ध्यान-धारणा का प्रभाव— परिणाम

April 1987

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श्रद्धा-विश्वास का समग्र संपुट लगी हुई एकाग्रता ध्यान कहलाती है। ध्यानयोगी इस विधान का महत्त्व समझते और अपनाते हैं। यदि कार्य उचित रीति से किया गया है तो उसका समुचित लाभ भी मिलता है।

पुरातनकाल में ध्यान देवताओं की निकटता पाने और उनके अनुग्रह-वरदान से लाभांवित होने के लिए किया जाता था। जिस देवता पर श्रद्धा होती, उसकी छवि की कल्पना-लोक में झाँकी करते रहने और उसके प्रति अपना प्रेमभाव जताते हुए मानसिक अभिव्यंजना की जाती थी। इसमें ध्यान की सफलता का बड़ा चिह्न यह समझा जाता था कि कल्पित प्रतिमा की झलक-झाँकी मिल सके। यों यह होती तो एकाग्रता के परिपाक समेत भावविभोरता की स्थिति में ही थी; पर इतने भर से ही साधक का मनोबल बढ़ता था और विश्वास होता था कि यह देवानुग्रह का आरंभिक चरण है। आगे चलकर इष्टदेव से प्रत्यक्ष भेंट होने लगेगी और आदान-प्रदान का क्रम चलने लगेगी, पर गाड़ी जहाँ की तहाँ रुक जाती थी; क्योंकि कल्पित देवता का प्रकटीकरण और उसके अनुग्रह का अकारण अभिवर्षण सृष्टि की क्रम-व्यवस्था के अनुरूप नहीं है; यों आए दिन जीवन में सफलता-असफलता के चलते चक्र में से सफलता वाले अंश के देवता की अनुकंपा मानकर किसी प्रकार संतोष कर लिया जाए तो मन को इसी आधार पर प्रसन्न कर लेने का इसे सहज तरीका भी माना जा सकता है। मध्यकालीन अंधविश्वासों के युग में ध्यानयोग का उपयोग प्रायः इसी रूप में इसी प्रयोजन के निमित्त होता था। बढ़ी-चढ़ी फलश्रुति बताकर गुरुजन अपने भक्त-शिष्यों को भी इस निमित्त आकर्षित करते थे। वस्तुतः उनका उद्देश्य अनेक शिष्य बटोरना और उनसे सम्मान तथा अर्थ सहयोग का लाभ अर्जित करना होता था। इस तथाकथित साधक-समुदाय में से किसी के हाथ कुछ लगता था या नहीं? अथवा आत्मप्रवंचना ही उनके पल्ले पड़ती थी; यह ठीक से नहीं कहा जा सकता।

ध्यान का बुद्धिसंगत एवं वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि किसी कल्पित या प्रत्यक्ष चमकीले बिंदु पर अपनी अंतर्दृष्टि को इच्छाशक्ति के समन्वय सहित एकत्रित किया जाए। इस प्रयोग का प्रतिफल यह होता है; कि मन की घुड़दौड़ रुक जाती है और वह किसी एक प्रसंग पऱ समाहित होने लगती है। सूर्य किरणों को आतिशी शीशे पर एकत्रित करने से आग जलने लगती है। उसी प्रकार मन की भगदड़ को किसी विषय विशेष पर केंद्रीभूत कर लेने से उसकी वेधकशक्ति अत्यधिक हो जाती है। उसे जिस भी काम में नियोजित किया जाए उसे अधिक सशक्तता और विशेषता के साथ संपन्न करती है। वैज्ञानिक, कलाकार, शिल्पी, शोधकर्त्ता इसी आधार पर अपनी एकात्मता को विकसित करके अभीष्ट प्रयोजन में लगाते है और आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करते हैं। सरकस के कलाकारों की विशिष्टता इस एकाग्रता की साधना पर ही अवलंबित रहती हैं।

शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारण में भी ध्यानयोग की परिपक्वावस्था अच्छा लाभ दिखाती है। रुग्ण अवयव को यदि विश्वासभरा संकेत-निर्देश दिया जाए और उसके रोगमुक्त होने की स्थिति तेजी से सुधर रही है, तो उस कथन पर विश्वास करने वाला निश्चय ही आरोग्य लाभ करता है। यह लाभ अपने को भी दिया जा सकता है और दूसरों को भी। मैस्मरेज्म-हिप्नोटिज्म में यह इच्छाशक्तियुक्त एकाग्रता से ही अनेक प्रयोजन सिद्ध किए जाते है। मानसिक रोगों में तो इसका उपचार अधिक परिमाण में उत्साहवर्द्धक होता देखा गया है।

मस्तिष्क के विभिन्न केंद्रों में अतींद्रिय क्षमताओं के भंडार भरे पड़े हैं; पर वे प्रायः प्रसुप्त स्थिति में ही पड़े रहते हैं। इनमें से कुछ को भी किसी अंश में जागृत किया जा सके, तो साधक को दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास आदि अनेकों ऐसे लाभ मिल जाते हैं, जिनके कारण व्यक्ति अपना और दूसरों का बहुत भला कर सकता है। शारीरिक-मानसिक क्षमताओं का लोग अनेक प्रकार से अधिकाधिक लाभ उठाते और देते हैं। इस संदर्भ में कोई आगे बढ़ता है और भौतिक-संपदाओं की तरह आत्मिक-संपदा भी अर्जित कर सकता हैं। यह कमाई अन्य किसी कमाई से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

कीट, भृंग का उदाहरण प्रख्यात है। दोनों के बीच एकात्मता संव्याप्त हो जाती है, तो उसका प्रभाव आदान-प्रदान के रूप में सामने आता है। ध्यान की यही विशेषता है कि जिसके साथ भी तादात्म्यता-तन्मयता स्थापित की जाए उसकी विशेषताएँ अपनी ओर हावी होने लगती है। इसका हल्का-सा प्रभाव संगति के फल से उत्पन्न होते देखा जाता है। चंदन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगंधित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया अंयत्र भी चरितार्थ होती है। ध्यान में शारीरिक एवं प्रत्यक्ष समीपता न होने पर भी भावनात्मक समीपता से भी कुछ उपलब्ध किया जा सकता है।

इन दिनों कितने ही ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो देववाद को नहीं मानते, उन पर विश्वास नहीं करते। जैन, बौद्ध, वेदांती आदि ईश्वर की वैसी सत्ता स्वीकार नहीं करते जैसी कि सर्वसाधारण में प्रचलित है। निराकारवादी भगवान को तो मानते हैं; पर उसका कोई रूप होने का विश्वास नहीं करते हैं। नाद, बिंदु, लय के आधार पर अपनी साधनाएँ चलाते हैं। इनके लिए साकार ध्यान, देवपरक भूमिका में कर सकना कठिन है। इतने पर भी यह प्रतिबंध नहीं है कि ध्यान का लाभ उठाने में अड़चन है।

कलाकार, वैज्ञानिक एवं मैस्मरेज्म के मात्र प्रयोक्ता ध्यान को  उपलब्धियों के  भौतिक प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करते हैं। उन्हें आत्मोत्कर्ष का गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता के समावेश वाला प्रयोजन समझ में नहीं आया। इस विधा से रहित मात्र भौतिक विशेषता हस्तगत कराने वाला प्रयोग काम-काजी या लोक-व्यवहारी कहा जा सकता हैं। उससे वह लाभ नहीं मिलता जिससे पवित्रता एवं प्रतिभा का संवर्द्धन हो सके।

इसके लिए नया तरीका यह है, कि सद्गुणों से अभिप्रेरित किसी पदार्थ या व्यक्ति का नियत समय पर समग्र एकाग्रता के साथ ध्यान-प्रयोजन पूरा किया जाए। पदार्थ में गुलाब जैसे फूल और आम्र जैसे वृक्ष की निजी विशेषता की अनुभूति को अपने में उतारने का प्रयत्न किया जा सकता है। व्यक्तियों में विवेकानंद, गांधी, सुभाष, विनोबा, दयानंद, प्रताप, भामाशाह, हरिश्चंद्र भागीरथ जैसों को इष्टदेव के समतुल्य मानकर उनके गुणों का, सेवाकार्यों का ध्यान किया जा सकता है और साथ ही यह विश्वास भी जोड़ा जा सकता है कि उन सद्गुणों का प्रवेश अपने व्यक्तित्व में होता चला जा रहा है।

यह चिंतन जितना सघन होगा उतना ही उसका प्रभाव पड़ेगा। उसी अनुपात से ध्यान एवं विभूतियाँ अपने भीतर प्रवेश करती चली जाएँगी और गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि में अपने उत्कर्ष का क्रम उभरता चलेगा।

ध्यान का प्रभाव कभी भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। भूत-प्रेतों की कथा या कल्पना में जो लोग निरत रहते हैं उनमें डरने या डराने की प्रवृत्ति उभरती है। अश्लील चिंतन से मस्तिष्क तदनुरूप रंगरेलियों में उलझ जाता है और शरीर में स्वप्नदोष जैसी उत्तेजना अपना काम करने लगती है। अच्छा यही है साधना की दृष्टि से अथवा चिंतन को परिष्कृत करने की दृष्टि से हम श्रेष्ठता को साथ लिए रहें और उसी का ध्यान किया करें।


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