भविष्योत्तर पुराण में घोर कलियुग के पिछले दौर का ऐसा वर्णन किया गया है, जिसमें परिस्थितियाँ अनेक दृष्टीयों से प्रतिकुलाना भारी कष्टदायक और पतन-पराभव से युक्त होंगी। मनुष्य पहले मानसिक दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और अपंग-असमर्थ जैसा होगा। उसके साथ ही उसके चिंतन का स्तर भी अधोगामी होगा। खींच-निराशा से उद्विग्न रहेगा और पुरुषार्थ की दिशा धारा छल प्रपंच, पाखंड, अनाचार जैसी दुष्प्रवृत्तियों में निरत रहने की रहेगी। नीति-मर्यादाओं को वह तोड़ चुका होगा और वर्जनाओं का ध्यान न करते हुए ऐसे कुकृत्यों में संलग्न रहेगा जिनके दुष्परिणाम उसे हाथों-हाथ भोगने पड़े। यह विपन्नता दूरदर्शिता का अभाव हो जाने के कारण होगी, मनुष्य बाहर से बौना, मानसिक दृष्टि से छोटा और व्यवहार में खिलौनामात्र बनकर रह जाएगा आदि-आदि।
इसके अतिरिक्त भी ऐसी अनेक भविष्यवाणियों का उल्लेख है, जिनमें व्यक्ति और समाज के अधःपतन का डरावना रूप प्रस्तुत किया गया है।
संप्रति संसार की वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा कुछ लगता नहीं। सब ओर प्रगति का माहौल है। सबमें ऊँचा उठने, आगे बढ़ने की योजनाएँ बन और कार्यांवित हो रही है। इसका लाभ कितने ही क्षेत्रों में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर भी हो रहा है। शिक्षा बढ़ रही है। उपार्जन की क्षमता में भी क्रमश: बढ़ोतरी ही हुई है। विज्ञान ने जहाँ विनाशकारी साधनों में अपना कौशल नियोजित किया है, वहाँ उसने सुविधा-साधनों के अंबार खड़े करने में भी कमी नहीं रहने दी। साज-सज्जा के ऐसे उपाय-उपचार विनिर्मित हुए हैं, जिनका उपयोग करने पर मनुष्य अधिक सुंदर और आकर्षक दिख पड़ता है। मनोरंजन के पुराने साधन तो नहीं रहे; पर उनके स्थान पर नए सरंजाम जुट गए हैं । सिनेमा का विस्तार-क्षेत्र समाचारपत्रों की संयुक्तशक्ति से कहीं आगे हैं। जितने लोग पत्र-पत्रिकाएँ पकाते हैं, उससे कहीं अधिक वे सिनेमा देखते है। बड़े-बड़े लोगों के लिए ऊँचे स्तर का विनोद करने के लिए क्लबों की भरमार है। घटिया लोग अश्लील कामुकता के चित्र-विचित्र स्वरूपों का रसास्वादन करते हैं। ब्लू फिल्मों व साहित्य का आश्रय लेते हैं।
यह तथाकथित प्रगति गाथा उसकी अपेक्षा अधिक प्रत्यक्ष है, जैसी भविष्योत्तर पुराण में भयावह संभावनाओं को चित्रण करते हुए बताई गई है। प्रश्न उठता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतिपादनों में से अधिक विश्वस्त किसे माना जाए? खासतौर से तब जब कि मस्तिष्क की जटिलताएँ सुलझाने के लिए कंप्यूटर बाजार में आ रहे हैं। श्रमशक्ति बचाने के लिए पुराने ढर्रे को स्वचालित मशीनों से दस कदम आगे बढ़कर ऐसे यंत्रमानवों का निर्माण हो रहा है, जो कठिन कार्यों को भी सरलतापूर्वक करके रख देते हैं। न उन्हें खाने की सोने की, आवश्यकता है और न वेतन वृद्धि संबंधी कोई माँग। स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अस्पतालों का विकास विस्तार हो रहा है। इससे रोगों से निपटने और दुर्बल अंगों को हटाकर उनके स्थान पर नयों का प्रत्यारोपण भी अब एक सामान्य बात हो गई है। ऐसी दशा में कैसे माना जाए कि अगले दिनों मानवी भविष्य तमस् से घिरा हुआ है। पतन की घड़ी निकट आ रही है।
यहाँ एक ऐसा कारण भी है ;जो दृश्यमान प्रगति को खोखला एवं छलावे स्तर का बताता है। संकेत उन छोटी समझी जाने वाली विकृतियों की ओर है, जो आकार में लघु होते हुए भी प्रहार क्षमता में किसी दैत्य-दाव से कम नहीं। वे चुपके-चुपके प्रवेश करती है, जड़े जमाती और तब हटती है, जब पूरी तरह सर्वनाश कर देती है। मजबूत शहतीरों में घुन लग जाते है तो बाहर से न दिख पड़ने पर भी भीतर ही भीतर कतरव्यौंत करते रहते हैं, जिससे उसकी सुदृढ़ता धूलि में मिल जाए और पता तब चले जब बह बाहर से सही दिखते रहने पर भी खोखलेपन के दबाव से धराशाई हो चले। तपेदिक स्तर के विषाणु एवं कैंसर के जीवकोश भी ऐसे खतरनाक होते हैं। वे खुली आँखों से दिख नहीं पड़ते; पर भीतर ही भीतर अपनी वंशवृद्धि करते रहते हैं, जीवनीशक्ति को चाटते रहते हैं और अकालमृत्यु के लिए अपने शिकार को विवश कर देते हैं।
भविष्यपुराण के अविश्वस्त लगने वाले कथन के अगले ही दिनों फलित होने वाले कारणों में से कुछ ऐसे हैं जो बताते है कि तथाकथित प्रगति की तुलना में अवगति की दौड़ कहीं अधिक है और वह अब, तब में बाजी मारने ही जा रही है।
ऐसे अनेक कारणों में प्रगति का एक सशक्त प्रतिरोधी है। युवापीढ़ी के भविष्य को अंधकारमय बना देने वाला नशा जो दिन-दूनी, रात-चौगुनी गति से समझदारों से लेकर ना समझो तक को अपने चंगुल में फँसाता जा रहा है। उसके दुष्परिणाम तत्काल तो सामने नहीं आते; पर कुछ ही दिनों में ऐसी भयावह परिणति प्रस्तुत करने लगते हैं, जिनकी पकड़ मजबूत हो जाने पर प्राण बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रह जाता। इस कुटेव को पहले मनुष्य अपनाता है, पीछे वह स्वयं अपने मेजबान को इतनी मजबूती से पकड़ती है कि उस चंगुल से छूट पड़ना कठिन जान पड़ता है। असंभव जैसा हो जाता है।
इनके अतिरिक्त अधिक अदृश्य एवं अधिक अविज्ञात स्थिति एक और है। वह है संतान का स्वास्थ्य, बुद्धिबल और सत्साहस का बुरी तरह गिर जाना। नशेबाजों और बिना नशा पीने वालों की संतानों का दीर्घकालीन सतर्कतापूर्वक सर्वेक्षण किया गया, तो प्रतीत हुआ कि नशेबाज वर्ग द्वारा उत्पादित संतति में शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अनेक दोष-दुर्गुण पाए गए। समयानुसार बढ़ते रहने पर वे उन्हें किशोरावस्था से लेकर तरुणाई की परिधि में प्रवेश करते-करते बुरी तरह अपने को शिकंजे में कस लेते हैं। इनके चिंतन पर अनाचार ही छाया रहता है। इस कारण उनसे मानवी गरिमा के अनुरूप कुछ किए जाने की आशा नहीं की जा सकती।
बीज का जैसा स्तर होता है वैसी ही पौध उत्पन्न होती है। सड़े-घुने बीज से अंकुर निकलते हैं वे गए गुजरे ही होते हैं। नस्ल बिगड़ने का यही कारण है और सुधारने के लिए बीज में सुधार करना भी। नशेबाजों की पीढ़ियों की पीढ़ियाँ किस प्रकार मिटती चली जाती हैं इसका प्रयोग छोटे जानवरों को नशे की आदत डालकर देखा गया। उनकी हर पीढ़ी छोटी, रुग्ण, अशक्त और अल्पजीवी होती चली गई थी। उसमें समझदारी भी कम थी। यही हाल उन मनुष्यों के वंशजों का भी होता है, जो नशा पीकर अपने शरीर का ही नहीं, प्रजनन क्षेत्र को भी विषाक्त कर लेते हैं और यह क्रम चलते रहने पर उत्तरोत्तर पीढ़ियों का क्रम इतना गिरता जाता है, जिससे न उनका व्यक्तिगत जीवन सही रह पाता है और सामाजिक स्तर। पतन बढ़ता रहे तो नाव की तली में होने वाले छेद की तरह उसे पूरी तरह डुबोकर ही रहता है। इस आधार पर भविष्योत्तर पुराण में अगले दिनों के संबंध में आशंकाएँ व्यक्त की गई हैं, उनमें बहुत कुछ सार एवं तथ्य प्रतीत होता है।