स्वामी केशवानन्द जिन्होंने शिक्षा का व्यापक प्रचार किया, राज्यसभा के सदस्य थे। तब की बात है कि उनके एक सहकारी ने देखा कि वे हाथ पर दो-तीन रूखी रोटियाँ रखे दाल से खा रहे हैं। रोटियाँ सूखी व ठण्डी थीं, उन्हें वे जल्दी-जल्दी चबाकर गले के नीचे उतार रहे थे। सहकारी ने इसका कारण पूछा तो बोले- मुझे कई जगह जाना है और शाम को गाड़ी पकड़नी है, इसलिये तंदूर से यहीं दो रोटियाँ मँगा ली हैं।
इस आयु में आपको ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। कुछ नहीं तो घी, मक्खन व फल तो लिया करें। सहकारी बोला। इस पर वे मुसकराते हुए बोले- ठीक तो है, पर जब इन्हीं बातों की चिन्ता करनी थी, तो संन्यासी बनकर कुछ सेवा करने का व्रत ही क्यों लेता?
व्यक्तिगत सुखों की चिंता न करना सेवा-व्रती का आदर्श है।