तत्त्वज्ञान की परम पवित्रता

April 1987

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गीताकार का कथन है, कि—  ज्ञान से बढ़कर और कोई पवित्र वस्तु नहीं। वह जिस किसी का भी स्पर्श करती है, उसी को पवित्र कर देती है। ज्ञान की उपमा अग्नि से दी गई है। उसकी समीपता तद्वत् बना देती है। अग्नि में पड़ने वाला ईंधन भी अग्निरूप हो जाता है। स्वयं में नगण्य होने पर भी जब अग्नि का अवतरण उसमें होता है; तो फिर उसका कायाकल्प हो जाता है, तब वह जलता हुआ ईंधन दावानल भी बन सकता है। उसकी छोटी-सी चिनगारी विशालकाय विकरालरूप भी धारण कर सकती है। उसकी प्रभाव-परिधि में आने वाला सारा वातावरण उष्मा, ऊर्जा और आभा से भर जाता है।

यहाँ ज्ञान का अर्थ शिक्षा नहीं; वरन विद्या है। शिक्षा वह जो, भौतिक जगत की जानकारियाँ कराए। विद्या वह जो आत्मिक जगत का स्वरूप समझाए और उस क्षेत्र की सुव्यवस्था एवं प्रगति में सहायता करे। अशिक्षित को भौतिक स्तर की जानकारियों के अभाव में सांसारिक कठिनाइयाँ आती हैं। उसे अनगढ़-पिछड़ा माना जाता है, किंतु अज्ञानी तो अंधे के समान है। उसे पशुतुल्य भी कहा जाता है। कारण कि वह अपने अंतर्जगत के संबंध में निपट अनाड़ी जैसी स्थिति धारण किए रहता है। ऐसी दशा में उसे शोक-संताप ही घेरे रहते हैं। अबोध बालक को यह ज्ञान नहीं होता कि उसकी सामयिक आवश्यकताएँ क्या हैं? किन अभावों से ग्रसित है और उन्हें जुटाने के लिए क्या करना चाहिए ? सब कुछ दूसरों पर ही निर्भर रहता है। अभिभावक सहायता न करें तो उसे मल-मूत्र से सने हुए ठिठुरते शीत से काँपते हुए भूख-प्यास से पीड़ित स्थिति में ही पड़ा रहना पड़ेगा। बचपन में सामर्थ्य का अभाव तो होता ही है; किंतु उससे भी बढ़कर ज्ञान की कमी अड़चनें उत्पन्न करती हैं। शब्दज्ञान से वंचित होने के कारण वह अपने मनोभावों को जिह्वा के रहते हुए भी किसी प्रकार व्यक्त नहीं कर पाता।

मनुष्य में वरिष्ठ उसे माना जाता है, जिसकी जानकारियाँ अधिक है। बहुपठित, बहुश्रुत एवं अनुभवी दूरदर्शी लोग अपनी आवश्यकताएँ भी पूरी कर लेते हैं और दूसरों को उठाने, उबारने में सहायता करते हैं। अनजान का तो उपहास ही होता है, उसे दरिद्र से भी बढ़कर उपहासास्पद माना जाता है।

बाह्यजगत की तरह अंतर्जगत भी अपनी सत्ता और महत्ता रखे हुए हैं। भौतिक जगत में सभी सुखद, सुंदर, सुव्यवस्थित है, उसमें से अपनी योग्यता, पात्रता के अनुरूप किन्हीं को भी उपलब्ध किया जा सकता है। आदान-प्रदान की इस दुनिया में सामर्थ्य, प्रयास एवं साधनों की सहायता से इच्छित वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यह नियम अंतर्जगत पर भी लागू होता है। उस क्षेत्र में भी विभूतियों की कमी नहीं। सही मार्ग और विधान अपनाकर उस प्रदेश में विद्यमान अमृत, पारस, कल्पवृक्ष सदृश उच्चस्तरीय वैभव की बहुलता पाई जा सकती है। उसे किसी अन्य की सहायता से तो यत्किंचित् मात्रा में ही पाया जा सकता है। किंतु यह संभव तभी है, जब उनका स्वरूप एवं स्थिति जान ली गई हो, प्राप्त करने की विद्या के साथ नाता जुड़ गया हो। इस पक्ष की अवहेलना भी की जा सकती है और अवधारणा भी। यह सब अपने ही रुझान एवं प्रयास पर निर्भर है।

ज्ञान, वह जिसे और भी अच्छी तरह समझने के लिए पूरा नाम आत्मज्ञान या तत्त्वज्ञान भी कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है; कि अंतरंग की स्थिति को समझा जाए और बहिरंग क्षेत्र में अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्त्व को सही रूप से समझते हुए, तदनुरूप दृष्टिकोण तथा आचरण में ढाला जाए।

इसे आश्चर्यभरी विडंबना ही कहना चाहिए कि हम बाहर की परिस्थितियों के बारे में बहुत कुछ जानते हुए अनेक प्रकार के कौशलों से, अभ्यस्त साधनों से, संपन्न होते हुए भी यथार्थता से अपरिचित ही रहते हैं। अपने गुण−दोषों तक से परिचित नहीं होते, यद्यपि दूसरों की समीक्षा भली प्रकार कर सकते हैं। बाह्यवैभव का हिसाब-किताब रखते हैं और हानि-लाभ की स्थिति से प्रभावित रहते हैं; पर अंतर की छिपी संपदा के संबंध में अनजानों जैसी स्थिति अपनाए रहते हैं। साथ ही इस जानकारी से भी वंचित रह रहे होते हैं कि अपने आप को किस प्रकार सुधारा-उभारा जाए। कस्तूरी के हिरन की तरह सुख-शांति तलाश करते हैं। निराशा हाथ लगने पर थकान और खीज से व्यथित होते हैं। उस अबोध वन्यपशु जैसी स्थिति अपनी भी होती है। शांति और प्रगति का उद्गम स्रोत अपने ही भीतर होता है; पर उसे पाने के लिए प्रयास अंयत्र करते हैं, फलतः निराशा एवं उद्विग्न रहने की स्थिति ही बनी रहती है। इस भ्रम-जंजाल से छूटने के लिए उस ज्ञानदीप की आवश्यकता है, जो भटकावों से बचाकर वस्तुस्थिति का भान करा सके।

समझा यह जाता है, कि असहयोग, अभाव, वातावरण एवं भाग्य के फेर से अपनी स्थिति असंतोषजनक बनी हुई है। किंतु वास्तविकता यह है कि गुण, कर्म, स्वभाव जैसे व्यक्तित्व के अनेक पक्ष विकसित नहीं हो पाते। फलतः अबोधों की तरह जिस-तिस पर लाँछन लगाते हुए, किसी प्रकार आत्मप्रवंचना करते हुए मन का भार हलका करना पड़ता है। जिस कमी के कारण वास्तविक प्रगति एवं उच्चस्तरीय सफलता से वंचित रहना पड़ता है, वह अपने ही अंतर में खोजी जा सकती है। किंतु दुर्भाग्य यह है कि आत्मसमीक्षा के उपयुक्त गहरे उतर सकने और अंतर्जगत की वस्तुस्थिति को समझने की स्थिति अपनी नहीं बन पाती। जब रोग की खोज ही नहीं बन पड़ी तो फिर उपचार किस प्रकार संभव हो?

संसार में बहुत कुछ है, पर वह दौड़कर हमारे पास नहीं आ जाता। उसे पाने के साधन, मार्ग एवं पराक्रम से अभ्यस्त होना पड़ता है। इस ओर से आँखें बंद रखी जाएँ ,तो फिर सर्वत्र अंधकार ही बना रहेगा, भले ही आकाश के ज्योतिर्मय सूर्य का ही तेजस् सर्वत्र फैला हुआ क्यों न हो?

आत्मज्ञान का ही 'ज्ञान' नाम से अध्यात्म-क्षेत्र में विवेचन किया गया है। अपने वास्तविक अस्तित्व, स्वरूप एवं लक्ष्य की निरंतर प्रबल अनुभूति होती रहे तो समझना चाहिए कि वह तत्त्वज्ञान, हस्तगत हुआ, जिसे आत्मिकी का बोध पक्ष कहा जा सकता है। दर्पण में हम अपनी ही छाया देखते हैं। गुंबज में अपने ही शब्दों की प्रतिध्वनि गूंजती है। अपना ‘स्व’ जिस स्तर का होता है उसी के अनुरूप दृष्टिकोण, रुझान और प्रयास विनिर्मित होता है। यही है भली-बुरी परिस्थितियों का आधारभूत कारण।

सभी मनुष्य रक्त-मांस की दृष्टि से प्रायः एक जैसे हैं। उनके काय-कलेवर में बहुत अंतर नहीं होता। विभिन्नताएँ भीतरी गुण-अवगुणों के संबंध में होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही सुविकसित व्यक्तित्व का निर्माण करता है और उसी आधार पर सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुलता है। इस अनुभूति को अंतराल में गहराई तक प्रतिष्ठित करके हम उस सद्ज्ञान को आत्मज्ञान को संपादित कर सकते हैं, जिसे ज्ञानाग्नि का नाम दिया गया है और परम पवित्र बताया गया है।


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