाहिए।


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