विवेक का नाश-सर्वनाश

March 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

तब समूचा हिंदुस्तान रियासतों में बँटा हुआ था। इन्हीं में से एक रियासत विक्रमपुर के राजा थे चित्रसेन। विक्रमपुर रियासत छोटी होने के बावजूद राजा चित्रसेन का अहं बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वे स्वयं को राजाधिराज एवं सम्राट से कम नहीं समझते थे। उनकी सनक भी उनके अह के अनुरूप ही विद्रूप एवं भयावह थी। अपनी इस विचित्र सनक के कारण वह अच्छी-से-अच्छी चीज में कसर निकाल देते थे। प्रायः यही होता कि उनके पास पुरस्कार की आशा लगाकर आने वाले दण्ड पाकर लौटते। आखिरकार धीरे-धीरे यह हुआ कि कलाकारों ने उनके पास आने का साहस करना बंद कर दिया।

एक बार किसी अन्य रियासत से एक मूर्तिकार विक्रमपुर आया। वह राजा चित्रसेन से भेंट करने के लिए उत्सुक था। लोगों ने उसे समझाया कि वह राजा से नहीं मिले, किंतु वह नहीं माना। इस लगातार की रोक-टोक की वजह से उसकी उत्सुकता और बढ़ गयी थी।

वह राजदरबार में गया। प्रणाम करने के उपरांत उसने राजा को अपनी विद्या से परिचित कराया। राजा ने मूर्तिकार को सरसरी नजर से देखा, उसके हाथ में सारस की एक मूर्ति थी।

राजा कड़ककर बोला- “सारस इतना छोटा होता है? तुम्हें क्या दंड दूँ?”

“दंड देने का अधिकार आपका है महाराज।” मूर्तिकार हाथ जोड़कर बोला। फिर उसने कहा- “किंतु आपको बता दूँ कि मेरी कला कभी भी संदेह का विषय नहीं बनती। मैं हर बिन्दु पर ध्यान देता हूँ। ऐसा सारस यहाँ से कुछ हजार मील दूर एक स्थान पर पाया जाता है। आप यदि आज्ञा दे तो मैं आपकी नजरबंदी में जाकर उसे यहाँ लाकर दिखा सकता हूँ। क्या मजाल, जो जरा-सा भी अंतर पड़ जाए, मैं तो सिर्फ हाव-भाव पर ही नहीं, वजन पर भी ध्यान देता हूँ।”

राजा चिढ़ गया-उसकी जरूरत नहीं तुम मेरी मूर्ति बनाओ, मुझे देख लो। ध्यान रहे, जरा-सा भी नुक्स निकलने पर तुम्हारा सिर कलम कर दिया जाएगा।”

“मुझे मंजूर है।” मूर्तिकार ने कहा। आवश्यक सामान की व्यवस्था राजा ने करा दी। चार दिन बाद मूर्तिकार दरबार में आया। मूर्ति उसके साथ थी, उसने उसे कपड़े से ढँक रखा था।

“कपड़ा हटाओ।” राजा के कहने पर मूर्तिकार ने कपड़ा हटा दिया। मूर्ति सिर से कमर तक ही थी। राजा चीखा - “ये पूरी मूर्ति है?” “महाराज, आपने मूर्ति बनाने को कहा था, पूरी या आधी का आदेश आपने नहीं दिया था।” राजा के चेहरे पर क्रोध तैर रहा था। मूर्तिकार ने आगे कहा-” यह हूबहू आपकी मूर्ति है। इसका वजन चालीस सेर है। पैरों को छोड़कर आपका भी वजन इतना ही है। यह मैं दावे के साथ कह रहा हूँ।”

“यदि परीक्षण से तुम्हारा दावा...? क्रोध से खौलता-उबलता राजा चित्रसेन अभी और कुछ कह पाता कि बीच में मूर्तिकार बोल उठा-तो आप मेरा सिर कलम करा सकते हैं।”

“परीक्षण किया जाय।” राजा भावावेश में चीख उठा। “ल.............लेकिन..............।” मंत्री के कहने पर राजा और क्रोधित हो उठा-मेरे आदेश का

पालन किया जाय।”

“पर महाराज, परीक्षण के लिए आपका शरीर काटना पड़ेगा, सिर से कमर तक।” मंत्री ने स्पष्ट किया। राजा हठात् किंकर्तव्यविमूढ़ उसके पसीने छूट गए। दो क्षण बोल न फूटे।

प्रज्ञावान मूर्तिकार के आगे उसकी आँखें झुक गयीं। भारी मन से उसने कहा-मूर्तिकार मुझे क्षमा करना। तुमने मेरी आँखें खोल दीं।”

कुछ रुककर राजा ने कहा-मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। तुम जो चाहो, मैं पुरस्कार स्वरूप दूँगा। माँगों।”

“देना ही है तो आप वचन दें कि आप अपनी अहंवृत्ति का त्याग कर देंगे। अहं से मनुष्य का

विवेक नष्ट हो जाता है। आप अहं त्याग सके तो स्वतः ही विद्या-कला की देवी सरस्वती सम्मानित होती रहेगी। भगवती सरस्वती के सम्मान से उनके वरदपुत्रों की अपने आप ही ख्याति बढ़ती रहेगी।” इतना कहकर प्रज्ञावान मूर्तिकार चला गया।

राजा चित्रसेन बहुत देर तक सिर झुकाए बैठे रहे, फिर धीमे से बोले-मैं अपने अहं का त्याग करूँगा उनकी वाणी में उनकी आत्मा का संकल्प ध्वनित हो रहा था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118