रामकृष्ण परमहंस के गले में कैंसर हो गया और वे उसका भारी कष्ट सहते हुए मरणासन्न स्थिति में जा पहुँचे
उनके एक भक्त ने कहा— आप भवानी से प्रार्थना क्यों नहीं करते,जिससे वे आपका कष्ट दूर कर दें। उत्तर में उन्होंने कहा कि एक तो मैंने जीवन भर देना ही देना जाना है। माता को भी समर्पण किया। माँगने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। अब चलते-चलते दानियों में से नाम कटाकर याचकों में गणना क्यों कराऊँ? आत्मसम्मान क्यों गंवाऊँ।
इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि दुखियों को अपना पुण्यफल देकर उनके कष्ट घटाता रहा, जितना पुण्य जमा था उससे अधिक खर्च कर डाला। उस घाटे की भरपाई के लिए याचकों वाला कष्टभार मुझे ही सहना होगा। विधि-विधान मूल्य पाकर ही किसी को कुछ देता है।
भले ही किसी की जेब से उसे चुकाया जाए। कैंसर कष्ट सहकर उसी असंतुलन की भरपाई कर रहा हूँ। जो पीड़ितों को कष्टमुक्त करने के लिए पेशगी खर्च किया था।