कुंती का समर्पण (कहानी)

April 1987

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युद्ध कौरव-पांडवों के मध्य हुआ। वे लड़े और नियति के अनुसार उनमें से जिसे मरना था, वे उस गति को प्राप्त कर गए। धृतराष्ट्र और गांधारी थे तो कौरवों के माता-पिता; पर उनने सदा नीति को सराहा। अपनों के अनौचित्य का कभी पक्ष लिया नहीं।

कुंती की मनःस्थिति भी वैसी ही थी। वह युद्ध को रोक तो नहीं सकी; पर अपने-पराए जैसा पक्षपात उनके मन में भी नहीं था; फलतः वह सदा धृतराष्ट्र-गांधारी को जेठ-जेठानी के रूप में श्रद्धास्पद ही मानती रही। 

महाभारत समाप्ति के बाद उन्हें कुंती आग्रहपूर्वक घर ले आई और वैसा ही मान देती रही जैसा कि बड़ों को दिया जाता है। अंत में जब वे वनवास— वानप्रस्थ का आग्रह करने लगे तो कुंती भी उनकी सेवा करने के लिए साथ ही वनवास चली गई। 


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