धर्मराज (Kahani)

March 1999

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भगवान श्रीकृष्ण से एक बार एक यादव ने प्रश्न किया- आप युधिष्ठिर को धर्मराज क्यों कहते हैं? भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाभारत का युद्ध चल रहा था। तब युधिष्ठिर सायंकाल वेश बदलकर कहीं जाया करते थे। पाँडवों ने इस रहस्य का पता लगाने के उद्देश्य से एक दिन उनका पीछा किया तो पता चला कि वे युद्धक्षेत्र में पड़े घायलों की सेवा-शुश्रूषा किया करते थे। शेष तीनों भाइयों ने उनसे वेश बदलकर यह शुभकर्म करने का कारण पूछा, तो वे बोले- इनमें से कई कौरव पक्ष के हैं, जो यदि मैं प्रकट रूप में होता तो मुझे अपना कष्ट न बताते और मैं सच्ची सेवा के अधिकार से वंचित रह जाता। इसलिये ऐसा करना पड़ा। यह घटना सुनाने के बाद श्रीकृष्ण ने बताया। धर्म और परमार्थ अन्योऽन्याश्रित हैं। इसी से युधिष्ठिर धर्मराज कहलाते हैं और धर्मतंत्र में उन्हें शीर्षस्थान दिया जाता है।

कुम्हार अपने घड़े-मटकों को बेचकर बाज़ार से लौट रहा था। उसे रास्ते में एक बड़ा हीरा मिला। उसको चमकदार पत्थर समझकर गधे के गले में लटका लिया। सोचा, घर पर बच्चे खेलते रहेंगे। रास्ते में एक जौहरी निकला। उसने गधे के गले में चमकदार पत्थर देखा। वह समझ गया कि हीरा है। उसने कुम्हार से पूछा-इसका क्या लेगा? कुम्हार ने बहुत हिम्मत बाँधकर कहा-एक रुपया मिल जाय तो ठीक है। जौहरी समझ गया कि इस मूढ़ को कुछ पता नहीं कि यह क्या है। बोला- बारह आने लेने हैं, किन्तु कुम्हार एक रुपये पर ही डटा रहा। जौहरी ने सोचा- मूरख है। अभी आता है लौटकर। किंतु अचानक उधर से दूसरा जौहरी निकला। उसने भी चमकदार पत्थर गधे के गले में लटका देखा। उसने कुम्हार से कीमत पूछी, तो उसने वही एक रुपया माँगा। उसने तुरन्त कीमत चुकाई और हीरा खरीद लिया। कुम्हार को फिर वह वही पहले वाला जौहरी मिला। बोला क्या हुआ उस पत्थर का? उसने रुपया दिखाया बोला वह तो बिक गया एक रुपये में। पहला जौहरी बोला- अरे मूरख! तूने लाखों का हरा एक रुपये में बेच डाला। कुम्हार बोला- ठीक है मुझे तो नहीं मालूम था कि हीरा है। मैंने पत्थर समझकर एक रुपये में बेच डाला किन्तु आप तो जानकार थे, फिर भी रुपया देने में डर रहे थे और कीमती हीरा तुमने कौड़ियों के मोल गँवा दिया। शास्त्रों के ज्ञाता, ज्ञानी और जानकार अपना हीरे जैसा बहुमूल्य जीवन इसी तरह गँवा देते हैं।


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