संकीर्ण स्वार्थपरता से उबरें, देवमानव बनें

March 1999

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‘हम दूसरों से अलग हैं- हमारा व्यक्तित्व मात्र अपने तक सीमित अथवा स्वतंत्र हैं’- यह मानना अपने आपको असहाय एवं दीन-दुर्बल स्थिति में ले जाकर पटक देना है। अकेला व्यक्ति सर्वथा नगण्य एवं तुच्छ बनकर ही रहेगा, भले ही वह कितना ही समर्थ एवं साधनसंपन्न क्यों न हो। अँधेरे में जाने में अथवा एकाकी यात्रा में डर लगता है, आशंका बनी रहती है और उदासी छाई रहती है। इसका कारण इक्कड़पन की अवांछनीयता ही समझी जानी चाहिए।

मेले-ठेले में जाने से अनेक प्रकार की असुविधाएँ उठानी पड़ती हैं, पर वहाँ जाने को मन इसलिए करता है कि एकत्रित हुए जन-समूह की एक इकाई अपने को मान लेने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया सहज ही अपने को प्रमुदित बनाती है। सेना का अंग बनकर चलने वाला सैनिक साहस और उत्साह से भरा रहता है, जबकि एकाकी चलने पर उसे अनुत्साह और अवसाद घेरता है।

हम अकेले हैं, संबंधित लोग अपनी सुविधा बढ़ाने मात्र के लिए हैं- ऐसा सोचते ही मनुष्य असुर बन जाता है। वह पत्नी का तरह-तरह से शोषण करता रहता है और उसे कठपुतली, पैर की जूती, क्रीतदासी बनाकर रखने से कम में संतुष्ट नहीं होता। मतभेद या असहमति व्यक्त करते ही आग-बबूला हो जाता है और क्षणभर पहले जो प्रेम प्रदर्शित करने की विडंबना चल रही थी, वह न जाने कहाँ चली जाती है, उसके स्थान पर जल्लाद जैसी दुष्टता तांडव नृत्य करती दिखाई पड़ती है। यह सब एकाकी मनोभूमि के दुष्परिणाम हैं।

परिवार के लोगों को असह्य, अभावग्रस्त और दुखी परिस्थिति में भटकता छोड़कर कितने ही लोग नशेबाजी, यारबाजी, शौकीनी मटरगश्ती में पैसा उड़ाते रहते हैं। उन्हें अपनी थोड़ी-सी इच्छापूर्ति सर्वोपरि मालूम पड़ती है। इसके कारण परिवार के अन्य सदस्यों को कितना त्रास सहन करना पड़ेगा, यह बात उनकी समझ में ही नहीं आती। एकाकी मनोभूमि के लोगों के लिए अपना आपा ही सब कुछ होता है। दूसरों से क्या और कैसे लाभ उठाया जा सकता है, वे इतना ही सोच पाते हैं। माता-पिता के पास जो कुछ है, वह किस तरह झटक लिया जा सकता है, इसमें उनकी बुद्धि तीव्र होती है, पर क्या उनकी सहायता करना भी कर्तव्य है, यह बात सूझती नहीं। छोटे लड़के माता का जेवर चुराकर मुम्बई सैर करने निकल जाते हैं। घर में कैसा कुहराम मच रहा होगा, इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं होती। अपनी मौज उन्हें बहुत कुछ प्रतीत होती है। विछोह में बिलखते अभिभावक उनके लिए महत्वहीन मिट्टी के पुतले भर बन जाते हैं। एकाकीपन मनुष्य को कितना निष्ठुर बना देता है, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।

तनिक-से लाभ या मनोरंजन के लिए, तनिक-से अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बहुत लोग प्राणघातक आक्रमण कर देते हैं। ऐसा मात्र आवेश में ही नहीं होता वरन् आक्रमणकारियों की उस विकृत मनोवृत्ति का भी गहरा कारण होता है, जिसमें वे दूसरों को चलते-फिरते गाजर-बैंगन जैसे अनुभव करते हैं। उनको कितना कष्ट होगा या उनके परिवार को कितनी व्यथा सहनी पड़ेगी, यह सोचना उनके लिए संभव नहीं रहता। एकाकी मनुष्य स्वार्थपरता की भूमिका में जितना उतरता जाता है, उतना ही निष्ठुर बनता जाता है। चोर, डाकू, हत्यारे, ठग, प्रपंची, दुराचारी प्रकृति के अपराध परायण लोग इन कुकर्मों में गर्व और विनोद इसलिए अनुभव करते हैं कि उन्हें एकाकीपन की स्वार्थपरायण निष्ठुरता मिल गई।

अपराधों की संख्या अनेक हैं। उनके स्वरूप भी विभिन्न हैं। कुकर्मों के प्रयोग-विनियोग कई-कई तरीकों से होते हैं, पर वस्तुतः वे सब एक ही स्वार्थी वृक्ष के पत्र-पुष्प होते हैं। स्वार्थी मनुष्य यदि साहसहीन, डरपोक हुआ तो धोखेबाजी का सहारा लेगा और यदि उग्र-उद्दण्ड हुआ तो उत्पीड़क, शोषक, आतंकवादी आचरण करेगा। आग जहाँ रहती है वहीं जलाती हैं, स्वार्थी जिसके भी संपर्क में आता है, उसी का सर्वनाश करता है। इसके अपवाद उसके स्त्री-बच्चे भी नहीं। कितनी ही स्त्रियाँ स्वार्थी पतियों द्वारा पग-पग पर दी जाने वाली प्रताड़नाओं से इतनी संत्रस्त रहती हैं, मानो उन्हें हर घड़ी जल्लाद की छुरी के नीचे रहना पड़ता हो। नरक नाम का कोई स्थान कहीं नहीं है, उसकी घिनौनी भयंकरता तो स्वार्थपरायण वातावरण में कहीं भी देखी जा सकती है। ऐसे नारकीय दृश्य हम अपने आस-पास ही कहीं भी देख सकते हैं।

डरावने प्रेत-पिशाचों की कल्पना के साथ यह मान्यता भी जुड़ी रहती है कि वे मरघट जैसे किसी वीभत्स स्थान में एकाकी निवास करते हैं। ऐसे भूत-पलीत होते हैं या नहीं, यह संदिग्ध है। पर यह असंदिग्ध है कि स्वार्थी मनुष्य की मनःस्थिति सर्वथा इसी प्रकार की होती है। वे एकाकी रहते हैं। अपनी वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को उद्यत रहते हैं। दूसरों की लाशें पास में जलती रहें, इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ता वरन् विनाश के विनोद को देखने की उनकी दुष्टता को पोषण मिलता है। सृजन तो वे कर नहीं सकते, ध्वंस देखकर वे प्रसन्न होते हैं। सुना है भूतों का काम दूसरों को डराना, बीमार करना या अन्य प्रकार की हानियाँ पहुँचाना होता है, मुफ्त के उपहार पाने के लिए वे तरह-तरह के दबाव डालते हैं। यह पिशाचवृत्ति अनेकों में देखी जा सकती है और उन्हें जीवित रहते हुए भी मरा हुआ कहा जा सकता है। उन्हें प्रेत-पिशाच की संज्ञा देना अनुपयुक्त नहीं है।

प्रसन्नता एकाकी मन में संभव ही नहीं हो सकती। उपनिषद् के ऋषि का प्रतिपादन है कि “सृष्टि के आदि में ईश्वर अकेला था। इस एकाकीपन में उसे ऊब आई और खीज़ उठीं इस स्थिति में देर तक रह सकना उसके लिए अशक्य हो गया। अस्तु, एक से बहुत बनने की ठान ठानी। अपने को खण्ड-विखण्ड कर डाला। जड़ परमाणु और चेतन जीवाणु उसने बनाये। पदार्थ और प्राणी सृजन। इसके बाद उनमें रमण करता हुआ प्रसन्न-प्रमुदित रहने लगा।” यह तथ्य आलंकारिक भी हो सकता है, पर मानव जीवन में यह सच्चाई असंदिग्ध है। व्यक्ति एकाकी मनःस्थिति में खीजता और ऊबता रहेगा। उसे अपने आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाए बिना चैन न पड़ेगा। अपनापन जितने विस्तृत क्षेत्र में बिखरा हो उतना ही अधिक आनंद, उल्लास का कार्यक्षेत्र उसे उपलब्ध होगा। रमण करना, प्रसन्न-प्रमुदित रहना तो विस्तृत जन-समूह के साथ अपने को जोड़ने से ही संभव हो सकता है।

पुण्य-परमार्थ के जितने भी श्रेष्ठ सत्कर्म जहाँ-तहाँ उभरते दृष्टिगोचर होते हैं, वहाँ मनुष्य की उदारता एवं सहृदयता काम कर रही होगी। यह उदारता क्या है? वस्तुतः यह और कुछ नहीं, केतन आत्मविस्तार की भावना ही है। हम जब अपने आपको सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ देखते हैं, तो सभी वस्तुएँ अपनी प्रतीत होती हैं और जिस तरह अपने निज के प्रयोग में आने वाली, अपने स्वामित्व की परिधि में समाने वाली वस्तुओं को सँभाल कर रखते हैं, उसी प्रकार उस सुदूर क्षेत्र में फैली हुई- पराई कही जाने वाली वस्तुएँ भी अपनी ही लगती हैं। तब उन्हें सँभाल कर रखने और सदुपयोग करने में भी वैसी ही प्रवृत्ति होती है जैसी कि निजी वस्तुओं में। अमुक वस्तु हमारी नहीं है, इसलिए उसे सँजोये जाने या बर्बाद होने में अपने को क्या लेना-देना यह विचार तभी मन में आयेगा, जब अपनत्व का दायरा सीमित होगा। जिसने इस दायरे को जितना बढ़ा रखा होगा, वह बिना अपने-पराये का भेदभाव किये सभी वस्तुओं को अपने ईश्वर की, ममता की परिधि की मानेगा और उनकी सुरक्षा, सुव्यवस्था एवं सुसज्जा का पूरा-पूरा ध्यान रखेगा।

संकुचित स्थिति में केवल अपना शरीर ही अपना होता है। उसकी सुविधा के लिए संबद्ध परिवार वालों की उपेक्षा भी की जाती है और उनके साथ अनीति बरतना भी खूब होता है। पर जब आत्मीयता बढ़ती है तो स्वयं कष्ट उठाकर-अभावग्रस्त रहकर कुटुंब के सदस्यों को सुखी बनाने के साधन जुटाये जाते हैं। अविकसित मनोभूमि पत्नी तक, बहुत हुआ तो बच्चों तक सीमित होकर रह जाती है, किंतु जिनने अपनत्व को बढ़ाया है, वे माता-पिता भाई-बहिन से लेकर मित्र-पड़ोसी तक की सुख-शान्ति में पूरी दिलचस्पी लेते हैं और अपने से जो बन पड़ता है, उसमें कुछ उठा नहीं रखते। आत्मविकास की मात्रा यदि अधिक हुई तो उसी अनुपात से ग्राम, नगर, प्राँत, देश और अन्ततः समस्त बिखरे हुए मानव-प्राणियों में यह ममत्व फैलता है। तब सब में एक ही आत्मा-एक ही विश्वात्मा ओत-प्रोत दीखती है। सभी अपने प्रतीत होते हैं। पराया कोई दीखता ही नहीं। जहाँ अपनापन होगा वहाँ प्रेम की उमंगें उठेंगी, सहानुभूति जगेगी। फलतः उदारता, सेवा-सहायता का भावभरा सहृदय व्यवहार ही सबके साथ बन पड़ेगा। यह आत्म-विस्तार ही समस्त अध्यात्म-विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य है।

आत्मीयता का विस्तार मनुष्यों तक सीमित न रहकर क्रमशः प्राणिमात्र में विस्तृत होता चला जाता है। तब अन्य प्राणी भी अपने ही कुटुम्बी लगते हैं। उनकी सुविधाओं का भी ध्यान रखा जाता है। उनके कष्टों में भी अपने जैसे कष्ट की अनुभूति होती है। मानवी अन्तःकरण का जहाँ संतोषजनक स्तर तक विकास होगा, वहाँ स्नेह-सौजन्य का समुद्र उमड़ रहा होगा। अकारण कष्ट किसी भी प्राणी को दे सकना संभव न रहेगा। ऐसे मनुष्य प्राणियों का वध करके उनका माँस खाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह नृशंस कृत्य उन्हें उतना ही कष्टकारक होता है, जितना किसी सामान्य व्यक्ति को अपने बच्चे या भाई को मारकर खाना। जीभ के स्वाद अथवा शरीर पुष्टि की लालसा जैसे अत्यन्त तुच्छ स्वार्थ के लिए अन्य प्राणियों को मर्मान्तक पीड़ा देना केवल पाषाण हृदय असुरों से ही बन पड़ सकता है, जिसमें आत्मा की सत्ता मौजूद है और वह सुविकसित कहे जा सकने वाले स्तर तक जा पहुँचा है, उसके लिए माँसाहार का ग्रास हाथ से उठा सकना भी संभव न होगा। इस कृत्य को करते हुए उसका हृदय धड़केगा और हाथ कांपेंगे।

यह समस्त सृष्टि हमारे ही लिए नहीं बनाई गई है। समस्त विश्व-वसुधा हमारी बपौती नहीं है। अन्य प्राणी भी ईश्वर के बनाये हैं और उस धरती पर रहने तथा प्रकृति-संपदा का उपभोग करने का अधिकार उन्हें भी है। सबके अधिकार छीनकर, सबके अस्तित्व को खतरे में डालकर हम अपनी ही स्वार्थलिप्सा पूरी करने की बात सोचें, तो यह संकीर्ण स्वार्थपरता अनीतिमूलक ही होगी। उससे मानवता का गौरव गिरेगा ही, औचित्य इसी में है कि हम अपने को एकाकी अनुभव न करें। अपनत्व का दायरा विस्तृत करते चले जाएँ, तभी व्यक्ति की महानता और समाज की सुख-शाँति स्थिर बनायी रखी जा सकेगी।


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