यह खतरनाक खेल मानवी विशिष्टताओं को नष्ट कर देगा

April 1987

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भावी पीढ़ी कैसी हो? इस संबंध में गत कुछ दशाब्दियों से मनीषी-वैज्ञानिक वर्ग में अच्छा खासा मंथन चलता आ रहा है। एक ओर पदार्थविज्ञानी है, जिनका चिंतन स्थूल धरातल पर चला एवं ऐसे ही निष्कर्ष उन्होंने निकाले भी हैं। बायोटेक्नोलॉजी आज की एक विकसित वैज्ञानिक विधि है, जिसमें नित नए अनुसंधान हो रहे हैं। पादप-वनस्पति एवं जीव−जंतु वर्ग से आरंंभ हुआ यह शोधक्रम अब मानव को भी एक स्थूल संसाधन मानते हुए उसे बदलने की— आने वाली पीढ़ी को बलिष्ठ बनाने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। दूसरी ओर अध्यात्म के सौम्य प्रतिपादनों के पक्षधर मनीषीगण हैं, जो वंशानुक्रम विज्ञान का पूरा सम्मान करते हुए भावी पीढ़ी में संस्कारों के समावेश द्वारा पीढ़ी परिवर्तन की चर्चा करते हैं। वे मानवी नस्ल के साथ पशुओं की तरह प्रयोग किए जाने का समर्थन नहीं करते, अपितु विचार-संस्कार-स्वभाव को बदले जाने की आवश्यकता पर बल देते हैं।

अब अनुवांशिक इंजीनियरिंग में कोशिकाओं पर ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं कि किसी भी पुरुष के शरीर के अंग से निकाली गई कोशिकाओं के नाभिकीय द्रव्य- डी.एन.ए. तथा आर.एन.ए. को यदि स्त्री गर्भाशय में स्थापितकर निषेचित किया जाए, तो वह अपने ही समान अन्य कोशिकाओं को जन्म देती चली जाएगी और कायपिंड के विभिन्न अंग अवयवों का निर्माण होने लगेगा। अमैथुनी सृष्टि की संभावनाओं को बलवती बनाने वाले ये प्रयोग अब कल्पना या 'साइंस फिक्शन' तक सीमित नहीं रहे, अपितु यौन स्वच्छंदता के पक्षधर स्वयंसेवकों पर किए भी जा चुके हैं। 'डेविड रोरविक' जो कि अपने एक ऐसे ही प्रयोग के कारण बहुचर्चित रहे हैं, अपनी रिपोर्ट में कितना सही हैं, यह तो वही जानते हैं; क्योंकि वे इन चिकित्सकों व उस एशियाई महिला को वैज्ञानिक के समक्ष प्रस्तुत करने में असफल रहे ,जो प्रयोग साक्षी माने जाते हैं। फिर भी एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न अभी भी अनुत्तरित है कि बायोटेक्नोलॉजी का यह खेल मानवता का विनाश तो नहीं कर बैठेगा?

कृत्रिम जीवकोशों के आधार पर क्या कुछ परिवर्तन मानव जाति में किए जा सकते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में ब्रिटेन के जीवविज्ञानी जेम्स डेनियल ने कहा है कि,"अगले दिनों कृत्रिम जीवकोश बनाने में सफलता मिलने के बाद निकट भविष्य में ही यह संभव हो जाएगा कि मनुष्य की डिजाइन की हुई मानव आकृतियाँ सृजी जा सकें।" वे यह संभावना भी व्यक्त करते हैं कि, " अब ऐसे मनुष्यों को ढालना भी संभव हो जाएगा, जो अन्य ग्रहों में जीवनयापन कर सकें।" उनका कहना है कि, "इस बायोतकनीकी-प्रक्रिया में न तो रतिक्रिया आवश्यक है और न कृत्रिम गर्भाधान का आश्रय लेना ही। मनुष्य शरीर की हर कोशिका में वे तत्त्व मौजूद हैं जो गर्भस्थापन के लिए उत्तरदायी है। यदि इस कोशिकाद्रव्य को सही स्थान पर पहुँचाया जा सके तो गर्भ-स्थापना का उद्देश्य पूरा हो सकेगा।" पर एक बात वे और कहते हैं कि, "यंत्र-मानवों की तरह मानव आकृति तैयार की जा सकती है, पर प्रकृति पर विज्ञान का कोई नियंत्रण नहीं है। हो सकता है, वे मात्र रोबोट हों अथवा विनाश की ओर ले जाने वाले रक्तबीज से उपजे असुर।"

इसमें कोई संदेह नहीं कि बायो-इंजीनियरिंग के जीन-यांत्रिकी-प्रयोग जानवरों एवं पादपों की नई- नई किस्में उपलब्ध कराने में सफल रहे हैं। डी.एन.ए. केमीस्ट्री में परिवर्तन के द्वारा मॉलीक्युलर बायोलॉजी के इन प्रयोगों से जींस की कलमें बनाने (क्लोनिंग) में वैज्ञानिकों को अभूतपूर्व सफलता मिली है। एक और बड़ी उपलब्धि, जो वैज्ञानिक हासिल कर सके हैं, वह है— एक जीव के ग्रोथ हारमोन के लिए उत्तरदायी जींस का दूसरे के डी.एन.ए. के साथ प्रत्यारोपण। इस प्रयोग को मानव पर जब लागू किया गया तो इस रिकाम्बीनेट डी.एन.ए. टेक्नोलॉजी द्वारा मधुमेह के रोगियों में इंसुलिन पैदा करने वाले जीन्स आरोपित करने में सफलता मिली। यद्यपि ये प्रयोग सीमित स्तर पर हुए हैं, पर इनसे लगता है कि अगले दिनों जब यह प्रयोग अधिक सस्ता एवं व्यापक स्तर पर होने लगेगा तो संभवतः मधुमेह जैसी और भी जटिल अनुवांशिकीय व्याधियों से मनुष्य को मुक्ति मिल जाए। कार्य कठिन है, समय साध्य भी, पर इस रोग से ग्रसित व्यक्तियों के लिए आशा की एक किरण भी जागी है। इस जीन प्रत्यारोपण के प्रयोग को छोड़कर अन्यान्य प्रयोग असफल रहे हैं। देखा यह गया है कि जब बेहतर नस्लों के उत्पादन हेतु क्रास-बीडिंग अथवा अमीनो एसिड प्रत्यारोपण के प्रयोग किए गए, तो नई नस्लें तो विकसित हुईं, पर इनकी जीवनीशक्ति— रोगों से जूझने की सामर्थ्य एवं गुणवत्ता अत्यंत घटिया पाई गईं। भारत में गाय पर किए गए प्रयोग एवं अमेरिका जैसे मांसाहार प्रधान देश में सुअरों पर किए गए प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकला कि इससे कमजोर प्रकृति की नस्लें जन्मती हैं, उनमें मूलभूत विशेषताएँ विद्यमान नहीं पाई जातीं।

अब ये प्रयोग मनुष्य की विभिन्न व्याधियों के निवारणार्थ, जो मूलतः आनुवांशिकीय हैं, के प्रयास किए जा रहे हैं। साथ ही 'वैस्ट मैटेरियल' से प्रोटीन या उच्च कोटि के खाद्य पदार्थ पैदा करने के प्रयोग भी हो रहे हैं, पर विडंबना यह है कि इन्हें किया तृतीय विश्व के देशों में जा रहा है। संभावना यह उठती है कि मानव पर किए गए इन प्रयोगों से हो सकता है, नई असाध्य व्याधियाँ जन्मने लगें अथवा जीवनीशक्ति की दृष्टि से कमजोर व घटिया पीढ़ियाँ पैदा हों अथवा कोई ऐसा पदार्थ जन्म लेने लगे, जो घातक सिद्ध हों। कृषि, चिकित्सा, विज्ञान एवं इंडस्ट्रीज के क्षेत्र में ऐसे प्रयोग एक सीमा में किए जाएँ, तो ही मानव जाति के लिए कोई लाभप्रद निष्कर्ष निकल सकते हैं। कुछ प्रयास जो इस दिशा में किये गए व जनसाधारण की जानकारी में लाए गए, वे तो डराते हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के माध्यम से व्यापक संहार करने वाला नस्लवाद का समर्थक हिटलर इस क्षेत्र में प्रथम व्यक्ति माना जाता है। जिसने नीत्से की परिकल्पना को साकार करने के लिए शुद्ध आर्य नस्ल का व्यापक प्रचार किया एवं ऐसे वैज्ञानिकों को प्रश्रय दिया, जो प्रयोग कर सकते हों। हिटलर ने सभी जर्मन तथा यूरोपवासियों के मन में यह धारणा बिठाई थी कि जर्मनी को ही समूचे संसार पर शासन करने का अधिकार है; चूँकि वह शुद्ध आर्य नस्ल है। उसने कमजोर जर्मनों का बंध्याकरण करने, यहूदियों को पूरी तरह नष्ट करने व विवाहेतर यौन प्रसंगों द्वारा बलिष्ठ व मेधावी बच्चों को जन्म देने की बात पर जोर ही नहीं दिया, उसे लागू भी किया। ऐसा कहा जाता है कि हिटलर के चिकित्सक डॉ. जोसेफ मेंजेले ने तो यहाँ तक प्रयास किया था कि जर्मनी का बच्चा-बच्चा हिटलर की प्रतिकृति बने। दुर्भाग्य से समय से पूर्व हिटलर का पतन हो गया, पर डॉ. मेंजेले हिटलर की कोशिकाओं का नमूना लेकर भाग गया। कुछ दिन बवेरिया में छिपा रहकर अर्जेंटाइना, पैराग्वे आदि स्थानों में पहुँचा व अपने प्रयोग जारी रखा। इरालेविन नामक लेखक की पुस्तक 'ब्वायज फ्राम ब्राजील' नामक पुस्तक में लिखा है कि मेंजेले ने हिटलर की कोशिकाद्रव्य द्वारा रेड इंडियन जाति की 94 औरतों के गर्भ में भ्रूण स्थापित किए, जिनसे इतने ही बच्चे पैदा हुए। वे बच्चे हू-ब-हू हिटलर की प्रतिलिपि हैं व प्रत्येक की आयु चौबीस वर्ष की हो चुकी है। यह कहाँ तक सही है, कोई नहीं जानता; क्योंकि किसी ने इन बच्चों को नहीं देखा ,पर एक संभावना का पता तो लगता है, जो दानवी विभीषिका का आभास देती है।

ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों प्रकाश में आया है, जिसमें "सरोगेट मदर" के रूप में प्रख्यात न्यूजर्सी (अमेरिका) की मेरीबेथ व्हाइटहेड नामक महिला ने नौ माह तक कृत्रिम गर्भाधान द्वारा एक डॉक्टर दंपत्ति के भ्रूण को अपने गर्भ में पालकर, एक लड़की को जन्म देकर उसे मूल माता-पिता को देने से मनाकर दिया। यह बच्ची मार्च में एक वर्ष की हो जाएगी। वह चूँकि मामला कोर्ट में चला गया है। एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न सबके सामने लग गया है कि बेबी एम. नाम से प्रख्यात इस बालिका को किराए की माँ के रूप में जन्म देकर श्रीमती व्हाइटहेड ने क्या गलत काम किया है? दूसरी ओर डॉ. विलियम र्स्टन, जो कि एक बायोकेमिस्ट व उनकी पत्नी एलिजाबेथ शिशुरोग विशेषज्ञ है, कहाँ तक सही हैं, जो 10 हजार डॉलर की कीमत पर कृत्रिम गर्भाधान द्वारा दूसरी महिला के गर्भाशय को किराए पर लेकर उससे जन्मी बच्ची पर अपना अधिकार जता रहे हैं । गतवर्ष बच्ची 'सारा' (बेबी एम.) को जन्म देने के बाद पहले से ही 2 बच्चों की माँ 29 वर्षीय मेरीबेथ व्हाईटहेड रो पड़ीं, जब उनसे बच्ची लेने र्स्टन-दंपत्ति गए। उसकी भाव-विह्वलता देख उन्होंने उसे दो हफ्ते अपने पास रखने का आश्वासन दिया; पर पुनः पहुँचने पर उसे जिस स्थिति में पाया, उससे लगा कि उसका 9 माह तक गर्भ में रही बालिका से जो भावनात्मक लगाव है, उस नाते वह बच्ची को देना नहीं चाहती, बदले में सारी राशि उसने लौटा दी। स्टर्न-दंपती तो बच्ची चाहते थे, अतः उन्होंने पुलिस की मदद ली एवं जब वे बच्ची लेने पहुँचे तो उसे लेकर व्हाइटहेड-दंपती पिछले दरवाजे से भाग चुके थे। उन्हें फ्लोरिडा में गिरफ्तारकर मुकदमा चालाया गया, जो अभी सुनवाई के लिए न्यूजर्सी के सुपीरियर कोर्ट जज हार्वे साकेवि के पा पहुँचा है। वे मार्च के अंत तक अपना निर्णय दे चुके होंगे। तब तक बेबी एम. र्स्टन-दंपत्ति के पास रहेगी, मात्र सप्ताह में दो बार दो-दो घंटों के लिए उसे श्रीमती व्हाइटहेड अपने पास रख सकेंगे।

इस विवाद ने कई मुद्दों पर विचार करने के लिए इस प्रगतिशील कहे जाने वाले देश के मनीषियों को विवश कर दिया है। 'टाइम' पत्रिका (19 जनवरी 1987) में 'बायोएथीक्स' का मुद्दा उठाते हुए रिचार्ड लोकायो, ऐगर फ्रैकलीन एवं रसेल लेविट लिखते हैं कि." क्या इस प्रक्रिया को प्रश्रय देकर हम माँ व बच्चे के मध्य स्नेह-संबंधों से खिलवाड़ नहीं कर रहे?" इसे एक “‘बेबी इंडस्ट्री” नाम देते हुए उन्होंने कहा कि' "गर्भावस्था की तोहमत से बचने के लिए धनिकों द्वारा क्या यह निर्धनों का शोषण नहीं है?" मिशिगन के नार्मन रॉबिन्स लिखते हैं कि, "नवजात शिशु को 'सामान' या ‘संपत्ति’ नहीं माना जाना चाहिए। इससे तो गरीबों में 'प्रोफेशनल ब्रीडर' बनने की ललक जागेगी एवं इससे मानवी गरिमा को बड़ी ठेस पहुँचेगी।" उनका अंदाज है कि, "ठेके के आधार पर गर्भाशय किराए पर लेने की प्रक्रिया 1976 के आस-पास आरंभ हुई, तब से अभी तक मात्र अमेरिका में ऐसे 500 बच्चे जन्म ले चुके हैं। ऐसे एक दर्जन केंद्र अमेरिका में काम कर रहे हैं, जो संतानहीन दंपत्तियों को किराए की महिलाओं से मिलाते व गर्भाशय में कृत्रिम गर्भाधान की सुविधा उपलब्ध कराते हैं।" वे कहते हैं कि, "तकनीकी प्रगति ने हमें किस स्थिति में पहुँचा दिया है कि हम संवेदनाहीन बच्चा पैदा होने की प्रक्रिया को मशीनीकरण के समकक्ष मानने लगे हैं।"

वैज्ञानिक जैवयांत्रिकी एवं कृत्रिम गर्भाधान के इन प्रयोगों के समय यह भूल जाते हैं कि दांपत्य जीवन की सरसता ही उन्हें एकदूसरे के लिए वफादार बनाती है और परस्पर सघन सहयोग की मनःस्थिति उत्पन्न करती है। यदि बच्चे गाजर-मूली की तरह किसी भी दुकान से खरीदे जा सकें तो दांपत्य जीवन की नींव हिल जाएगी और बच्चों में पूर्वजों के प्रति श्रद्धा या कर्त्तव्यपालन का कोई भाव शेष न रहेगा।

इससे भी बड़ी बात है— सृष्टि में भिन्नता की विलक्षणता, जिससे परस्पर प्रतिस्पर्धा की आगे बढ़ने की भावना जन्म लेती है। संत चोर को लज्जित करता है और चोर संत से अपने परिवर्तन की प्रेरणा प्राप्त करता है। जब सभी एक जैसी प्रकृति के होंगे तो पीढ़ियाँ बलिष्ठ या सुंदर भले ही हों, वे विलक्षणताएँ जीवित न रहेंगी, जो मानव जाति के वर्चस्व को बढ़ाती हैं।

इसलिए इन प्रयासों को भी अणु विस्फोट की तरह खतरनाक मानकर उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। प्रयोगशाला की सीमा तक ही यह प्रयास सीमित रखना हो, तो परिणाम अन्य पशु-पक्षियों पर प्रयोग करके देखे जा सकते हैं।


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