ऋषि अगस्त्य की पत्नी ने एक बार रत्नजड़ित आभूषण पहनने की इच्छा की और किसी शिष्य से माँग लाने के लिए उन्हें बाधित किया। ऋषि किसी प्रकार जाने को तैयार तो हो गए, पर एक शर्त रखी, जिसके पास ईमानदारी की कमाई का धन होगा, उसी के आभूषण ग्रहण करूँगा।
ऋषि के शिष्यों में कितने ही सुसंपन्न भी थे। वे पहुँचे तो इच्छापूर्ति के लिए वे सभी सहर्ष तैयार थे, पर पूछने पर उन सभी का उपार्जन न नीतिपूर्ण था, न उनका कमाया। अस्तु वे उन्हें लेने से इन्कार करते हुए आगे बढ़ते गए। अंत में उनका ऐसा शिष्य मिला जो प्रतापी भी था और राजा भी, पर उसके कोष में कुछ भी न था जो मिलता उसे तत्काल लोक-मंगल के कार्यों में खर्च कर देता। ऋषि को देने के लिए उसके पास आभूषण जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं। निदान ऋषि खाली हाथों घर वापस लौटे और पत्नी को अनीति उपार्जित आभूषण पहनने की हठ छोड़ने के लिए सहमत कर लिया।