सच्चा बैरागी व योगी कौन

March 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संत-समागमों में आए दिन त्याग-वैराग्य की ज्ञान-चर्चा होती ही रहती है। यह वैराग्य वस्तुतः है क्या? क्या संसार छोड़कर वन-उपवनों के, गुफा-कंदराओं में रहना ही यथार्थ वैराग्य है? यदि नहीं, तो क्यों?

वीतरागी पुरुषों की परिभाषा करते हुए मनीषियों ने कहा है कि संसार का परित्याग करना वैराग्य नहीं, पलायन है। इसे संत हृदय सत्पुरुष नहीं, प्रपंची अपनाते और अपना स्वार्थ साधते हैं। जिनके अंदर सचमुच में विरक्ति पैदा होती है, उन्हें कहीं अन्यत्र नहीं जाना पड़ता। वे कीचड़ में कमल की तरह होते हैं। संसार की माया उनका स्पर्श तक नहीं कर पाती। इसलिए योगी-यति जब संसार छोड़ने की बात करते हैं, तब वह बाहरी नहीं, भीतरी होता है। उसे यदि व्यक्ति स्वयं से चिपका रहे और बाहर की दुनिया में इधर-उधर चाहे कितना और कहीं भी निर्जन निकुँज में भागता रहें, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं, कारण कि वह अपना संसार अपने अन्दर लिये फिर रहा है।

संसार की विवेचना करते हुए विज्ञजन कहते हैं कि इसका उल्लेख दो संदर्भों में होता है। एक तो वह, जो जड़ प्रकृति है, जिसमें हम सब रहते हैं और जो पंचतत्वों से विनिर्मित है। दूसरा संसार हर एक का अपना पृथक् है। यह पूर्णतः उसका निजी है। इसे जीवन जीने की शैली या उसको देखने का ढंग कहा सकते हैं। यहाँ इसकी ही चर्चा हो रही है। संन्यास और वैराग्य का संपूर्ण तत्त्वदर्शन उसी पर आश्रित है, अतएव यहाँ इसे तनिक विस्तार से समझ लेना चाहिए।

जब व्यक्तिगत दुनिया का उल्लेख होता है, तो यह भी विदित होना चाहिए कि वह निजी दृष्टि पर अवलम्बित है। दृष्टि यदि त्यागी-तपस्वियों जैसी हुई, तो उसका अपना जगत भी वैसा ही होगा, वह उसी प्रकार से चिंतन करेगा, आचरण और कृत्य भी वैसे ही होंगे; लेकिन औसत आदमी की तरह यदि वह भी भौतिकवादी हुआ, तो बाहरी आकर्षणों में ही संपूर्ण जीवन फँसा रहेगा। एक ज्ञानी और सामान्यजन में यही अंतर है। ज्ञानी यहीं पर पत्थरों में छिपे परमात्मा को देख लेता है, जबकि संसारी सर्वव्यापी परमात्मा में केवल पत्थर को- मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे को देख पाता है। सब कुछ देखने के तरीके पर निर्भर है। बाहर वही सब दिखलाई पड़ता है, जो मन के अंदर है। व्यक्ति वह नहीं देखता, जो वास्तव में हैं। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।

बाहर यदि खूब हँसी-खुशी का वातावरण हो, लोग मौज-मस्ती कर रहे हो,, किंतु सामने वाले का मन खिन्न और उदास हो, तो सारा वातावरण उसे उदास नजर आएगा। इसके विपरीत किसी कारणवश वातावरण भारी बन गया हो, प्रतिकूलता का बोझिल प्रभाव वहाँ स्पष्ट रूप से विद्यमान हो, किंतु अन्तस् का उल्लास यदि निर्झर की तरह प्रवाहित हो रहा हो, तो वहाँ भी वह लोगों को अपनी तरह हलका बनाता रह सकता है। तात्पर्य यह कि बाहर का पसारा हमारे अपने ही अभ्यंतर का विस्तार है। हम जैसे हैं, उसी प्रकार का जगत चतुर्दिक् निर्मित करते हैं। कोई व्यक्ति कई दिनों का भूखा है, वह बाज़ार के रास्ते गुजर रहा है, तो उस दिन उसे कपड़े की, खिलौने की, यंत्र-उपकरणों की दुकानें कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ेगी। सम्पूर्ण बाज़ार में माने केवल मिष्ठान्न भण्डार ही हों, भोजनालय और जलपानगृह ही हों। तब दूसरा कुछ भी उसे नजर नहीं आएगा। चारों ओर से भोजन की ही सुगंधि उठती प्रतीत होगी। अन्य दिन वही व्यक्ति जो कहीं से खाकर चलता है, तो उसके लिए बाज़ार का दृश्य बदल जाता है।

मूर्धन्य विचारक एवं दार्शनिक रोमा रोलाँ ने लिखा है कि मानवी प्रवृत्तियों का नियमन बाह्य वातावरण के नियंत्रण से संभव तो है, पर उसे एक प्रकार का अंकुश ही कहना पड़ेगा, परिवर्तन नहीं; कारण कि इसके मूल में ‘मन’ है। उसके हेय क्रिया–कलापों को बाहरी दबावों द्वारा सुधारा नहीं, सिर्फ रोका भर जा सकता है। मनःचेतना के परिष्कार के लिए आँतरिक अभीप्सा और संकल्पबल चाहिए। इनके द्वारा जब यह परिमार्जन प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है, तो यह अवस्था ही आत्मसत्ता के, परमात्मा के अंशधर होने का ठीक-ठीक प्रमाण है। इसमें इनसान भगवान के समतुल्य बन जाता है। इससे पूर्व वह इनसान है; क्योंकि अपनी ही बनायी दुनिया में जीता और औंधे-सीधे कुछ भी करता रहता है। इसीलिए कहा जाता है कि संसार एक नहीं है। यह उतने ही हैं, जितने मन हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह अपना निजी सृजन, जिसको वह सदा ढोता फिरता है। चाहे कहीं चला जाए, उसकी वह सृष्टि हमेशा साथ रहेगी। जब तक इस तथ्य को सही-सही नहीं समझ लिया जाता, तब तक न तो कोई ठीक अर्थों में संन्यासी बन सकता है, न त्यागी; क्योंकि जब छोड़ने और त्यागने की बात आएगी, तो व्यक्ति उसे छोड़ेगा, जो बाहर है एवं उस संसार को पकड़े रहेगा, जो भीतर है। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? तथाकथित संन्यासी प्रत्यक्षतः तो भौतिक सुविधा-साधनों के अभाव में जीते हैं, पर दिन-रात सोचते उसी के बारे में हैं। इससे यदि वह हिमालय की गुफा में भी बैठे रहें तो वह ‘वह’ ही बने रहेंगे। उनमें राई-रत्ती भर भी अंतर नहीं आने वाला? यदि व्यक्ति का अन्तःजगत अपरिवर्तनीय बना रहा, तो कंदरा क्या कर लेगी? पहाड़-पर्वत क्या कर लेंगे? निर्जन-एकांत से क्या बन पड़ेगा? सब कुछ निष्प्रयोजन और निरर्थक सिद्ध होंगे।

पौराणिक आख्यानों में ऐसा वर्णन मिलता है कि ऋषि -मुनियों को डिगाने के लिए इंद्र अप्सराएँ भेजा करते हैं। विश्वामित्र के समक्ष मेनका उपस्थित हुई थी। यदि इन उल्लेखों पर गहन चिंतन किया जाए, तब इनका तात्पर्य समझ में आएगा कि यह वास्तव में बाहर का खेल नहीं, भीतर का व्यापार है। इंद्र जैसे देवता और अप्सराओं को इतनी फुर्सत कहाँ कि वे लोगों को डिगाने की, गिराने की व्यवस्था करते रहें। श्रेष्ठ सत्ताएँ तो सदा आगे बढ़ाने और ऊँचा उठाने में सहयोग ही करती हैं। वे किसी को क्यों गिराने लगें? इतने पर भी यदि किन्हीं के समक्ष मेनका, रम्भा, उर्वशी जैसी स्वर्ग-सुन्दरियाँ उपस्थित होती हैं, तो यह यथार्थ में उनके मनोराज्य का बीजांकुर हैं। जो वासनाएँ और दमित इच्छाएँ अब तक दबी-छुपी स्थिति में थीं, वह एकांत पाते ही उभरकर बाहर आती और मनोनुकूल प्रतिमाएँ गढ़ने लगती हैं। ऐसे में किन्हीं को कुछ नारी-मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। इन्हें कहीं बाहर का अवतरण नहीं, भीतर का प्रक्षेपण कहना चाहिए। इसीलिए संन्यास-वैराग्य के संदर्भ में सोचने से पूर्व इसे भली-भाँति समझ लेना पड़ेगा कि एक मन निर्मित जगत भीतर है। उसे पूर्णरूपेण विसर्जित किये बिना वास्तविक अनासक्ति का उदय हो पाना संभव नहीं। अस्तु, जब कबीर जैसे संत यह कहते हैं-जग सूँ प्रीत न कीजिए” तो भ्रम में नहीं पड़ जाना चाहिए। यथार्थ में यहाँ बाह्य नहीं, उस भीतरी जगत की ओर संकेत है, जो अपने ही मन का हिस्सा है। छोड़ना इसी ‘मन’ को है। यह काम आसान नहीं। यदि यह इतना ही सरल रहा होता तो यहाँ कितने ही बुद्ध, महावीर और विवेकानंद पैदा हो जाते, पर ऐसे त्यागी-तपस्वी दुनिया में इक्का-दुक्का ही जन्म लेते है, कारण कि यह साहस का काम है। इसमें क्राँति की आवश्यकता पड़ती है। सड़े-गले मन को गलाकर नवीन मन उत्पन्न करना-यह क्राँति से किसी भी प्रकार कम नहीं। इसके फलस्वरूप जो विराट मन पैदा होगा, वह अपने अंदर सारे मनों को समाहित कर लेगा। उसमें इतनी महानता और व्यापकता आ जाती है कि वह सभी को अपने अंदर समेट लेता है। इसमें कोई परेशानी प्रस्तुत नहीं होती, पर साधारण स्थिति में जब दो मन मिलने का प्रयास करते हैं, एक दूसरे के करीब आते हैं, तो दो संसार आपस में टकराते हैं। इसलिए यहाँ मित्रता बड़ी मुश्किल है और दुर्लभ भी। जहाँ मित्रता जैसी कुछ दिखलाई पड़ती है, वहाँ भी मित्रता नहीं है, वरन् स्वार्थों की निकटता है। उसके पूरा होते ही टकराव और वैमनस्य शुरू हो जाते हैं। जिस दिन यह सत्य समझ में आ जाएगा कि बाहर की दुनिया हमारे मन का परिणाम है, उसी के आधार पर हम उसका निर्माण करते हैं, उस दिन फिर बाह्य संसार से पलायन करने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी। तब बार-बार अन्तःकरण यही कहेगा कि वह जो अंदर सपनों का महल खड़ा है, उसे ध्वस्त कर दिया जाय और जिस मन ने उसे जन्म दिया है, उसका कायाकल्प किया जाए। जिस क्षण यह बोध जगेगा, उसी पल व्यक्ति के भीतर का संन्यासी जन्म लेगा। तब यह प्रश्न नहीं रह जायेगा कि हम कहाँ हैं? जगत में या निर्जन में? भवन में या झोंपड़ी में? जहाँ भी रहें, वहीं संन्यस्त हैं।

इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कबीर कहते हैं-” एक कनक अरु कामिनी, जग में दोउ फंदा” इसे पढ़कर लोग यही समझते हैं कि कबीर कनक अर्थात् सोना और कामिनी अर्थात् स्त्री की बात कर रहे हैं। इन्हें छोड़ दिया जाए-संपत्ति और स्त्री का परित्याग कर दिया जाय, तो ब्रह्म उपलब्ध हो जाएगा, क्योंकि जगत तो उन्हीं दोनों के गिर्द घूम रहा है, इन्हीं में बँधा है। लोगों की दो ही आकांक्षाएँ होती हैं-धन और नारी। इन्हें छोड़ देने से वैराग्य हो जाएगा - ईश्वर मिल जाएगा। इसलिए लोग घर-द्वार पत्नी-पुत्र धन-संपत्ति त्यागकर निर्जन में चले जाते हैं, फिर भी खाली हाथ ही रहते है, क्योंकि कबीर का आशय हम ठीक-ठाक नहीं समझ पा रहे हैं। ब्रह्म-प्राप्ति यदि इतनी सरल होती, तो पलायनवादी कब के परमपद पा गए होते, पर ऐसा नहीं है। समझने में यहाँ एक बार फिर हम गलती कर रहे हैं।

कबीर प्रतीकों की भाषा बोलते हैं। लोभ का प्रतीक है- सोना और इन्हें त्यागने की बात करते हैं, तो इसका मतलब साफ है कि वे लिप्सा और काम के परित्याग के बारे में कह रहे हैं। जब तक काम है, कामिनी रहेगी। काम ही कामिनी को निर्मित करता है। इसलिए त्याज्य कामिनी नहीं, काम है। सोना किसी को थोड़े ही पकड़े हुए है, वह तो लोभ है, जो आदमी को जकड़े रहता है। वह समाप्त हो गया, तो व्यक्ति का एक बंधन टूट गया। यदि काम पर भी उसने विजय प्राप्त कर ली, तो समझना चाहिए वह बंधन मुक्त हो गया, संन्यासी-बैरागी बन गया। इसलिए महत्वपूर्ण अन्तस् का विसर्जन है, बाहर का त्याग नहीं। बाहर तो केवल पत्र-पल्लव हैं। उन्हें तोड़ते-मरोड़ते रहने पर भी नित-नई कोपलें फूटती रहेंगी। जड़ तो अन्दर है, वह उन्हें हरा बनाये रखेंगी। अतएव मूल के उच्छेदन में ही सार है।

दोस्तोवस्की ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जिन दिनों जारशाही के विरुद्ध वे क्राँतिकारी गतिविधियों में संलग्न थे, एक दिन पकड़ लिये गए। दस और साथी थे। सभी को मृत्युदंड सुनाया गया। तिथि तय हुई। उस दिन प्रातः छह बजे सभी को गोली मारी जानी थी। सारी तैयारियाँ कर ली गईं, कब्रें खुद चुकीं थीं। ताबूत निर्मित हो गये। बस, अब निर्धारित क्षण की प्रतीक्षा थी। एक-एक पल उनके लिए भारी पड़ रहा था। मानसिक रूप से तो वे मर चुके थे। बस, शारीरिक मौत बाकी थी। सब एक पंक्ति में खड़े थे, तभी छह का घंटा बजा। सैनिक अपनी-अपनी बंदूक के घोड़े दबाते इससे पूर्व एक घुड़सवार वहाँ आ पहुँचा और संदेश सुनाया कि मृत्युदंड आजीवन कारावास में बदल दिया गया है, लेकिन तब तक उनमें से एक आदमी गिर चुका था, यह सोचकर कि बस मरे। छह बज चुके। अब बचने का कोई उपाय नहीं। उसे बताया गया कि सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई है। इसे सुनते ही कुछ पल बाद वह उठ खड़ा हुआ और सबके साथ कारागृह चला गया।

दोस्तोवस्की लिखते हैं कि इस घटना के बाद भी वह वर्षों जिन्दा रहा, पर अब वह पहले वाला आदमी न था। वह चलता-फिरता उठता-बैठता काम करता-सब कुछ सामान्य आदमी की तरह था, किंतु पूछने पर बोलता कि वह अमुक तिथि को प्रातः छह बजे मर चुका है। लोग उसे पागल कहते, पर पागलों का कोई लक्षण उसमें था नहीं। वह निस्पृह योगी की तरह प्रतीत होता। न कोई आसक्ति रही, न इच्छा, न लगाव-एकदम निर्लिप्त। दोस्तोवस्की कहते हैं कि उस दिन के बाद वे भी दूसरे आदमी हो गए, पहले वाला दोस्तोवस्की मर गया।

यहाँ न तो किसी पागल को संन्यासी की संज्ञा दी जा रही है, न उसे निर्लिप्त योगी बताया जा रहा है। कहा मात्र इतना भर जा रहा है कि यदि भीतर की अनासक्ति उभर पड़े और पहले से गढ़ी अंतर की दुनिया लय हो जाए, तो प्रखर वैराग्य की अनुभूति न सिर्फ की जा सकती है, वरन् व्यक्तिगत जीवन में उसकी झलक-झाँकी भी करायी जा सकती है। इसी स्थिति में यथार्थ संन्यास सधता है। भर्तृहरि के ‘वैराग्यशतक ‘ का इतना ही निचोड़ है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118