एक घना जंगल था। उसमें कई शूकर परिवार रहते थे। आक्रमणकारी सिंह एक ही था। वह जब चाहता हमला करता और किसी भी मोटे-दुबले शूकर को चटकर जाता। झुंड के अन्य सदस्य घबराकर सिर पर पैर रखकर जिधर-तिधर भागते।
एक दिन बूढे शूकर ने सजातियों के सभी परिवारों को एकत्रित किया और कहा मरना है; तो बहादुरी से क्यों न मरें। रहना है, तो मिल-जुलकर क्यों न रहें ! बात सभी की अच्छी लगी और वे उसके कहने से चलने को सहमत हो गए।
दूसरे दिन तगड़े-तगड़े शूकरों ने एक दल गठित किया और योजना बनी कि आक्रमण की प्रतीक्षा न करके शेर की मांद पर चला जाए और वहाँ उस पर हमला बोल दिया जाए। नई, योजना, नई हिम्मत और नई आशा से तगड़े शूकरों के हौसले बहुत बढ़ गए थे। सो वे बहादुरी के साथ चले और मांद में सीधे शेर पर बिजली की तरह टूट पड़े।
शेर को ऐसी मुसीबत का सामना इससे पहले कभी भी नहीं करना पड़ा था। वह घबड़ा गया और जान बचाकर इतनी तेजी से भागा कि यह देख तक न सका कि हमला करने वाले कौन हैं और कितने हैं? भयाक्रांत शेर ने उस जंगल में भूतों का निवास माना और फिर कभी उधर न लौटने का निश्चय करके दूरस्थ वन में अपना डेरा डाला। शूकरों के परिवार निश्चिंततापूर्वक रहने और वन विहार का आनंद लेने लगे।
उसी क्षेत्र में रहने वाले एक श्रृंगाल ने रात को अपने बच्चों का मनोरंजन करते हुए शूकरों द्वारा सिंह पर किए गए आक्रमण की कथा सुनाई और कहा— "बड़ी ताकत नहीं, सूझ-बूझ है, जिसे अपनाकर शूकरों को श्रेय मिला, जिसके अभाव में सिंह को अपना राज्य अकारण ही छोड़ना पड़ा ।"