मनुष्य गया-गुजरा नहीं प्रचंड शक्ति का पुँज है

March 1999

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मनुष्य में कितना शक्ति-सामर्थ्य है, इसका एक छोटा उदाहरण उसकी आरंभिक स्थिति ‘भ्रूणावस्था’ की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही किया जा सकता है। अपनी सत्ता के प्रकटीकरण-अवसर पर साधनरहित स्थिति में यदि इतना अधिक पुरुषार्थ किया जा सकता है, तो साधनसंपन्न और विकसित स्थिति में अपेक्षाकृत और भी अधिक पराक्रम कर सकना संभव होना चाहिए, किंतु देखा यह जाता है कि श्रीगणेश का उपक्रम पीछे चलकर शिथिलता की दिशा में बढ़ने लगता है और क्रमशः ठंडा होता चला जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए अन्यथा कोई कारण नहीं कि आरंभ में जिस स्तर की सक्रियता अपनाई गई थी, उसमें शिथिलता आने लगे। यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आरंभ में विशेष क्षमता होती है और वह पीछे स्वयमेव घट जाती है। बीज से अंकुर निकलते समय, अंकुर को पौधा बनते समय जो प्रगतिक्रम दृष्टिगोचर होता है वह पीछे समाप्त या शिथिल कहाँ होता है? उस विकास प्रक्रिया में क्रमशः अभिवृद्धि ही होती चलती है, फिर कोई मनुष्य द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ आगे चलकर अधिकाधिक तीव्र न होता चले।

पिता के शरीर से निकला हुआ शुक्राणु इतना छोटा होता है कि आलपिन की नोंक पर उसके हजारों भाई बैठ सकते हैं। उसे बिना शक्तिशाली सूक्ष्म-दर्शक यंत्र के खुली आँखों से तो देखा नहीं जा सकता। संतानोत्पादन के लिए की गई प्रक्रिया द्वारा शाँत पड़ा वह जीव उत्तेजित हो उठता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता का निर्माण करने के लिए सहयोगी की तलाश में द्रुतगामी से परिभ्रमण करता है। उस समय उसके हाथ, पैर, आँख आदि कुछ नहीं होते, तो भी अपनी आँतरिक आकांक्षा से प्रेरित होकर अभीष्ट साथी को खोजने के लिए इस तेजी से दौड़ता है कि हिरन, चीते की दौड़ से भी उसका अनुपात बढ़ा-चढ़ा रहता है।

शुक्राणु को डिंबाणु तक पहुँचने में अपने आकार और स्थान की दूरी के अनुपात से उतनी लंबी यात्रा करनी पड़ती है, जितनी कि उसे मनुष्य के बराबर आकार का होने पर पूरी पृथ्वी की दूरी नापनी पड़ती। इस यात्रा पर स्खलन के समय लाखों शुक्राणु अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति के लिए निकलते हैं। इसे ‘डर्बी की घुड़दौड़’ के समतुल्य प्रतिस्पर्धा माना जा सकता है। प्रकृति सबल को सफलता देने की नीति अपनाती है। जो उस लम्बी और कष्टसाध्य यात्रा में अंत तक प्रबल पुरुषार्थ नहीं कर पाते, बीच में ही थककर बैठ जाते है, वे दम तोड़ देते हैं। जो अणु प्राणपण का साहस करता है, वही सफल होता है और भ्रूण बनने का प्रगतिपथ पर अग्रसर होने का श्रेय प्राप्त करता है।

शुक्र और डिंब का मिलकर बना हुआ ‘कलल ‘ बिजली की नेगेटिव और पॉजिटिव दो-दो धाराओं के सम्मिलन से उत्पन्न शक्तिप्रवाह की तरह सक्रिय हो उठता है। गंगा-यमुना का यह मिलन तीर्थराज संगम बनता है। सहयोग और सहकारिता का, मैत्री और सघन आत्मीयता का जीवन के पहले ही दिन जो पाठ पढ़ा जाता है उसका सत्परिणाम तत्काल देखने को मिलता है। यह सहकारिता यदि आगे भी जारी रखी गई होती, उसका महत्व भुला न दिया गया होता तो मनुष्य प्रगति करते-करते न जाने कहाँ से कहाँ जा पहुँचा होता।

भ्रूणकलल आरंभ में बाल की नोक की बराबर होता है, किंतु वह एक महीने के भीतर ही इतनी प्रगति करता है कि आकर में 50 गुना और वजन में 8000 गुना बढ़ जाता है। जो पहले दिन चिपचिपे जलबिन्दु के अतिरिक्त और कुछ नहीं था, वही एक महीने में चौथाई इंच का बुलबुला बन जाता है। उसे परीक्षण, विश्लेषण की मेज़ पर रखा जाय तो स्थिति को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। उसके सिर और धड़ को देखा जा सकता है पैर। पूछ की तरह होते हैं। हाथ तो स्पष्ट नहीं होते, पर हृदय धड़कता हुआ और नसों में रक्त चक्कर लगाता हुआ देखा जा सकता है। जीव की सृजनात्मक गति का यह अद्भुत परिचय है। निर्माण का संकल्प जब कार्यरूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठे तो सहयोग, साधन और परिस्थितियाँ किस प्रकार अनुकूल होती चली जाती हैं, इसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक महीने मात्र स्वल्प समय में किया गया काय-निर्माण का कार्य कितनी प्रगति कर लेता है, इसे देखते हुए जीव की अद्भुत सृजनात्मक शक्ति पर संदेह करने का कोई कारण शेष नहीं रहता।

माता के शरीर में असीम मात्रा में पोषक पदार्थ भरे रहते हैं। उसे इच्छानुसार मात्रा में प्राप्त करने में भ्रूण पर कोई रोकथाम नहीं होती, पर वह सही विकास के सिद्धांत को समझता है कि निर्वाह मात्र के लिए न्यूनतम लिया जाय अन्यथा अनावश्यक संग्रह उसके लिए अंततः भार बनेगा और विपत्ति उत्पन्न करेगा। तेन त्यक्तेन भुँजीथाः का पाठ प्रत्येक प्रगतिशील को पढ़ाना पड़ा है। भ्रूण भी उस सनातन सिद्धांत से अपरिचित नहीं होता। उसे अपने शरीर के चारों ओर एक परत चढ़ानी पड़ती है, जो गर्भाशय में उपलब्ध सामग्री में से छना हुआ, उपयुक्त पोषक पदार्थ ही भ्रूण तक जाने देती है। इसे संयम और मर्यादा का आवरण कह सकते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से इस झिल्ली को ‘ट्रोफोब्लास्ट’ कहते हैं। संपत्ति के समुद्र में से मात्र उपयुक्त निर्वाह स्वीकार करने की व्यवस्था यह झिल्ली ही बनाती है। आक्सीजन और रसायन मिश्रित भ्रूण का उपयोगी आहार उसके शरीर में इसी झिल्ली द्वारा छनकर भीतर पहुँचता है। बात इतने से ही समाप्त नहीं होती। भ्रूण के शरीर से मल भी बनता है। उसे बाहर निकालना आवश्यक है, यह बाहर निकालना आवश्यक है, यह झिल्ली ही उस मल को बाहर लाती है और माता के रक्त में धकेल देती है। उसकी सफाई माता के रक्त को अपनी निज की सफाई के साथ-साथ ही करनी पड़ती है? उपलब्धि की तरह परित्याग का सिद्धांत अपनाया जाना कितना आवश्यक है, इसे हृदयंगम करने पर ही भ्रूणकलल की सुरक्षा और अभिवृद्धि संभव होती है। ‘हम’ तथाकथित ‘बुद्धिमान’ लोग दोनों हाथों से अनावश्यक संग्रह में जुटाते। फलतः उस भार संग्रह की विषाक्तता जीवन की नाव को बीच मझधार में डुबो देने का कारण बनती है।

अनुदानों के लिए लालायित रहने वाले लोग सोचते हैं कि दूसरों के अनुग्रह से मिली सामग्री से ही काम चल सकता है, पर यह कुकल्पना सर्वथा निरर्थक ही सिद्ध होती है। लोग संभवतः यही मानते हैं कि माता का रक्त ही भ्रूण की नसों में घूमता है, किंतु वास्तविकता वैसी है नहीं। बच्चे का अपना स्वतंत्र रक्त होता है। यह बात अलग है कि उसके निर्माण की साधन-सामग्री माता के शरीर से उपलब्ध होती है।

दूसरे महीने में भ्रूण स्वयं के ऊपर एक रक्षा-कवच जलीय जाकेट के रूप में धारण कर लेता है। वह जानता है कि हर समर्थ को सुरक्षा संग्राम में उतरना पड़ता है। जीवन एक खुला संघर्ष है। जो इस रणक्षेत्र में उतरने से डरता है-सुविधाओं की वर्षा होते रहने के सपने देखता है, वह पाता कुछ नहीं खोता बहुत है। संकटों से जूझने में जितने मरते हैं, उसकी तुलना में उनसे डरने के कारण, बेमौत मरने वाले कायरों की संख्या कहीं अधिक होती है। भ्रूण की शरीर-संपदा बढ़ती है तो साथ ही खतरा भी बढ़ता है। बाल की नोंक या चना-मटर जितने शरीर को पेट में कुछ विशेष खतरा नहीं था, पर जब आकार बढ़ेगा तो खतरे की आशंका भी रहेगी ही। बच्चे के बढ़े हुए शरीर पर माता के पेट का दबाव बढ़ता है, साथ ही उसके चलने-फिरने उलटने-पलटने की क्रिया भी भ्रूण को प्रभावित करती है।

ऐसी दशा में यह सुरक्षा-कवच आवश्यक है। सुरक्षात्मक जीवन-संघर्ष के क्षेत्र में भ्रूण को कवच धारण करके उतरना पड़ता है और उसकी आवश्यकता मृत्युपर्यंत बनी रहती है।

एक महीने का भ्रूण एक इंच के दसवें भाग की बराबर लम्बा होता है। तभी से उसके हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े और आँतें बनना शुरू हो जाती हैं। गुर्दे बनाने में तो जीव को भारी उखाड़-पछाड़ करनी पड़ती हैं। आरंभिक गुर्दा मछली के गुर्दे से मिलता-जुलता होता है। पीछे वह मेंढक जैसा बनता है। फिर उसकी आकृति छोटे पशुओं के समतुल्य होती हैं। संभवतः यह विकास परम्परा का क्रम है। शरीर की मूल-सत्ता आदिम स्मृतियों को धारण किए रहती है और अपना काम वहीं से आरम्भ करती है, किंतु विकसित जीव उससे अपना काम चलता नहीं देखता। फलतः वह अपनी मर्जी के गठन में जुटता है। गुर्दों के परिवर्तन में देखी जाने वाली प्रवृत्ति यदि आगे भी चलती रहे तो पशु-प्रवृत्तियों से लड़-झगड़कर उन्हें खदेड़ देना और आत्म-गौरव के अनुरूप उच्चस्तरीय प्रकृति ढाल लेना और प्रवृत्ति अपना लेना कुछ भी कठिन न रह जाएगा।

पहले महीने में भ्रूण की जो स्थिति होती है। दूसरे महीने में उसका क्रम बढ़ता ही चला जाता है। पहले महीने की तुलना में उसकी लम्बाई छह गुनी और वजन 500 गुना बढ़ता है। ज्ञानेन्द्रियों के निशान-रीढ़ की हड्डी-अस्थियों का ढाँचा-तंत्रिकाओं का जाल- इसी अवधि में विनिर्मित होने आरंभ हो जाते हैं।

तीसरे महीने में यों शरीर के अन्य अवयव भी स्पंदन, ऐंठन और हलचल करते देखे जाते हैं, पर सबसे अधिक उथल-पुथल आँतों में होती हैं। वे होती तो अनगढ़ रस्सी की तरह हैं, पर उनकी मंथनक्रिया देखते ही बनती है। पूर्ण मनुष्य की आँतें जितना जिस गति से काम करती हैं, उसकी तुलना में भ्रूण की आँतें प्रायः हजार गुना अधिक पुरुषार्थ कर रही होती हैं। जीव चेतना की मूलभूत क्षमता का यह प्रारंभिक परिचय है। इससे उसकी तात्त्विक सामर्थ्य का पता चलता है। यदि इसे कुंठित न किया जाए तो पेट की पाचनशक्ति अद्भुत स्तर तक अपनी क्रियाशीलता का परिचय देती रह सकती है।

शरीर में अत्याधिक महत्वपूर्ण अवयव दो हैं-एक मस्तिष्क दूसरा हृदय। तीसरे महीने इनका विकास आरंभ हो जाता है। बुद्धि और भावना की दो क्षमताएँ ही ऐसी हैं, जो मनुष्य को अभीष्ट गति और उपयुक्त दिशा देती हैं। विकास साधनों के आधार पर नहीं, इन्हीं दो अवयवों, दो विभूतियों के आधार पर होता है। सफलताएँ और उपलब्धियाँ तो इन दो तत्वों की प्रतिक्रिया मात्र हैं। गर्भस्थ शिशु इन्हें विकसित करने की आवश्यकता समझता है और किसी योग्य हो सकने की स्थिति में आने के लिए दो महीने की अवधि पूरी होते ही वह इन दो अति महत्वपूर्ण केंद्रों को विकसित करने में जुट जाता है। उन दिनों इन पर जितना श्रम होता है, उतना ही यदि जन्मकाल के उपरांत भी किया जा सके तो मनुष्य की ज्ञान संपदा और भावविभूति की चरम उन्नति हो सकती है। ऐसा मनुष्य देवात्मा स्तर का आलोकमय जीवनयापन कर सकता है।

लिंगभेद की पृथकता तीसरे महीने से प्रारंभ होती है। उससे पूर्व भ्रूण में उभय-लिंगी लक्षण होते हैं। जन्म लेते ही बालक जीवन-संघर्ष के लिए भयंकर मल्ल-युद्ध आरंभ करता है। भीतर और बाहर की परिस्थितियों में भारी अंतर होता है। उदर के सुरक्षित दुर्ग में उसे बाहरी खतरों का सामना नहीं करना पड़ता था, पर बाहर तो ऋतु प्रभाव से लेकर घातक विकिरणों से भरा हुआ नया एवं अपरिचित संसार होता है। आहार, विश्राम, मलत्याग आदि की सर्वथा नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस परिवर्तन को ऐसा ही माना जा सकता है, जैसे एक लोक के प्राणी को दूसरे लोक में बसने के समय हो सकता है। स्थिति का सामना करने के लिए बहुमुखी समर्थता चाहिए। यह अनुदान कोई और नहीं दे सकता। जीव को अपने ही बलबूते उपार्जित करना पड़ता है। जन्म लेते ही वह अपने शरीर को नई परिस्थितियों से टक्कर लेने योग्य बनाने के लिए प्रचंड प्रयास करता है। इसको जन्मकाल में बालक की विचित्र गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है। नवजात शिशु जन्म लेते ही चीखता है, हाँफता है, काँपता है, हाथ-पैर पीटता है। यह सब क्या है? इसे उसका सामर्थ्य-संपादन प्रयत्न ही कहा जा सकता है। गर्भरज्जु कटते ही उसे स्वावलंबन का उत्तरदायित्व सँभालना पड़ता है। तब माता उसके विकास में सीमित सहयोग ही दे पाती है। इस संसार का यही नियम है कि जीव को अपने बलबूते निर्वाह और प्रगति के साधन जुटाने पड़ते हैं। सहयोग तो आदान-प्रदान के सिद्धांत पर ही टिकता है। उदर-अनुदान तो क्रमशः घटते ही जाते हैं।

पेट से बाहर आने में कष्ट तो माता को होता है, पर उसके बाहर आने की प्रक्रिया में प्रबल चेष्टा और अदम्य आकांक्षा शिशु की ही काम कर रही होती है। गर्भस्थ शिशु अतिशय दुर्बल हो तो वह माता की कितनी ही इच्छा होने पर भी बाहर न आ सकेगा। उसे माता का पेट चीरकर ही बाहर निकलना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि जन्मने के तुरन्त बाद बालक रोये-चिल्लाए नहीं, हाथ-पैर न पीटे तो उसका जीवित रहना कठिन हो जाएगा। ऐसी स्थिति होने पर चतुर दाइयाँ ठंडे पानी के छींटे देकर दूसरे कृत्रिम उपायों से बच्चे को रोने-चिल्लाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। कहावत है कि बिना रोये माता दूध नहीं पिलाती। प्रकृति भी समर्थता का उपहार बालक को तभी देती है, जब वह इसके लिए भारी उत्कंठा प्रकट करे। रोने-चिल्लाने में इसी माँग की प्रचंडता का आभास मिलता है।

जीव को जन्म लेने के उपरांत नये लोक में पहुँचकर नये उत्तरदायित्व सँभालने, नये लोगों के साथ तालमेल बिठाने, नई परिस्थितियों को समझने, नये साधन उपयोग करने की तरह हर स्तर की नवीनता से परिचय ही नहीं अभ्यस्त भी होना पड़ता है। जीव को प्रसुप्ति से जाग्रति में आने और तज्जनित परिस्थितियों का सामना करने में कितने प्रबल पुरुषार्थ और कितनी अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है, इसे देखकर उसकी मौलिक गरिमा का अनुमान लगाया जा सकता है।

आत्मा की सामर्थ्य का मूल स्रोत परमात्मा है। परमात्मा अनंत समर्थता का पुँज है। फिर उससे अविच्छिन्न संबंध सूत्रों का साथ जुड़ा हुआ आत्मा ही क्यों किसी प्रकार अभावग्रस्त हो सकता है? यह काय-कलेवर हाड़-माँस का पिटारा नहीं है। उसके रोम-रोम में आत्मसत्ता ओत-प्रोत है। अपने आरंभिक दिनों में जीव अपने घरौंदे को जिस प्रबल पुरुषार्थ के सहारे विकसित करता है, यह समर्थता उसमें सदैव बनी रहती हैं। उसे विस्मृत और उपेक्षित पड़े रहने देने से ही हमें हेय और दुर्बल स्थिति का सामना करना पड़ता है।

गायत्री महाशक्ति की साधना से वह पथ-प्रशस्त होता है, जिससे मानवीकाया में सन्निहित विशेषताओं को उभारना और उपयोग में लाना संभव हो सके। कहना न होगा कि यदि निष्ठापूर्वक इसके लिए प्रयास किया जाए तो कोई भी व्यक्ति उतनी प्रगति कर सकता है, जितनी कि भूतकाल में किसी ने की है। इतना ही नहीं, भविष्य की संभावनाएँ तो भूतकाल की सफलताओं की अपेक्षा और भी अधिक बढ़ी-चढ़ी हो सकती हैं।


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