क्या भूत-प्रेतों का अस्तित्व है?

April 1987

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भूत-प्रेतों का अस्तित्व उनका अशांत स्थिति में परिभ्रमण, संपर्क में आने वालों की उलट-पुलट करते इसी रूप में बहुधा देखा जाता है। इस संबंध में कहा जाता है कि इन मान्यताओं के पीछे भ्रम या अपडर ही विशेष रूप से काम करते हैं। संदेही और डरपोक प्रकृति के व्यक्ति उन्हें अपनी कल्पनाओं के सहारे गढ़ते हैं और तिल का ताड़ बनाकर खड़ा कर देते हैं। झाड़ी का भूत बनने, रस्सी का साँप दिखने वाली उक्ति यहाँ सही होती प्रतीत होती है।

यह बात पिछड़े लोगों के संबंध में सही हो सकती है एवं उन पर भी फिट बैठती है, जो इसी मानवी शंकाशील मनोवृत्ति को उभारकर अपना धंधा चलाते हैं। फिर भी कभी-कभी विज्ञ-विद्वज्जनों के समक्ष भी ऐसा कुछ घटित होता रहता है, जिसके बारे में संदेह-निवारण के सभी उपाय कर लेने पर भी तथ्य यथावत रहते हैं और भूतों के, उनकी करतूतों के प्रमाण मिलते रहते हैं। यहाँ इस विवेचन का उद्देश्य भूत की चर्चा द्वारा किसी को डराना नहीं है, अपितु विक्षुब्ध मनःस्थिति के मरणोत्तर जीवन में प्रेतयोनि में भटकने की, आत्मसत्ता की नश्वरता की पुष्टि करना है। बहुत से अनीतिपरक कृत्य मात्र इसीलिए होते देखे जाते हैं कि जनसाधारण जो भी कुछ दृश्यमान है, स्थूल है, वर्तमान है, उसी को सब कुछ मानते हुए उपभोगवादी वृत्तियों में निरत रहता है। काया का सुख ही सब कुछ है और इसके लिए कुछ भी किया जाए, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, दंड तो मिलना नहीं है। यही मान्यता कर्मफल के सिद्धांत के प्रति अवज्ञा को और फिर अनास्था को जन्म देती है और मनुष्य पशुवत्-पिशाचवत् आचरण में लिप्त होता देखा जाता है। प्रेत किसी सज्जन को अकारण कष्ट नहीं देते; पर अपनी विक्षुब्ध स्थिति में उस योनि में विचरते हुए शंकालु मनःस्थिति वालों, अनीतिजन्य कृत्यों की कीच में सने व्यक्तियों को अवश्य परेशान करते एवं उस स्थान को, जो उनके क्रिया-कृत्यों की साक्षी होता है, अभिशप्त कर देते हैं। सभी सूक्ष्म आत्माएँ प्रेतरूप में अथवा दुष्ट प्रकृति की नहीं होतीं, पर अदृश्य सहायक पितर आत्माओं से इतर अन्यान्य प्रेतात्माओं के जो प्रमाण मिलते हैं, वे मरणोत्तर जीवन की सत्ता में हमारा चिर पुरातन विश्वास सुदृढ़ करते हैं।

लार्ड क्लाइव ने ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ें स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं। अनगिनत व्यक्तियों को उसने इस प्रयोजन हेतु प्रताड़ित कियाकई महिलाएँ उसके कारण विधवा हुईं कईयों को उसने बिना किसी अपराध के सूली पर लटका दिया। जब ईस्ट इण्डिया कंपनी ब्रिटिश राज के रूप में परिणत हुई, ग्रेट ब्रिटेन की राजसत्ता ने उसे ससम्मान रिटायरकर इंग्लैण्ड की एक काउंटी में रियासत दे दी। अपने साथ विपुल संपदा वह जहाज में लेकर आया था। आखिर सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत देश पर आधिपत्य जमाने में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका जो निभाई थी। इंग्लैण्ड आने पर उसने देखा कि कोई रिश्तेदार उसके साथ रहने को तैयार नहीं; जबकि वह असीम संपदा का स्वामी था। अकेला वह अपनी रियासत के भव्य भवन में बैठा विगत जीवन पर विचार करता रहता था। ज्यों-ज्यों पिछले जीवन के क्षण फिल्म की तरह उसकी स्मृति पटलकर आने लगे, उसे लगने लगा कि वे सभी, जिन्हें उसने सताया था, उसके आस-पास खड़े हैं एवं कभी भी उसे मार डालेंगे। वह अपनी रायफल लेकर बैठने लगा व उन छायाओं पर, जो उसे दिखाई पड़ती थी, गोली चलाता रहता। साथ ही उन्हें गाली भी देता, धमकाता रहता कि वह सबको गोली मार देगा। 'शंकाडायन मनसाभूत' की तरह वे गोलियाँ उन कल्पित भूतों को तो लगती नहीं थीं, खिड़की से बाहर जाकर महल के चारों ओर घूमने वाली एक सड़क पर जाने वाले वाहनों से टकराती थीं। वहाँ एक बोर्ड लगा दिया गया कि इस सड़क पर सावधानी से गाड़ी चलाएँ, कभी भी गोली आपके विंडस्क्रीन से टकरा सकती है। प्रयास क्लाइव के पास पहुँचकर समझाने के भी हुए, पर हिम्मत किसी की न हुई। एक दिन एक व्यक्ति ने समीप पहुँचकर देखने की कोशिश की तो पाया कि लार्ड क्लाइव तो कभी का अपनी ही राइफल से घोड़ा दबाकर आत्महत्या कर चुका है। उसकी लाश व राइफल वहीं पड़ी थी। उसे दफना दिया गया, पर गोलियाँ चलने का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। लोग उसे भुतहा महल मानने लगे। वह बोर्ड अभी भी वहाँ टंगा है। गोलियाँ अभी भी तीर की तरह सनसनाती आती हैं व कारों से टकराती हैं। उस रोड पर तकरीबन यातायात बंद है। लोगों का कहना है कि लार्ड क्लाइव का भूत ही गोलियाँ चलाता है और उसकी विक्षुब्ध आत्मा वहीं मँडरा रही है यह एक ऐसे व्यक्ति की अंतिम परिणति है, जिसने ग्रेट ब्रिटेन के औपनिवेशिक विस्तार में महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया एवं अनगिनत मासूमों की आहें उसे लगीं।

इसी प्रकार ब्रिटेन के राजपरिवार के कब्जे में मुद्दतों से रहता आया ग्लैमिस नामक महल का शयनकक्ष भी अपने भुतहे क्रियाकलापों के कारण कुख्यात है। राजमाता ने उस स्थान को शांतिदायक समझकर वहीं अपना शयनकक्ष बनाया था। जब वे उथली नींद में होतीं तभी उन्हें उस सुनसान में बाहर से आने वाली चहलकदमी, धमाचौकड़ी, भगदड़ और उठक-पटक दिखाई पड़ती। कुछ दिन उन्होंने इन आवाजों की उपेक्षा की। जब आए दिन ऐसा ही उपक्रम दिखा तो चौकीदार-पहरेदारों की कड़ी व्यवस्था की गई।

अधिक मुस्तैदी से रात्रि का पहरा चलने पर भी आवाजों में कहीं कोई अंतर न आया। प्रकाश की अच्छी व्यवस्था की गई थी, पर कोई ऐसा न दिख पड़ा, जिसे उन हरकतों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सके। फिर राजमाता ने शयन हेतु अपना कक्ष बदल लिया। वह कक्ष बदल लिया। वह कक्ष उसके बाद खाली ही रहा। इतिहास टटोलने पर पता चला कि कुछ सौ वर्ष पूर्व वहाँ कई लड़कियों को बंद रखा गया था, व उन पर अमानुषिक अत्याचार किए गए थे। राजमाता ने बाद में महल ही छोड़ दिया।

एक घटना छठी शताब्दी की है। विडंसोर के एक महल में जब भी किसी मेहमान को ठहराया जाता तो कभी उनका पलंग अपने आप ऊपर उठने लगता, कभी भयानक दुर्गंध आने लगती। हमेशा मेहमानों को उस भव्य प्रसाद से हटाकर अन्यत्र ले जाना पड़ा। प्रत्येक ने देखा कि कमरे में जो वस्तुएँ, फर्नीचर तथा सजावट आदि का सामान शाम को जहाँ रखा जाता वहाँ प्रातः नहीं मिलता। तितर-बितर हुआ मिलता। नौकरों से पूछा जाता तो वे अपने को निर्दोष बतलाते। कहा जाता है कि एक विक्षिप्त राजकुमार की उसी महल में मृत्यु हो गई थी। बात फैलने न पाए इसलिए उसके ताबूत को उसी महल के एक एकांत कोने में दफन कर दिया गया था। जिनने भी उस पागल को देखा था वे उसी आकृति को अपने साथियों समेत उस महल में जहाँ-तहाँ टहलता देखते थे। बाद में सन् 1034 में स्कॉटलैंड के राजा माल्कम द्वितीय की हत्या हुई थी। इसके बाद उपद्रवों का सिलसिला और भी अधिक बढ़ गया।

उस महल को खाली न पड़ा रहने की दृष्टि से एक वृद्धा चौकीदारिन को उसमें रख दिया गया था। एक और वयोवृद्ध क्राफोर्ड भी उस महल में दूसरे कोने में रहता था। दोनों के लिए दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ जुटा दी जाती थीं, पर आयु अधिक होने से वे बहुत दिन जीवित न रहे। समयानुसार वे दिवंगत हो गए। बात समाप्त हुई, पर उस महल के मालियों और चौकीदारों ने उन दोनों मृतात्माओं को कई-कई बार अपने-अपने कक्ष के निकट टहलते देखा। कारण पूछने के लिए उनके पास पहुँचने से पहले वे गायब हो जाते। क्राफोर्ड को तो कई बार अंगीठी पर आग सेकते और दोस्तों के साथ ताश खेलते देखा गया।

कहा जाता है कि सम्राट हेनरी अष्टम ने अपने एक सामंत के पुत्र की हत्या इसी महल में करवाई थी। हेनरी पंचम की पत्नी की हत्या भी इसी महल में हुई थी। इन सभी मृतात्माओं की चीखे वहाँ अभी भी बड़े जोरों से सुनाई देती हैं।

प्रथम महायुद्ध के समय इस महल को रक्षाकेंद्र बना दिया गया था और वहाँ सैनिक रहते थे। एक दिन सैनिकों को न जाने क्या सूझा कि आपस में ही लड़- झगड़कर उन्होंने एकदूसरे को मार डाला, तब से ही अभिशप्त किले के रूप में मांयता प्राप्तकर वह अनेक ऐसे ही भुतहे महलों की सूची में आ गया, व खाली पड़ा है।

एकदूसरी घटना केंया पूर्वी अफ्रीका की है, इस देश का गेटी नामक नगर कभी काफी संपंन और सुहावना था, पर भूतों ने उसमें प्रवेश किया और पूर्वनिवासियों को इस प्रकार सताया, कि वे अपना घर और खेत, धंधा छोड़कर अंयत्र चले गए और पूरा नगर भूतों के कब्जे में चला गया। कोई असाधारण हिम्मत वाले ही “जहाँ जन्मे हैं, वहीं मरेंगे” यह सोचकर वहीं रह गए।

इस नगर का समीपवर्ती वन-प्रदेश असाधारण रूप से सुहावना था। खंडहरों के टीले भी कम सुहावने न लगते थे। यूरोप की सोफिया नामक एक चित्रकार अपनी सयानी बेटी के साथ उस क्षेत्र के चित्र उतारने आई। उनके साथ एक चित्रकार दांपत्य और चल पड़े। इन चार कलाकारों की मंडली का ख्याल था, कि वे ऐसे सुंदर वन-प्रदेश के चित्र बनाकर अच्छी कीमत उठा सकेंगे। भूत-प्रेतों की बात उनने हँसी में उड़ा दी। कहा कि यह मात्र पिछड़े लोगों का वहम है। कार्य कई दिन उत्साहपूर्वक चला। जीव साथ थी। ठहरने के लिए मकानों की कमी न थी। उनने अपना डेरा डाला और खाने पीने के सामान का भी प्रबंध कर लिया। चित्र बनने का सिलसिला शुरू ही हुआ था कि सोफिया का पैर फिसला और घुटने की हड्डी टूट गई। एक वृद्ध ने चेतावनी दी कि वे जल्द ही यहाँ से चले जाएँ, नहीं तो उनकी खैर नहीं है। उन्होंने उसे एक साधारण व्यक्ति समझकर खाने को दिया व हँसते हुए विदा कर दिया; पर घटनाक्रम यहीं समाप्त नहीं हुआ, तीसरे दिन सोफिया की बेटी एक टीले से फिसली और उसकी रीढ़ की हड्डी में भारी चोट लगी। दोनों माँ-बेटी को समीप के एक कस्बे में अस्पताल में भर्ती कराया गया।

इतने पर भी दो बचे हुए चित्रकारों ने बीमारों की रोज देखभाल करते हुए अपना काम जारी रखा। बंदूक की नली साफ करते समय एक कारतूस अनायास ही पुरुष चित्रकार के हाथों से छूटा व पत्नी के पेट से होकर पार निकल गया। वह बच तो गई पर अस्पताल में गंभीर अवस्था में पड़ी रही।

इतने में समाचार आया कि अमेरिका की जिस फर्म ने उन्हें चित्र उतारने का खर्च देकर भेजा था, व पहले से सौदा कर लिया था, उसके घर में आग लगी और वह सब कुछ गँवा बैठा। अब लौटने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। स्थानीय अस्पताल में तब तक पड़े रहे, जब तक कि उन्हें बड़े अस्पताल में पहुँचाए जाने योग्य स्थिति नहीं बनी। भुतहे नगर की असलियत का वह पार्टी भी अनुमान लगाकर अंततः चली ही गई। इस अकेले समूह का ही नहीं ,कइयों का सामना इस नगर से हुआ व वे मुँह की खाकर गए।

वस्तुतः जो दृश्यमान है, वही सब कुछ है, यह नजरिया अब हमें बदलना होगा। परोक्ष जगत का भी परमाणु की सूक्ष्म सत्त की तरह महत्त्व है। आत्मसत्ता अपने सूक्ष्मरूप में विक्षुब्ध स्थिति में प्रेत बनकर इसी में डोलती-मंडराती रहती है, जब तक कि उसे शांति न मिल जाए। भुतहे क्रियाकलाप एवं उनसे जुड़े अभिशप्त स्थान इसी तथ्य की बानगी है।


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