अपनों से अपनी बात- - नरपामर की श्रेणी से ऊँचा उठने का यही सौभाग्य भरा सुअवसर

March 1999

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भगवान को समदर्शी-न्यायकारी-करुणासागर आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। कोई यह आरोप उस परमपिता परमात्मा पर नहीं लगा सकता कि उसके साथ पक्षपात या अन्याय हुआ है, उसे वे साधन नहीं मिले जो औरों को मिले हैं। सामान्य स्तर के जीवधारियों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते रहने योग्य क्षमता सभी को उस सत्ता ने अनायास ही समान रूप में ईश्वरीय सत्ता के दो भागों ने सुविधा की दृष्टि से जो कार्यक्षेत्र बाँटे हैं-उसमें प्रकृति के जिम्मे पदार्थ क्षेत्र की सुव्यवस्था बनाने और पुरुष के जिम्मे भावना क्षेत्र को सम्पन्न बनाए

चेतनात्मक जगत के अणु विस्फोट की वेला है यह

रख मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा वाले कार्य आते हैं। पूरा ब्रह्माण्ड माया-ब्रह्म की साझेदारी ये चल रहा है, फिर भी काम दोनों घटक बाँट-बाँटकर चलाते हैं। प्रकृति के-माया के शिकंजे में फँसा मानव पेट और प्रजनन के माध्यम से सृष्टि के क्रम को भी आगे बढ़ाता चलता है, अपनी जीवन यात्रा भी पूरी करता चलता है। पुरुष की-ब्रह्म की भूमिका, चेतना क्षेत्र को सुसंस्कृत बनाने में नियोजित होती है। ‘प्रकृति’ की तरह ‘पुरुष’ ने भी अपना क्रीड़ा क्षेत्र कम आकर्षक-कम महत्वपूर्ण नहीं बनाया है। वस्तुतः चेतना में सुसंस्कारिता के समावेश की नाप तौल करके ही यह जाना जा सकता है कि मानव की अन्तःचेतना पर परब्रह्म का कितना अनुदान बरसा, कितनी प्रकाश किरणें उतरीं। उपर्युक्त भूमिका प्रस्तुत वसन्त पर्व से आरंभ हुए ‘प्रखर साधना वर्ष’ के क्रम में परिजनों द्वारा अपनायी जा रही जीवन-साधना को दृष्टिगत रख लिखी गयी है। प्रायः छह अरब लोगों की इस दुनिया का भाग्य इन आगामी कुछ वर्षों में नए सिरे से लिखें जाने की शुभ घड़ी आ गयी है। ऊपर जो विभाजन दिया गया, उसमें मात्र पेट-प्रजनन की सीमा में सीमाबद्ध-पशु प्रवृत्तियों में निरत-नितान्त स्वार्थांधता व्यक्ति वे हैं जिन्हें नर पामर की नरपशु नरकीटक की संज्ञा दी गयी है। हमें नर पामर एवं नर मानव में अंतर समझना होगा एवं अधिक से अधिक व्यक्तियों करे नर मानव की परिधि में लाकर उन्हें देवत्व की दिशा में ऊँचा उठाने हेतु सामूहिक पुरुषार्थ करना होगा। यही युग-साधना है। मानव कौन है? मानव का अर्थ है- वे व्यक्ति, जिन्हें पारिवारिकता और सामाजिकता के साथ जुड़े हुए अनुबन्धों के प्रति विश्वास है-परिपालन का साहस है। जो परब्रह्म की छत्रछाया में जीकर मानवी आदर्शों को आत्मसात् करने का अवसर प्राप्त कर रहे हैं। एवं अपनी ही नहीं सारे समूह, समाज, विश्ववसुधा एवं युग के नवनिर्माण की उमंगों से जिनका अन्तःकरण हुलसता रहता है। प्रखर साधना वर्ष की साधना साधकों की संख्या में अभिवृद्धि करने हेतु सभी को समष्टि के उत्कर्ष हेतु किये जा रहे पुरुषार्थ में नियोजित करने का महान उद्देश्य लेकर महाकाल के श्रीचरणों में समर्पित है।

आकृति की दृष्टि से तो नर-पामर, नर−वानर, नरपशु, नरपिशाच, नर मानव और नरनारायण सभी के अंग-अवयव एक जैसे होते हैं, किंतु अंतर एक ही समझ में आता है-जब उनकी प्रकृति की जाँच-पड़ताल की जाती है। नर मानव एवं नर-नारायण को मानवी गौरव-गरिमा का ज्ञान होता है- राजहंस की तरह नीर-क्षीर का विवेक उनमें जीवंत पाया जाता है। मर्यादाओं का निर्वाह ही नीर-क्षीर विवेक है। कर्त्तृत्व पालन ही मोती चुगाना है। मानव-देवमानव ऐसा कदम नहीं उठाते, जिससे उन्हें लज्जित होना पड़े-उनकी आत्मा धिक्कारे। वस्तुतः चरित्रनिष्ठा ही मनुष्यता है, जिसे दो पलड़ों में रखकर मापा जाता है, एक अवांछनीय आकांक्षाओं, लिप्साओं पर नियंत्रण एवं दूसरा आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु साहस भरा पराक्रम। इन दोनों को जो जीवनभर साध ले, उसका जीवन ईश्वर की नजरों में संतुष्टि देने वाला एवं दुनिया की दृष्टि में भी सफलतम माना जाता है। ऐसे व्यक्ति जब समाज में बढ़ने लगें तो मानना चाहिए कि परिवर्तन की घड़ी आ गयी। युग बदलने का वासन्ती संदेश आ गया।

चेतनात्मक प्रगति की अंतिम सीढ़ी-देवत्व पर पहुँचने का राजमार्ग एक ही है-स्वयं को पशु-प्रवृत्तियों से उबारकर मानव एवं फिर उत्कर्ष की दिशा में गतिशील हो साधनात्मक पराक्रम द्वारा अपने को अन्तःकरण की प्रगति की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कर देना। ऐसा मानवी पुरुषार्थ दैवी सुयोग्यों के कारण बड़ी शीघ्रता से संपन्न होने-बड़ी उमंगों के साथ कठिनाइयाँ सहते हुए भी प्रसन्न रहकर करने का कभी-कभी अवसर आता है। ऐसे अवसरों को ही अवतारी चेतना के प्रवाह के प्रकटीकरण का समय कहा गया है। जब यह पुरुषार्थ समष्टिगत पुरुषार्थ में बदल जाय तो मानना चाहिए कि यह दैवी आकांक्षा का ही प्रतिफल है कि कइयों के मनों में तप व योग को साधते हुए आँतरिक उत्कृष्टता की अभिवृद्धि करने का बढ़चढ़कर कुछ करने का ज्वार-सा आ रहा है। निष्कलंक प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण की वेला में करोड़ों व्यक्तियों द्वारा अपनी साधना का समष्टि हेतु नियोजन, असंख्यों देवमानवों के सृजन, उनके अंदर वैसी प्रवृत्तियों के उभरने जैसी परिणति के रूप में निकलता यदि आज दृष्टिगोचर हो रहा है, तो यह अकारण नहीं है। वस्तुतः यह समय ही विशिष्ट है।

22 जनवरी, 1999 का वसंत इस मायने में ऐतिहासिक रहा है कि इस युग ही नहीं, कई युगों में एक अपने आप में अभूतपूर्व एक साधनात्मक पुरुषार्थ का प्रखर वेग से सूत्रपात इस दिन हुआ है। जिस पावन दिन को प्रज्ञा परिजन-अखण्ड ज्योति के पाठक वृन्द अपने सूत्र−संचालक के अध्यात्मिक जन्मदिन के रूप में मनाते रहे हैं-उस दिन से एक साथ प्रायः चौबीस हजार से अधिक स्थानों पर युगसाधना का शुभारम्भ परोक्ष जगत की ऐसी घटना है, जिसके दूरगामी परिणाम प्रत्यक्ष जगत में परिजन आगामी कुछ दिनों-माहों में देखेंगे। यह वसंत मानवों के देवमानवों के रूप में ‘विकसित’ होने, अपनी गरिमा को पहचान अपनी साधना को जीवनसाधना के स्तर पर ले जाकर युग-साधना में परिणत करने का एक भागीरथी पुरुषार्थ लेकर आया है। जितने भी अवतार आए हैं- उनके आने के पूर्व से बाद तक के सारे घटनाक्रम क्रमशः प्रत्यक्ष जगत में सभी को स्पष्ट दृष्टिगोचर होते रहे हैं। एकाएक कोई चमत्कारी घटना घटी एवं तुरंत असुरता का निवारण हो-युगपरिवर्तन हो गया-ऐसा नहीं हुआ है। इसी तरह परमपूज्य गुरुदेव के आँवलखेड़ा स्थित साधना कक्ष में जल रहे अखण्ड दीपक से 1926 की वसंत पंचमी के पावन दिन उनकी सूक्ष्म शरीरधारी गुरुसत्ता का प्रकट होना-उन्हें दैवी संदेश मिलना-अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के द्वारा उत्कृष्टता के विस्तार हेतु एक नयी क्राँतिकारी शुरुआत होना-गायत्री तपोभूमि की स्थापना के माध्यम से चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों की श्रृंखला की पूर्णाहुति होना तथा 1958 में आयोजित सहस्रकुण्डीय गायत्री महायज्ञ के माध्यम से बंधन मुक्त गायत्री व यज्ञ विधा का चतुर्दिक् विस्तार हो एक विराट गायत्री परिवार बनना-प्रज्ञावतार के क्रिया-कलापों का प्रायः चालीस वर्षों में फैलना एक लेखा-जोखा कहा जा सकता है। आज जिस स्थिति में विश्वव्यापी गायत्री परिवार है-उसके मूल में मनुष्य का कायाकल्प कर-उसके चिंतन में क्राँतिकारी परिवर्तन कर उसे उत्कृष्टता की दिशाधारा में सोचने हेतु विवश करने वाली वह संजीवनी साधना ही रही है, जिसे आप चाहें तो गायत्री महाशक्ति कह सकते हैं अथवा विचारक्रांति अभियान अथवा यज्ञों के माध्यम से मानवमात्र का नवनिर्माण करने वाली युगांतरीय चेतना।

अणु विस्फोट स्थूल जगत में होता है, तो उसके परिणाम तत्काल काफी अधिक दिनों तक दिखाई देते हैं। चेतना जगत में होने वाला अणु विस्फोट कितने विराट स्तर के-सारी विश्वमानवता को प्रभावित करने वाले परिणाम लेकर आता है- यह इस युग के मानव को अभी देखना है। गायत्री महाविद्या का सार्वभौम रूप लेकर उज्ज्वल भविष्य के अवतरण की, सद्बुद्धि की प्रार्थना के माध्यम से वैश्वीकरण-समस्त संप्रदायों के बंधन तोड़कर समग्र मानव समुदाय के चिंतन में उसका प्रवेश चेतना जगत का, इस युग का अणु विस्फोट है। आत्मशक्ति के संवर्द्धन से युगशक्ति के उद्भव की यह विस्फोटक प्रक्रिया क्या रंग लाएगी, इसे हम आने वाले कुछ समय में देखेंगे। हम जहाँ भी हैं, जिस भी स्तर के साधक है, यदि इस विशिष्ट वेला में कुछ विशिष्ट कर दिखाने हेतु तत्पर हो जाएँ तो अपने सौभाग्य को कुछ वर्षों बाद हम ही सराहेंगे। अपनी समझदारी को जो समय पर अपना ली गयी, बार-बार धन्यवाद देंगे।

बार-बार समय की विशिष्टता, दैवी आकांक्षा, युग-परिवर्तन की वेला एवं साधना पराक्रम की बात इन पंक्तियों में कही जाती रही है। इस वर्ष सारे भारत व विश्व में ढाई दिवसीय अखण्ड जप प्रधान आयोजनों की श्रृंखला चल रही है, जो न्यूनाधिक रूप में 2001 के आने तक भी चलती ही रहेगी। ऐसे आयोजन भावपूर्ण वातावरण में जितनी अधिक संख्या में होंगे-उतना ही अनिष्ट के कम होने -समष्टि का कल्याण होने की संभावनाएँ बढ़ती चली जाएँगी। नए साधक जो जुड़ रहे हैं-वे तो विगत अंक में बताए एवं मार्गदर्शक तीन पुस्तिकाओं के अनुसार अपना क्रम बनाते चलेंगे। इससे अधिक उन्हें कुछ करना है, तो वह उसी के परिमाण को बढ़ाने के रूप में, पुण्य-परमार्थ की प्रवृत्ति के समावेश के रूप में हैं। अधिक-से-अधिक समय देवसंस्कृति के विस्तार के निमित्त इन दो वर्षों में नियोजित होना चाहिए, अधिक-से-अधिक साधनों का अंश उसी के निमित्त किये जा रहे कार्यों में अब लगना चाहिए। वैयक्तिक सुविधाएँ बढ़ाने के स्थान पर अब राष्ट्र की, संस्कृति की सेवा हेतु नियोजित अंशदान जितना अधिक होगा-उतना ही दैवी-अनुदानों के बरसने का अनुपात बढ़ता चला जाएगा।

जो पहले से साधना करते रहे हैं, स्वयं दिन-रात युग निर्माण पुरुषार्थ में जुटे रहते हैं, उन्हें अपनी साधना-उपासना को जीवन -साधना के रूप में फलित कर निज के व्यक्तित्व परिष्कार के रूप में उसे संपन्न कर दिखाना है।

वस्त्रों से बसंती पीले कपड़े वाले परिजन तो ढेरों हैं, पर जिनके व्यक्तित्व से वसंत झलके, ऐसों की युग नेतृत्व करने वालों की संख्या अब बढ़नी ही चाहिए। इन्हीं को वरिष्ठ, विशिष्ट एवं विशेषज्ञ स्तर का कहा गया है। वाणी से व्यक्तित्व तक मात्र वसंत हो अभिव्यक्त हो-वाणी पर सरस्वती, आचरण में देवत्व एवं आकांक्षाओं के माध्यम से बसंती उल्लास झलकता दिखाई दे तो जीवनसाधना फलित हो साधना सत्र के आयोजक को भाग लेने वाले साधकों से ऊँचे दर्जे का विशिष्ट नजर आना ही नहीं, होना भी चाहिए। ऐसे साधक जो स्वयं को वरिष्ठ कहते हैं-मिशन से जिनकी साझेदारी लम्बी-नहीं तो गहरे स्तर की हो चुकी है, अपनी वैयक्तिक साधना का स्तर भी ऊँचा उठाएँ। मालाओं की संख्या बढ़ाने के रूप में नहीं-अपने व्यक्तित्व के परिष्कार के रूप में प्रतिभा के उन्नयन के रूप में। जितना भी जप संपन्न हो भावपूर्वक हो-गुरुसत्ता की चेतना से एकाकार होकर संपादित किया गया हो-साथ ही उनका वैचारिक सामीप्य भी पाने हेतु स्वाध्याय का सुनियोजित नियमित क्रम चल रहा हो। साधना की धुरी पर संगठन बनने का भारी दायित्व इससे कम में नहीं उठाया जा सकता। जो भी सप्त-महाक्रान्तियाँ संपन्न होती हैं- वैचारिक धरातल पर नहीं मात्र प्रचारात्मक हलचलें मचाकर नहीं, साधनात्मक धरातल पर ही संपन्न हों सकती हैं। श्रेष्ठ साधक युग मनीषी ही युगपरिवर्तन को साकार कर दिखाएँगे-यह एक सुनिश्चित तथ्य है।

अब सभी वरिष्ठ स्तर के साधक जो पहले से गायत्री साधना करते रहे है, अधिक-से-अधिक समय देव-संस्कृति के विस्तार हेतु जन-जन तक उसके निर्धारण करें। यदि वे आगामी दो वर्षों में प्रतिवर्ष 3 से 6 माह का समय भी केन्द्र द्वारा निर्देशित कार्यों के क्षेत्रीय स्तर पर संपादन में देते हैं, तो इसमें इन्हें जो पुण्य अर्जित होगा उसका मूल्याँकन अभी तो नहीं कुछ वर्षों बाद वे स्वयं करेंगे तो पुलकित हुए बिना न रहेंगे। यदि कुछ विशिष्ट साधना इन दो वर्षों में करने का किन्हीं का मन है, तो उसके लिए सीमित समय नियोजित कर अपने व्यक्तित्व का स्वयं मूल्याँकन कर, जो कमियाँ है, उन्हें दूर करने, जिन विशेषताओं को बढ़ना है, उनका संवर्द्धन करने के लिए चौबीस गायत्री महाशक्तियों में से किसी की भी साधना का क्रम अपना सकते है। आधे घंटे से एक घंटे में संपन्न हो जाने वाली से साधनाएँ इन दो वर्षों में अनेकानेक शुभ परिणाम दे व्यक्तित्व का सर्वांगीण परिष्कार कर दिखाएगी, यह सुनिश्चित है। इनके बारे में विस्तार से गायत्री महाविज्ञान के दूसरे खण्ड में पढ़ा व जाना जा सकता है।

यदि परिजन कुछ विशिष्ट मार्गदर्शन अपने व औरों के लिए अपनी उपासना, जीवनसाधना, सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन की पुण्य-परमार्थ वाली युग-साधना हेतु पाना चाहते हैं, तो रामनवमी 25 मार्च के बाद आरंभ हो रहे विशिष्ट पाँच दिवसीय व्यक्तित्व परिष्कार-युग साधना सत्रों में भागीदारी कर सकते हैं। ये पाँच दिवसीय सत्र चार माह तक गुरुपूर्णिमा के बाद तक चलेंगे। पहले कितने भी साधनासन्न किये हो, यदि कुछ विशेष अनुदान पाना है- ऋषियुग्म की सत्ता का विशिष्ट सूक्ष्म मार्गदर्शन पाना है, तो यह अवसर महापूर्णाहुति की पूर्व बेला में अपने आप में एक विलक्षण अनुग्रह के रूप में आया है। मार्च के अंतिम सप्ताह में 26 मार्च, 1999 से आरंभ प्रतिमास पाँच-इस प्रकार कुल पच्चीस ये सत्र 30 जुलाई तक चलेंगे। इस वर्ष 28 जुलाई की गुरुपूर्णिमा है। इसके बाद ही इस युग की महापूर्णाहुति की विशिष्ट तैयारियाँ आरंभ हो जाएँगी, जिनका विस्तार अगले अंक में परिजन पढ़ सकेंगे। आत्मशक्ति के संवर्धन एवं अपने आँतरिक जीवनक्रम को देवमानव के स्तर तक पहुँचाने हेतु अभूतपूर्व अवसर लेकर आया है यह प्रखर साधना वर्ष। जितना अधिक इस वेला के एक-एक क्षण का जो सुनियोजन-सदुपयोग कर पाएगा, वह उतना ही श्रेय का अधिकारी बन सकेगा। लाखों वर्षों में ऐसे अवसर विरले ही कभी आते हैं। बड़भागी होंगे वे, जो इस अवधि को आपाधापी, धींगामुश्ती, पारस्परिक-द्वन्द्व मतभेद, मतभेदों वाली नर पामर वाली स्थिति में न गंवाकर ऊँचा उठते हुए देवमानव वाली जीवन शैली को अंगीकार कर युगसाधक बन सकेंगे। जमाना उन्हें शीश नवायेगा-देवता पुष्प बरसायेंगे।


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