महाप्रज्ञा का दर्शन एवं आराधन

April 1987

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साधना का एक ही उद्देश्य है— आत्मोत्कर्ष, व्यक्तित्व का परिष्कार। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि बहिरंग या अंतरंग क्षेत्र का जो भी काम हाथ में लिया जाएगा, वह पूरा होकर रहेगा। भले ही उसमें कुछ देर लगे, पर विकसित व्यक्तित्व वालों के लिए कोई कार्य असंभव नहीं। कोई कार्य इसलिए कहा जा रहा है कि उत्कृष्ट चिंतन के रहते उच्चस्तरीय लक्ष्य ही निर्धारित होते हैं। निकृष्टता न तो उन्हें रुचती है और न उनके पास फटकती है। वे जो कुछ भी सोचते हैं, वह खरा होता है। सोने को खरा-खोटा परखने के लिए उसे कसौटी पर कसा और आग पर तपाया जाता है। इसी प्रकार अध्यात्म प्रकृति के व्यक्ति आत्मकल्याण और लोक-मंगल के दो आधारों के साथ जुड़ा हुआ निर्धारण निश्चय करते हैं। सद्बुद्धि की देवी ऋतंभरा प्रज्ञा इसी स्तर के परामर्श देती है और सच्चा साधक अपने इष्ट द्वारा दिए गए परामर्श एवं आदर्श की अवहेलना नहीं कर सकता।

संसार में अनेक देवी-देवता हैं। अनेक जंत्र–मंत्र, अनेक दर्शन और अनेक पूजा-विधान। सभी के प्रतिपादनकर्त्ता अपनी बात की पुष्टि करने के लिए जो कुछ दार्शनिक पृष्ठभूमि पर समर्थन कर सकते हैं, अपने मत की पुष्टि करते हैं। उपदेशक भी व्यक्तित्ववान होते हैं। कथा-पुराण भी ऐसे सुनाते हैं, जिनको प्रमाण मानकर सामान्य जिज्ञासु का मन उसी ओर लुढ़कने लगता है। जिसने एक ही बात सुनी है, एक ही पगडंडी देखी है, उनके लिए पूर्वाग्रह और वातावरण के आधार पर मान्यता को अपना लेना कठिन नहीं।

किंतु जिन लोगों ने कई पक्षों का अध्ययन, श्रवण और मनन किया है उनके लिए असमंजस खड़ा होता है।  एक संप्रदाय से दूसरे की पटरी नहीं खाती। कभी-कभी तो थोड़ा-बहुत ही अंतर होता है, किंतु कभी-कभी मतभेद जमीन-आसमान जितना हो जाता है। भक्तिपंथी राधा-कृष्ण के गुणानुवाद गाते-गाते नहीं थकते और उस स्मरण में भावविभोर हो जाते हैं; पर जो बौद्ध हैं; सांख्यवादी हैं, वे ईश्वर के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं। बौद्ध और जैन धर्म की ऐसी ही मान्यता है। हिन्दू धर्म के अंतर्गत जैन धर्म, अहिंसा को सर्वप्रमुख धर्म-लक्षण मानता है; किंतु शाक्त लोगों की देवी पशुबलि लिए बिना संतुष्ट नहीं होती। वैदिक धर्म में पति-पत्नी का अविच्छिन्न युग्म होना चाहिए; पर किसी संप्रदाय में चार पत्नियाँ रखना भी धर्माचरण है और कुछ वर्गों में सभी भाइयों की एक सम्मिलित पत्नी होती है। कुछ जातियों के लड़के को दहेज दिया जाता है और कई जातियों में लड़की की कीमत वसूल की जाती है। धार्मिक कहे जाने वालों में शाकाहारी भी होते हैं और मांसाहारी भी। ईश्वर के संबंध में भी ऐसे कथन हैं। कुछ निराकारवादी हैं, कुछ साकारवादी। कुछ में पूजा आवश्यक है, कुछ में श्वास के साथ सोऽहम् की भावना करना ही पर्याप्त है। देवता भी हर संप्रदाय के चित्र-विचित्र हैं और उनके अनुग्रह के प्रतिफल तथा पूजा-पाठ के विधि-विधान भी सर्वथा पृथक।

ऐसी दशा में तर्क के जंजाल से बचने वाले तो पूर्वाग्रहों के सहारे अपनी गाड़ी खींच ले जाते हैं, पर जो तर्कवादी हैं, तथ्य तक पहुँचना चाहते हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण और उदाहरण चाहते हैं, उनके लिए भारी कठिनाई आ खड़ी होती है कि इन भिन्नताओं के बीच किसे सच माने, किसे झूठ। दूसरों को झूठ कहते ही विग्रह खड़ा होता है और सच कहने पर अनुयायी बनना पड़ता है। सभी सच हैं, यह बात भी गले नहीं उतरती। जब सभी सच हैं, तो मतभेद कैसा? सूर्य गरम और गतिशील है, इस तथ्य को सभी मानते हैं। यदि संप्रदायों के बारे में भी यही बात रही होती तो उन सबकी मान्यता एक जैसी रही होती, ईश्वरस्वरूप एक होता, उसका आदर्श भी सभी के लिए एक जैसा रहता।

यदि झूठ कहते तो शास्त्रकारों और आप्तपुरुषों की अवमानना होती है। सब धर्मों की खिचड़ी मिलाई जाए, तो वह और भी अधिक विचित्र हो जाती है। अधिक- से-अधिक इतना ही हो सकता है कि नीतिशास्त्र के कुछ सिद्धांतों का समर्थन सभी धर्मों में से किसी प्रकार खोज निकाला जाए। ऊपरी सतह पर ही किसी प्रकार एकता का प्रतिपादन हो सकता है। गहराई की ओर एक कदम उतरते ही असाधारण भिन्नताएँ नजर आती हैं और ईश्वर तथा धर्म के संबंध में भारी मतिभ्रम उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में साधना किसकी की जाए, किस संप्रदाय एवं प्रतिपादन का आश्रय लिया जाए। यदि शंकाओं को कुतर्क कहकर एक का पल्ला पकड़ने की बात सोची जाए, तो मानवी अंतराल के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई बुद्धि और विवेकशीलता विद्रोह करती है।

ऐसी दशा में जब तक सर्वधर्म सम्मेलन होकर कोई एक निश्चय नहीं हो जाता, सर्वभौम धर्म नहीं बन जाता, तब तक हमें विवेक से ही काम लेना चाहिए। वही हमारा इष्ट होना चाहिए। उसी का आश्रय लेकर हम क्रमश: सत्य को अधिकाधिक समीप से देखने, समझने में समर्थ हो सकते हैं।

ब्राह्मण ग्रंथों में एक कथा आती है कि प्रलयकाल में जब सभी देवता, शास्त्र, ऋषि समाप्त हो जाएँगे तब फिर किसी का अनुशासन जीवित रहेगा? उत्तर में परब्रह्म कहता है कि तब भी एक ऋषि जीवित रहेगा। उसका नाम है 'विवेक'। तर्क तो वेश्या है। वह किसी की भी गोदी में बैठ सकती है और किसी का भी सहयोग-समर्थन कर सकती है; पर विवेक ही एक ऐसा है जो समुद्र की कीचड़ में से भी बहुमूल्य मोती निकाल सकता है। उसका आश्रय लेने पर मनुष्य धोखा नहीं खाता। भटक भी जाए, तो वही प्रवृत्ति फिर संकेत देती है और उसी राह पर चलने के लिए बाधित करती है, जो मानवी गरिमा के अनुकूल या अनुरूप है।

अगणित ईश्वरों, संप्रदायों और प्रचलनों में से बीन-कुरेदकर जो अधिकाधिक औचित्यपूर्ण है, उसी को अपनाना सर्वोत्तम है। इस अवलंबन को अपना लेने पर भी जो भ्रांतियाँ-भूले रह जाती हैं, वे अंतरात्मा के क्रमिक विकास के साथ-साथ रह जाती हैं और मनुष्य सत्य के अधिकाधिक निकट पहुँचता जाता है। इसी अवलंबन से यह संभव है कि पूर्ण सत्य को, परब्रह्म को प्राप्त किया जा सके और जीवन को सार्थक बनाया जा सके।

विवेकशीलता का अवलंबन ही गायत्री साधना है। गायत्री को ही ऋतंभरा प्रज्ञा या दूरदर्शिता कहते हैं। यह एक ही कसौटी ऐसी है, जो अपनी न्यायशीलता के कारण प्रस्तुत प्रतिपादनों में से जो सर्वश्रेष्ठ था, उसे अपना सकती है और अपनी नाव में बिठाकर भ्रांतियों के जंजाल में से पार निकालकर सुरक्षित तट तक पहुँचा सकती है। आत्मकल्याण और लोक-मंगल के सर्वानुमोदित तथ्यों को अपनाने में क्या छोड़ा और क्या ग्रहण किया जाना चाहिए? इसका निर्णय तुरंत कर देती है।

ईश्वर की निकटतम स्थिति अपने अंतःकरण में मानी गई है। वह किस रूप में हो सकती है, इसका सही उतर प्राप्त करना हो तो एक शब्द में दूरदर्शी विवेकशीलता ही कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अंतराल में रहने वाली अनेक प्रकार की मान्यताएँ, भावनाएँ, आकांक्षाएँ सभी ऐसी होती हैं, जिनका व्यक्तिगत अभिरुचि एवं संपर्क-संस्कारों के साथ संबंध जुड़ता है, वे यथार्थवादी नहीं हो सकतीं। इसलिए गहन अंतराल में परब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव करने के लिए हमें महाप्रज्ञा का ही आश्रय लेना पड़ेगा। उस अकेली में ही वह सामर्थ्य है कि कंटीली झाड़ियों में से उबारकर हमें सत्य के— ईश्वर के निकटतम पहुँचा सके।

गायत्री उपासना का दार्शनिक स्वरूप दूरदर्शी विवेकशीलता है, जो संकीर्ण स्वार्थपरता द्वारा समर्थित तात्कालिक लाभों से ऊँचा उठाती है और वहाँ ले पहुँचती है, जहाँ पैर टिकाने पर अपना ही नहीं समस्त सृष्टि का हित-साधन हो सकता है।

आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है। शरीर का एक अंश मजबूती से पकड़ लेने पर समूची काया को पकड़ा जा सकता है। अंतरात्मा में विद्यमान निष्पक्ष, न्यायनिष्ठ, उदात्त, आदर्शवादी, विवेकशीलता को अपना लेने पर समझना चाहिए कि ईश्वर की गरदन पकड़ ली गई और अब उस समूचे को भी आसानी से पकड़ा जा सकता है। यही है आत्मा का परमात्मा से मिलन। इसी को समर्पण कहते हैं। एकता या अद्वैत इसी को कहा गया है।

गायत्री मंत्र का सार तत्त्व "धियो यो नः प्रचोदयात्” शब्दों में है, जिसका तात्पर्य है कि हम सबको विवेकशीलता की प्रेरणा मिले। इसमें धर्म और दर्शन का सार तत्त्व आ जाता है। इस सूत्र के आधार पर व्यक्तिगत जीवन की अथवा विश्व-व्यवस्था की संरचना सोची जा सकती है और वही विश्वकल्याण की वास्तविक आधारशिला होगी। मनुष्य में देवत्त्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण मात्र इसी तत्त्व दर्शन के सहारे हो सकता है।

गायत्री मंत्र का अर्थ, चिंतन और उसकी निर्धारणा-प्रेरणा को हृदयंगम करने की प्रक्रिया का नाम उपासना है। इस आद्यशक्ति—  महाशक्ति की उपासना, साधना एवं आराधना करने से हमारे स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर का परिमार्जन हो सकता है। दर्शन का काम, चिंतन को दिशा देना है और साधन का स्वरूप अभीष्ट शक्तियों को अपने में उभारने की वैज्ञानिक कार्यपद्धति को अपनाना है। हम गायत्री का तत्त्व दर्शन भी समझें और उसके साधना-विधानों को अपनाने का भी प्रयत्न करें। इस आधार पर मस्तिष्क और अंतःकरण दोनों ही महानता के ढाँचे में ढल सकते हैं और उनके स्तर के अनुरूप ही हमारे प्रत्यक्ष व्यवहार एवं क्रियाकलाप का पहिया लुढ़क सकता है।

सृष्टि के आदि से लेकर आद्यावधि देवताओं, ऋषियों, मनीषियों, महामानवों द्वारा गायत्री उपासना का उपक्रम इतना अधिक हुआ है कि वह शब्दावली आकाश में अद्वितीय मात्रा में अनंत आकाश में परिभ्रमण कर रही है। शब्दशक्ति कभी नाश नहीं होती, वह अपने अनुरूप वातावरण पर अनायास ही बरस पड़ती है। गायत्री उपासकों को भूतकाल की उन साधनाओं को अपने ऊपर अवतरित होता, बरसता दृष्टिगोचर होता है। निजी प्रयत्नों में उसी स्तर का सृष्टि में भरा-पूरा अनुदान बरसने का लाभ भी उन्हें मिलता है। इस प्रकार वे असाधारण नफे में रहते हैं। चैत्र की नवरात्रि के संदर्भ में तो इस उपासना का महत्त्व और बढ़ जाता है।


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