प्रखर साधना वर्ष के परिप्रेक्ष्य में एक लेख यहाँ प्रस्तुत है। यह साधना की ओर गतिशील करने के लिए दिया गया एक सत्परामर्श है। आज के बहिर्मुखी चिन्तन करने वाले मानव, भटकावों में ले जाने वाली गतिविधियों में संलग्न साधक के लिए एक मार्गदर्शन है, जो विराट गायत्री परिवार के संस्थापक -संरक्षक ने 1940 की अखण्ड-ज्योति पत्रिका के जून अंक में संपादकीय के रूप में लिखा था। पढ़ें व आत्मचिन्तन करें।
मनुष्य वास्तव में अकेला ही जाएगा। उसका सारा धर्म-कर्म एकान्तमय है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है, अपने लाभ-हानि का निर्णय भी उसे स्वयं करना पड़ता है। अपने उत्थान-पतन के साधक स्वयं उपलब्ध करने होते हैं। इस संघर्षमय दुनिया में जो भी अपने पाँवों पर खड़ा होकर अपने बलबूते चल पड़ता है, वह चल लेता है, बढ़ जाता है और अपना स्थान प्राप्त कर लेता है, किंतु जो दूसरों के कंधे पर अवलम्बित है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिक्षुक की तरह कुछ प्राप्त कर ले तो सही अन्यथा निर्जीव पुतले और बुद्धि रहित कीड़े-मकोड़ों की तरह ज्यों-त्यों करके अपनी साँसें पूरी करता है। मनुष्य के वास्तविक सुख-दुख हानि-लाभ उन्नति-पतन बंधन-मोक्ष का जहाँ तक संबंध है, वह सब एकांत के साथ जुड़ा हुआ है।
रुपया-पैसा जायदाद, स्त्री-कुटुम्ब आदि हमें अपने दिखाई देते हैं, पर वास्तव में हैं नहीं। ये सभी चीजें शरीर की सुख-सामग्री मात्र हैं। शरीर छूटते ही इनसे सारा संबंध क्षणमात्र में छूट जाता है, फिर कोई किसी का नहीं रहता। पाठक विश्वास करें, कुछ श्रम हो तो उसे उठा दें। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तुम्हें सच्ची बात बता रहा हूँ। तुम अकेले हो, बिलकुल अकेले। न तो कोई तुम्हारा - न तुम किसी के। हाँ! लौकिक धर्म के अनुसार साँसारिक कर्तव्य और कर्म हैं, जो तुम्हें शरीर रखने तक पालने पड़ेंगे। उनसे छुटकारा नहीं हो सकता। कर्म किये बिना शरीर रह नहीं सकता-यह उसका धर्म है। परंतु हे इक्के के घोड़े! ये सब वस्तुएँ तेरी नहीं हैं, जिन्हें तू सारे दिन ढोता है- तू अकेला है। ये सवारियाँ तेरी कोई नहीं हैं, जिन्हें अपने ऊपर बिठाकर तू सरपट तेजी से दौड़ता चला जा रहा है।
उपर्युक्त पंक्तियों से कोई भ्रम में न पड़े। संन्यास या निवृत्ति का वह पाठ हम किसी को नहीं पढ़ा रहे, जिसके अनुसार लोग कपड़े रंग कर भिखारी बन जाते हैं और कायरों की भाँति लड़ाई से डरकर जंगलों में अपनी जान बचाना चाहते है। कर्मयोग किसी से कम नहीं है। हम अपने कर्तव्यों का ठीक तरह पालन करते हुए पक्के संन्यासी बने रह सकते हैं। यहाँ तो हमारा अभिप्राय यह है कि तुम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव करते रहो। अपने साधकों को हमारी शिक्षा है कि वे नित्य कुछ दिन एकांत सेवन करें। इसके लिए यह जरूरी नहीं कि वे किसी जंगल, नदी या पर्वत पर जाएँ। अपने आस-पास ही कोई शाँत स्थान चुन लो। कुछ भी सुविधा न हो तो अपने कमरे के सब किवाड़ बन्द करके अकेले बैठो। वह भी न हो सके तो शोरगुल से रहित स्थान में बैठकर आँखें बन्द कर लो या चारपाई पर लेटकर हलके कपड़े से अपने को ढँक लो। शाँतचित्त होकर मन-ही-मन जाप करो-मैं अकेला हूँ- मैं अकेला हूँ, मैं एक स्वतंत्र, अखण्ड आर अविनाशी सत्ता हूँ। मेरा कोई नहीं और न मैं किसी का हूँ। आधे घण्टे तक अपना सारा ध्यान इसी क्रिया पर एकत्रित करो। अपने को बिलकुल अकेला अनुभव करो। अभ्यास के कुछ दिनों बाद एकांत में ऐसी भावना करो कि “मैं मर गया हूँ। मेरा शरीर और उपयोग में आने वाली संपूर्ण वस्तुएँ मुझसे दूर पड़ीं हैं।”
उपर्युक्त छोटे से साधन को हमारे प्राणप्रिय अनुयायी आज से ही आरंभ करें। वे यह न पूछें कि इससे क्या हो जाएगा, किंतु शपथपूर्वक कहता हूँ कि जो सच्चे हृदय से विश्वासपूर्वक इसे करेगा, वह कुछ ही समय में सच्चे आत्मज्ञान की ओर बढ़ जाएगा। साँसारिक घोर पाप, दुष्कर्म, बुरी आदतें, नीच वासनाएँ और नरक की ओर घसीट ले जाने वाली कुटिलताओं से उसे छुटकारा मिल जाएगा। इन पापमयी पूतनाओं को छोड़ने के लिए साधक अनेक प्रयत्न करते हैं पर वे छाया की भाँति पीछे-पीछे दौड़ती रहती हैं और पिण्ड नहीं छोड़ती। यह साधन उस ममत्व को ही छुड़ा देगा, जिसकी सहचरी ये पाप वृत्तियाँ हैं।
अपने को अकेला अनुभव करो। नित्य अभ्यास करो। शरीर को निश्चेष्ट पड़ा रहने दो। मन को पूरी योग्यता, तर्क, बुद्धि के साथ यह समझने दो कि मैं अकेला हूँ। केवल बुद्धि द्वारा सोच लेना ही पर्याप्त न होगा। यह भावना मन के ऊपर गहरी अंकित हो जानी चाहिए। अभ्यास इतना बढ़ जाना चाहिए कि जब अपने बारे में सोचो, तो सोचो कि मैं अकेला हूँ। हर घड़ी अपने को संसार की समस्त वस्तुओं से ऊँचा कमलपत्रवत् ऊपर उठा समझो। मैं कहता हूँ कि यह साधन तुम्हें मनुष्य से देवता बना देने में पूरा समर्थ है।