बगीचे में बैठे साधु वास्वानी शिष्यों को समझा रहे थे कि वे किस प्रकार लोगों के पीड़ा-पतन और दुख-दर्द में यथाशक्ति सहायता कर सकते हैं। इतने में कुछ संन्यासी उनसे मिलने आये। आते ही उन्होंने स्वर्ग-मुक्ति जन्म-मरण अमरता, नश्वरता की बातें करना प्रारम्भ कर दीं। कुछ देर तक तो वास्वानी जी उनकी बातें सुनते रहे, फिर अचानक टोकते हुए बोले कि आखिर आप यह सब किसे सुना रहे हैं। यहाँ तो कोई स्वर्ग और मुक्ति नहीं चाहता। ये सब तो मेरे साथ उन लोगों की सहायता की बात कर रहे हैं, जो इस धरती पर अज्ञान-अंधकार के कारण नारकीय यंत्रणा भोग रहे हैं। क्या आप भी उनकी सहायता में कुछ योगदान करने की स्थिति में हैं। इतना सुनकर संन्यासियों की बोलती बन्द हो गई और एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। तब वास्वानी जी ने उन्हें समझाया। मुक्ति और स्वर्ग का सुख बातों से नहीं, दूसरों के दुख में काम आने, सेवा-सहायता जैसे मानवीय कृत्यों से अनायास ही मिल जाता है।