अहं गला तो बने ब्रह्मर्षि

March 1999

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“अहो! आज का यह शुभ्र चंद्रमा बड़ा मधुर लग रहा है। कितना दीप्तिमान है यह?”

प्रिय! आज का यह चन्द्रमा वैसा ही दीप्तिमान है....”

“कैसा स्वामी?” पुलकित-प्रमुदित ऋषि पत्नी अरुंधती ने साश्चर्य महर्षि वशिष्ठ जी से पूछा।

“अरुंधती, अभी तुम जब आज के इस शीतल चंद्र की दीप्ति की प्रशंसा कर रहीं थीं, तो मेरे मन में अनायास ही एक उपमा आ गयी।” वशिष्ठ जी ने अपनी धर्मपत्नी को उत्तर दिया।

कौन-सी उपमा? बताइए न, आज के दीप्तिमान चंद्र की तुलना आपने किससे की है? चुप क्यों रह गए?”

“कहूँ- बुरा तो न मान जाओगी?”

“उपमा तो साहित्य का एक अलंकार मात्र है। इसमें बुरा मानने की भला क्या बात है?”

प्रिय, आज का चंद्रमा वैसा ही दीप्तिमान है, जैसा विश्वामित्र का तप।”

इस उपमा को सुनकर सचमुच ऋषि पत्नी अरुंधती खिन्न हो गयीं।

“अरे! तुम म्लान मुख कैसे हो गईं?”

विश्वामित्र की प्रशंसा महर्षि वशिष्ठ के मुँह से सुनकर अरुंधती सचमुच ही दुःखी हो गयीं। अनायास ही उन्हें अपने अतीत जीवन की एक कटुस्मृति याद हो आई। वह ऐसी भयानक घटना थी, जिसे कोई भी माँ कभी भी भूल नहीं सकती। वशिष्ठ जी ने पुनः कहा- “अरे अरुंधती! तुम उपमा सुनकर चुप कैसे रह गईं?”

“क्या वह अतीत का भयंकर पृष्ठ आप पुनः खुलवायेंगे। महर्षि! अपने सौ पुत्रों को निर्ममतापूर्वक मार डालने वाले हत्यारे की ऐसी प्रशंसा भला मैं कैसे सहन कर सकती हूँ। आखिर मैं भी एक माँ हूँ। एक माता का व्यथित हृदय लिए बैठी हूँ। आप तो साँसारिक माया-मोह से ऊपर हैं, ममता के बंधन में नहीं बँधे हैं, पर मैं तो वात्सल्य के कोमल तंतुओं में जकड़ी माँ हूँ। इस हत्यारे ने मेरे पुत्रों की हत्या कर डाली है। हाय, जीवन में इसने क्या छोड़ा है अब?” “ओह! ते यह बात है, ठीक भी है, तुम्हारे हृदय पर बड़ा मार्मिक आघात लगा है। विश्वामित्र ने उत्तेजनावश दुष्कर्म कर डाला था ........पर एक बात है................. किसी व्यक्ति के सद्गुणों का मूल्याँकन करते हुए हमें व्यक्तिगत वैमनस्य से ऊँचा उठना चाहिए। यह मैं मानता हूँ कि विश्वामित्र ने क्षणिक भावावेश में आकर हमारा समस्त परिवार नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है, पर ....................... उनमें कुछ सद्गुण भी हैं। विशिष्ट महानता भी है।.............. इस विशिष्टता की हमें कद्र भी करनी चाहिए। शत्रु में भी यदि दिव्यगुण हों, तो उनकी प्रशंसा करनी चाहिए।”

अरुंधती सहसा उत्तर नहीं दे सकीं।

फिर हल्के से व्यंग्यमिश्रित स्वर में बोलीं-महर्षि यदि ऐसा ही है जो आप उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि क्यों नहीं दे डालते? बस यही तो वे आपसे कहलवाना चाहते हैं। इसी का तो सारा झगड़ा है।”

महर्षि वशिष्ठ व्यथित हो गए। एक कटुसत्य की ओर निर्देश किया गया था। उन पर जो आरोप लगाया गया था, वह सच ही था।

“उन्हें ‘ब्रह्मर्षि’ कह दीजिए और उनका सारा रोष समाप्त हो जाएगा बस इतनी-सी बात है।”

महर्षि वशिष्ठ चुप! जैसे कोई गहरी बात सोच रहे हों।

“महर्षि! क्या सोचने लगे। बोलते क्यों नहीं? क्या इसे मेरी अशिष्टता मानकर मौन हैं?”

वशिष्ठ को बोलना ही पड़ा, “भद्रे! सद्गुणों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करना मनुष्य का कर्तव्य है। विचार भी संक्रामक हैं। वे वायुमण्डल में तरंगों की भाँति तीव्र है। यदि हम सद्गुणों की प्रशंसा न करेंगे, तो दुर्गुणों का गंदा वातावरण स्वतः फैलता चला जाएगा। समाज का अहित होगा, इसलिए स्वस्थ वातावरण की सृष्टि के लिए सद्गुणों का चिंतन आवश्यक है।”

“पर विश्वामित्र तो अनेक दुर्बलताओं के घर हैं।”

“विश्वामित्र में वस्तुतः तो एक ही दोष है। अन्य दुर्बलताएँ तो उसी के इर्द-गिर्द पनपने वाली शाखा-प्रशाखाएँ हैं।”

“क्या मैं जान सकती हूँ, कौन-सा दोष है वह?”

“अहंकार! वे अपने तप के समान किसी दूसरे का तप नहीं मानते हैं। जो उनके तप की श्रेष्ठता स्वीकार नहीं करता उसी से वे रुष्ट हो जाते हैं।”

“मात्र अहंकार ही उनका दोष है?”

“हाँ अरुंधती अहंकार से ही ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और विक्षोभ उत्पन्न होते हैं उसी से प्रेरित होकर मनुष्य दुष्कर्म करने लगते है।”

“सच! तो यह आपके मनोभाव हैं। एक हत्यारे को भी आप अहंकार रहित होने पर महान पुरुष की कोटि में रखते हैं।” अरुंधती ने वक्रभाषा का प्रयोग किया।

“मनुष्य को चाहिए कि दुष्टों से बचकर साधु पुरुषों के साथ रहे। सद्गुणों की प्रशंसा करे। मैं विश्वामित्र के दुर्गुण (अहंकार) को न देखकर उसके सद्गुणों, तपश्चर्या, कष्टसहिष्णुता को देख रहा हूँ। तभी मेरे मुँह से निकल गया कि आज का चंद्रमा वैसा ही दीप्तिमान हो रहा है, जैसा महर्षि विश्वामित्र का तप।”

“अब समझी आपका दृष्टिकोण! आपने अपने पुत्रों के हत्यारे में भी सद्गुण ही देखे हैं।”

संयोग की बात, महर्षि विश्वामित्र, वशिष्ठ जी की कुटिया के पीछे छिपे यह संवाद सुन रहे थे। ये बातें सुनकर उन्हें अचरज हुआ। वशिष्ठ कभी उनकी प्रशंसा न करते थे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्होंने भारी तप किया था। अनेक प्रकार के कष्ट सहे थे। समस्त विश्व उनके तप की श्रेष्ठता स्वीकार करता था, किंतु वशिष्ठ मौन रहते थे। रोष और उत्तेजना में आकर उन्होंने वशिष्ठ के पुत्रों की हत्या तक कर डाली थी, किंतु समुद्र जैसे गंभीर वशिष्ठ के मुँह से न तो प्रशंसा के शब्द निकले और न क्लेश की आहें। अतः वे वशिष्ठ को अपना शत्रु समझते थे और आज उन्हें मारने आए थे। ‘ब्रह्मर्षि’ बनने की अदम्य और उत्कट लालसा उन्हें उद्विग्न बनाए हुए थी।

वार्तालाप सुनकर उनका मन-कमल खिल उठा। अहा! आखिर वशिष्ठ जी ने उनके तप की श्रेष्ठता स्वीकार कर ही ली। उन्हें ऐसा लगा कि वे ब्रह्मर्षि बन गए हैं। उनका अहंकार तृप्त हो गया, उद्विग्नता जाती रही। शाँति और संतुलन की शीतलता ने उनको आनंद विभोर कर दिया।

अब उनका विवेक पूरी तरह सक्रिय था। न्याय भावना उभर आयी थी। विवेक की दृष्टि से देखने से विश्वामित्र को अपनी भयंकर भूल का ज्ञान हुआ। उन्होंने जाना कि द्वेष से नहीं, बल्कि न्याय से प्रेरित होकर ही वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि घोषित नहीं करते थे।

अब विश्वामित्र की दृष्टि में वशिष्ठ एक न्याय-दृष्टि रखने वाले कर्तव्यनिष्ठ, सुहृद बन गए थे। अब वे कुटिया के पीछे न रह सके। पश्चाताप के वशीभूत हो-पिछवाड़े से हटकर एकाएक अरुंधती और वशिष्ठ के सम्मुख उपस्थित हो गए। वे महर्षि वशिष्ठ के चरणों पर गिरकर अपने अपराध और अविवेक के लिए क्षमा माँगने लगे।

जिसे अरुंधती हत्यारा कह रही थी वह अब उनके पति के चरणों पर गिरकर क्षमा-याचना कर रहा था। पश्चाताप के गरम आँसू महर्षि वशिष्ठ के पाँवों पर टप-टप कर गिर रहे थे। महर्षि वशिष्ठ जी को अब पूरा विश्वास हो गया कि विश्वामित्र का अहंकार दूर हो गया है।

अहंकार गलित हो जाने के बाद पशुत्व और निकृष्टता का स्तर भला कहाँ रहता है? मन सही दिशा में बदला, तो मानो सब कुछ बदल गया।

वशिष्ठ जी ने अपने चरण पकड़े विश्वामित्र को बड़े प्यार एवं आत्मीय भावना से उठाते हुए संबोधित किया-उत्तिष्ठ ब्रह्मर्षि-अर्थात् हे ब्रह्मर्षि उठो! विश्वामित्र चकित थे। अब उन्हें अनुभव हो रहा था कि जब वह भीतर से बदल गए हैं, तो भला बाहरी स्तर बदलने में क्यों कठिनाई होने लगी? दर्प और द्वेष से जो चाहते थे, वह उन्हें नहीं मिला, पर हृदय-परिवर्तन होते ही सारी बाधाएँ स्वयं ही समाप्त हो गयीं। अब वह सर्वत्र ‘ब्रह्मर्षि’ के नाम से पुकारे जाने लगे।


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