जीवन में सरसता भर देने वाले चार आधार

April 1987

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जीवन में सरसता भर देने वाले चार आधार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह चार प्रकरण ऐसे हैं, जिन्हें जीवन-व्यापार में आवश्यक माना गया है और परस्पर गुँथे हुए भी। धर्म का अर्थ है— कर्त्तव्यपालन। मनुष्य अनेक कर्त्तव्यों और दायित्त्वों से जकड़ा हुआ है। वह पशुवत् स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। कोई होना चाहे तो समाज उसे वैसा न करने देगा। विरोध, निंदा, प्रताड़ना जैसे अनेक उपचार उसके लिए हैं, जो मर्यादाओं और वर्जनाओं का उल्लंघन करने का प्रयास करता है।

फिर मनुष्य की संरचना भी ऐसी है कि उसकी स्थिरता और प्रगति दूसरों के सहयोग पर पूर्णतः निर्भर है। अन्न, वस्त्र, शिक्षा, आजीविका आदि वह स्वयं ही नहीं कमा लेता। इसके लिए उसे दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है। माता के संरक्षण में वह अपनी शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी करता है। परिवार के बीच रहकर वह भाषा और सभ्यता सीखता है। शिक्षा और व्यवसाय कोई अपने आप एकाकी नहीं कर सकता। विवाह किसी दूसरे की ही कन्या से होता है। उसका लालन-पालन करके ससुराल वाले अनुग्रहपूर्वक ही प्रदान करते हैं। मित्रों की सहायता से ही हँसी-खुशी का समय कटता है।

इन अनुदानों का प्रदान— देना ही कर्त्तव्यपालन है। जिस समाज के द्वारा हमें सुविधाएँ प्राप्त हैं और सुरक्षा मिलती है, उसे संतुलित, समुन्नत बनाने के लिए कुछ जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर आती हैं, उन्हें पूरा न किया जाए तो ऋणभार लदता और कृतघ्नता का आत्मदंड सहना पड़ता है। कोई कर्त्तव्यों से विमुख न हो, इसीलिए ईश्वर न्याय, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि का यह अध्यात्म दर्शन विनिर्मित किया गया है ।यह अध्यात्म दर्शन धर्म-मर्यादा के अंतर्गत ही आता है।

धर्म के उपरांत अर्थ की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य पशु-पक्षियों से भिन्न है। उसकी आवश्यकताएँ उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं। पक्षियों के शरीर से चिपके हुए पंख उनकी कपड़े की आवश्यकता पूरी करते हैं। बिखरे हुए बीज और कीड़े-मकोड़े खाकर वे गुजारा कर लेते हैं। वन्य-पशुओं को भी ऐसी सुविधाएँ प्राप्त हैं। कि वे निजी पुरुषार्थ के सहारे अपनी जीवनयापन कर सकें। उनकी मोटी और बालों वाली त्वचा ऋतु-प्रवाह सहन कर लेती है। शाकाहारियों को वनस्पति और माँसाहारियों को जीव-जंतु सरलतापूर्वक मिल जाते हैं। किंतु मनुष्य की आवश्यकताएँ इतनी सीमित नहीं हैं। उसे वस्त्र, बिस्तर, जूते, पुस्तक, औषधि आदि की आवश्यकता पड़ती है। फिर उसके साथ एक परिवार भी जुड़ा होता है। समर्थ होते ही असमर्थों की आवश्यकताएँ पूरी करने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। इन सबके लिए साधन चाहिए। साधन अर्थात् धन। धन  श्रम तथा बुद्धिबल के सहारे उपार्जित होता है। कृषि, व्यवसाय, मजूरी, शिल्प, कला आदि के माध्यम से अर्थ उपार्जन संभव होता है। इसलिए इस क्षेत्र में भी उसे प्रवीणता प्राप्त करनी होती है। अर्थ अपने निज के परिवार के तथा अनुदान के रूप में पुण्य-परमार्थ हेतु उसकी आवश्यकता होती है। समयक्षेप एवं अवयवों को सक्रिय रखने के लिए परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही अर्थ-उपार्जन भी होता रहता है। इसकी अपेक्षा करने पर तो समय काटना कठिन हो जाएगा। मनुष्य रोगी बनेगा और क्षमताएँ गँवाता चला जाएगा। बुद्धिकौशल भी सतेज और क्षमताएँ गँवाता चला जाएगा। बुद्धिकौशल भी सतेज न रहेगा। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग में धर्म के उपरांत अर्थ की गणना की गई है। मनुष्य इसी आधार पर स्वावलंबी बनता है।

तीसरी आवश्यकता विनोद की है— कामक्रीड़ा की। इस हेतु मोटा आधार दांपत्य जीवन के रूप में सामने आता है, पर उस परिधि में वह सीमित नहीं। कामुकता के कल्पना-चित्र कामक्रीड़ा को रंगीला बनाते हैं। यौनाचार का एक कारण प्रकृति की वंशवृद्धि प्रक्रिया भी है। प्रकृति प्राणियों का वंश चलते देखना चाहती है, इसके लिए नर के साथ सहयोग करने के फलस्वरूप मादा को भी अपार कष्ट सहना पड़ता है। प्रसव में मादा की तो जान पर ही बन आती है। नर को भी बच्चा के स्वावलंबी बनने तक उनके लिए विविध विधि सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। इस कष्टसाध्य कार्य में बैलों की जोड़ी की तरह जुतने के लिए कोई समझदार स्वेच्छापूर्वक तैयार न होता, न अपनी जीवनीशक्ति का क्षरण करता, पर प्रकृति की विडंबना तो देखिए कि प्राणियों को कामुकता की नशेबाजी सिखा दी है। उससे उन्मत्त होकर वह ऐसा कुछ करता है, जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाते समय अपने ही जबड़े का रक्तपान करता और उस रसास्वादन से प्रसन्न होता है। संक्षेप में यही है कामुकता और उसकी परिणति।

किंतु यह उन्माद तो चढ़ती उम्र में थोड़े वर्षों के लिए ही चढ़ता है। बचपन, वृद्धावस्था, रुग्णता आदि की अवधि में कामक्रीड़ा के अवसर नहीं रहते है। किंतु तत्त्वदर्शियों ने तो उसे जीवन की आवश्यकताओं में गिना है। इसलिए उसे सदा अपनाए रहने की आवश्यकता पड़ती है। बच्चे खिलौने से खेलते हैं, झूला-झूलते हैं। उछलते, कूदते तथा साथियों की मंडली में धमा-चौकड़ी करते हैं। गायन, वादन, अभिनय, कथा, कीर्तन, प्रतियोगिता आदि के सहारे मनोविनोद संपन्न किया जाता है। यह हर स्थिति में संभव है। किंतु उसे संपन्न करने के लिए एकाकी रहकर उस आनंद को नहीं लिया जा सकता। दो, कई या बहुत मिलकर उत्सव-समारोह मनाते हैं। विनोद के साधन जुटाते हैं। हँसने-हँसाने, प्रसन्न होने, प्रसन्न करने की सभी विधाएँ 'काम' विनोद के अंतर्गत आती हैं। मनुष्य जीवन की यह भी एक महती आवश्यकता है। इसके बिना जीवन रूखा, नीरस, कर्कश, बोझिल हो जाता है। गुमसुम बैठा रहने वाला आदमी अपने को अभागा अनुभव करता है। समय बिताना उसके लिए भार बन जाता है। मन की कली खिलती है तो कल्पनाएँ उभरती हैं, इच्छाएँ जगती हैं, योजनाएँ बनती हैं और क्रियाएँ चल पड़ती हैं। इसी को कहते हैं— सरस जीवन। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए हर कोई बेचैन रहता है और समय, मनोयोग और धन लुटाता है। इसे हास्य के संपर्क में बिना फूहड़पन को जोड़े विरत रहा जा सकता है।

मोक्ष का अर्थ है— कुत्साओं और कुंठाओं से छूटना, कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाना। शारीरिक वासना, मानसिक तृष्णा और चित्त की अहंता से छुटकारा पाना। लोभ को हथकड़ी, मोह को बेड़ी और अहंता को जेल की तौक कहा गया है। यह जाल-जंजाल ऐसा है, जिसमें तात्कालिक लालच में मनुष्य फँसता जाता है, पर यह नहीं समझ पाता कि इस दलदल से निकला कैसे जाए?

इसके लिए संचित कुसंस्कारों से जूझना पड़ता है, अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों को हठपूर्वक निरस्त करना पड़ता है, साथ ही दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाकर आत्मसंयम का अभ्यास करना पड़ता है। भवबंधन मकड़ी के जाले की तरह हम स्वयं ही बुनते हैं। आत्मस्फुरणा उठती है, तो उन्हें सरलतापूर्वक तोड़ भी फेंकते हैं। अनौचित्य के प्रति उपेक्षा बरतना ही मोक्ष है। इसे अंतिम पुरुषार्थ माना गया है।


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