भगवान महावीर रास्ते से गुजर रहे थे। रास्ते में मिले एक ग्रामीण ने उनके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया। उत्तर में अर्हता ने भी उसके चरणों पर मस्तक टेका।
ग्रामीण सकपकाया बोला-आप तपस्या के भण्डार हैं, उस विभूति को मैंने नमन किया। पर मैं तो कुछ नहीं हूँ, मेरा नमन किसलिए।
अर्हता ने कहा-तेरे भीतर जो परमपवित्र आत्मा है, मैं उसी को देखता हूँ और नमता हूँ। मेरे ‘तप’ से तुम्हारा ‘सत्य’ बड़ा है।
पत्थर की एक बड़ी चट्टान को देखकर शिष्य ने बुद्ध से पूछा-भगवान् क्या इस चट्टान पर किसी का शासन संभव है?
पत्थर से कई गुनी शक्ति लोहे में होती है। इसीलिए लोहा पत्थर को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देता है। भगवान बुद्ध ने शिष्य की जिज्ञासा को शान्त करते हुए उत्तर दिया। तो फिर लोहे से भी कोई वस्तु श्रेष्ठ होगी-शिष्य ने प्रश्न किया। क्यों नहीं? अग्नि है। जो लोहे के अहं को गलाकर द्रव्य रूप में बना देती है। अग्नि की विकराल लपटों के सम्मुख किसी की क्या चल सकती होगी?
केवल जल है, जो उसकी ऊष्मा को शीतल कर देता है। जल से टकराने की फिर किसमें ताकत होगी? प्रतिवर्ष बाद तथा अतिवृष्टि द्वारा जन और धन की अपार हानि होती है। ऐसा क्यों सोचते हो तत् इस संसार में एक-से-एक शक्तिशाली पड़े। वायु का प्रवाह जलधारा की दिशा बदल देता है। संसार का प्रत्येक प्राणी वायु के महत्व को जानता है, क्योंकि इसके बिना उसके जीवन का महत्व ही क्या है? जब वायु ही जीवन है, फिर इससे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु क्या होगी? भगवान बुद्ध को हंसी आ गई, बोले-मनुष्य की संकल्प शक्ति, जिसके द्वारा वायु भी वश में हो जाती है। मानव की यह शक्ति ही सबसे बड़ी है।