सब्ज बाग न देखें, यथार्थता से जुड़ें

April 1987

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इटली में प्रचलित एक लोकोक्ति के प्रसंग-संदर्भ में कहा जाता है कि 'वुरिडान का गधा' भूखा मर गया था। उसके दोनों ओर घास के ढेर जमा थे, पर यह निर्णय न कर पाया कि किस ढेर को खाए, किसे छोड़े? उलझन में वह कभी एक ओर मुँह करता और फिर दूसरी ओर ताकने लगता। किस ढेर को खाए, यह उसकी बुद्धि निर्णय न कर सकी; फलतः वह कई दिन बिना खाए ही खड़ा रहा और दुबला होकर मर गया।

हम में से यही स्थिति कितनों की होती है। वे सामने पड़े अनेक कार्यों में से यह चुनाव नहीं कर पाते कि किसे अपनाएँ और किस प्रसंग से मुँह मोड़ें; फलतः वे किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते और सब ओर मन डुलाते हुए किसी को भी ठीक तरह कर नहीं पाते। डाँवाडोल मन उन्हें किसी सुनिश्चित निर्णय तक पहुँचने नहीं देता; फलतः उनके सभी काम अधूरे रह जाते हैं।

फ्रांसीसी विद्वान वी. जैड डूँकले अनेक भाषाओं के विद्वान और पंडित थे, उनने सभी भाषाओं की एक-से-एक बढ़कर उत्तम पुस्तकें पढ़ीं। वे उनमें से कुछ का फ्रेंच में अनुवाद करना चाहते थे; पर वे जीवन भर में एक भी पुस्तक पूरी न कर सके। जब तक एक का अनुवाद हाथ में लेते तब तक दूसरी की ओर उनका मन बदल जाता। पहली को छोड़ देते दूसरी को करने लगते; फलतः पहली अधूरी रह जाती। यही क्रम चलता रहा और अंत समय वे प्रायः साठ पुस्तकें अधूरी छोड़कर परलोक चले गए। उनमें से एक भी ऐसी न थी, जो पूरी हो चुकी हो और उसे छापा जा सके।

अनिर्णित मनःस्थिति को बालबुद्धि कहते हैं। बच्चे अभी एक काम शुरू करते है। दूसरे ही क्षण मन बदलने पर दूसरा काम करने लगते है। अभी एक खिलौना पसंद किया, कुछ ही देर में उसे फेंककर दूसरे के लिए मचलने लगे। उठाकर संभालना और उन्हें सँजोकर रखना किंहीं विरलों को ही आता हैं। ऐसी ही बचकानी मनोवृत्ति कितने ही बड़ी आयु वालों में भी देखी जाती हैं।

जब एक प्रसंग पर विचार करते हैं, तो उसकी पक्षधर दलीलें और कल्पनाएँ ही सामने आती चली जाती हैं; फलतः वही पसंदगी सबसे अधिक सही और सुहावनी लगती हैं। उसी को अपनाए रहने को मन करता है। किंतु जब कुछ समय उपरांत अन्य प्रकार के विचार सामने आने लगते हैं, उनकी अच्छाइयाँ सूझने लगती हैं, अपेक्षाकृत अधिक सुविधा एवं लाभ दिख पड़ता है, तो मन उस ओर ढुल जाता है। पहले काम से मन उचटने लगता है। पूरी तरह न पिछला काम छूट पाता है और न नया चालू हो पाता है। ऐसी दशा में यत्किंचित मात्रा में दोनों ही प्रकार की हरकतें होने लगती हैं। समुचित मनोयोग न लगने से उनमें से एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। दोनों ही आधे-अधूरे काने-कुबड़े रहते हैं। सफलता किसी भी पक्ष को नहीं मिलती।

अदालत में बैठकर यदि वकीलों की बहस सुनी जाए, तो जिस पक्ष की दलील, बहस, कारण और प्रमाण सुने जाते है, वही सही प्रतीत होने लगते हैं। किंतु जब दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का अवसर मिलता है, तो उसकी बात भी उतनी ही सही प्रतीत होती है, जितनी कि कुछ समय पहले का प्रतिपादन सही मालूम देता था। अपरिपक्व बुद्धि यह निर्णय नहीं कर पाती कि किसके कथन में कितना दम है और कितना जंजाली ताना-बाना बुनकर छोड़ा गया है। किंतु निष्पक्ष न्यायाधीश का विवेक यह आसानी से ताड़ लेता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतिपादनों में से किसके कथन में कितना दम है। वह तथ्यों में से जो जानदार है उन्हें नोट करता है और उसी आधार पर अपना फैसला लिखता है।

इंजीनियर जब किसी बड़े कार्य को हाथ में लेते हैं, तो अनेक विकल्पों पर विचार करते हैं। अनेकों कल्पनाएँ और संभावनाएँ सामने रखते हैं। उनमें से प्रत्येक के गुण-दोषों का ब्यौरा तैयार करते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से काट-छाँट करते हैं और तैयार किए गए प्रस्तावों पर गंभीर विचार करने, दूसरों के परामर्श सुनने के उपरांत किसी निर्णय पर पहुँचते हैं। जब निश्चय हो जाता है, तो समूची तत्परता और तन्मयता के साथ उसे पूरा करने की योजना बनाते और साथियों, अनुयायियों समेत उस काम में जुट जाते हैं। ऐसी लगन से किए हुए काम ही पूरे होते और पार पड़ते हैं। जिनके मन में असमंजस बना रहता है, निर्धारित योजना को संदेह की दृष्टि से देखते रहते हैं और सोचते हैं कि इसकी अपेक्षा अन्य प्रस्ताव कार्यांवित किया गया होता, तो अच्छा होता। यह संदेह उनकी आधी क्षमता और प्रतिभा को नष्ट कर देता है; फलतः कार्य उतनी अच्छी तरह नहीं चल पाता, जितना कि चलना चाहिए। संदेह और असमंजस उनकी आधी सफलता को निरस्त कर देता है।

दुर्बल मनवालों की बालबुद्धि प्रायः ऐसी ही होती है। वे दूरदर्शिता के अभाव में कुछ भी सोचने लगते हैं और किसी के भी बहकाए में आ जाते हैं। परिणाम यह होता है कि वह अपने निर्णय तथा दूसरों के परामर्श में छलावा ही देखते रहते हैं। यह निश्चय ही नहीं हो पाता कि जो किया जाना चाहिए था, वही किया जा रहा है? या भटकावों में भटका जा रहा है। जब मन की निश्चिंतता और दृढ़ता हो तो हाथ-पैर पूरे उत्साहपूर्ण व्यवस्थित रूप से किसी कार्य में अपने को गतिशील करें। अधूरे मन से किये गए काम या तो पूर्णतया असफल होते हैं या इस प्रकार अधर में लटकते रह जाते हैं, जिन्हें असफलता के समतुल्य कहा जा सके । यह अनिश्चितता की स्थिति ऐसी है, जिसे आदत की तरह नहीं अपना लिया जाना चाहिए; अन्यथा असमंजस अपने कुचक्रों में फँसाकर मनुष्य को असफल ही बनाकर छोड़ता है। उसकी मनःस्थिति जो भी जानते हैं वे उसे सनकी, बचकाना या अर्धविक्षिप्त की संज्ञा देते हैं।

ऐसी स्थिति में फंसने की अपेक्षा उत्तम यह है कि जितने भी विकल्प हो सकते हो, उन्हें सामने रखते हुए काट-छाँट की जाए, कि अपनी सामर्थ्य एवं वर्त्तमान परिस्थिति के अनुरूप क्या संभव है? जो संभव हो उसे तत्काल पकड़ना चाहिए और अपनी दक्षता उसी कार्य में समाहित करते हुए यह सिद्ध करना चाहिए कि उनकी योग्यता अधिक ऊँचे काम कर सकने की भी है। देखने वाले देखते हैं कि कीमती रत्न का मूल्याँकन एक दुकान पर न सही दूसरी दुकान पर हो जाता है। सुयोग्य व्यक्तियों की प्रगतिशीलता का यही इतिहास है। उनने सर्वप्रथम बड़ी पदवी की माँग नहीं की और छोटे काम में बेइज्जती नहीं समझी। संयोगवश जो भी काम सामने आया उसे पूरा करने में एकाग्र मन से इस प्रकार जुट गए कि मात्र वही सर्वोत्तम है। कम की प्रतिष्ठा को उच्च बताकर मनोयोगपूर्वक किया जाना इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति की निर्णयात्मक बुद्धि सही है।

अनेक पक्षों और पहलुओं पर अनेक दृष्टियों से विचार किया जाना चाहिए। इसमें कुछ देर लगे तो उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। धैर्य इसी को कहते हैं कि सब्ज बाग न देखे जाएँ। दिवास्वप्नों में न उड़ा जाए, यथार्थता के साथ जुड़ा जाए और जब निष्कर्ष का नवनीत निकल आए, तो भटकन बंद कर देना चाहिए और एकाग्रता के साथ कार्य में जुट जाना चाहिए। सही दृष्टिकोण और सही व्यवस्था अपनाते हुए, जो भी काम किया जाता है, वह सफल होकर रहता है।


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