मातृवत् परदारेषु

March 1999

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भगवान भास्कर शनैः-शनैः अस्ताचल की गोद में विश्राम लेने हेतु जा चुके थे। पक्षियों की कलरव-ध्वनि धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। गहन कालिमा बढ़ती जा रही थी। परंतु वसंत की शीतल-मंद-सुरभित वायु वातावरण में पुलकन और आनंद की वृद्धि करती जा रही थी।

गुरु द्रोणाचार्य एक प्रस्तर शिला पर ध्यानमग्न बैठे थे। आश्रम के एक छोर पर राजकुमार धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। एकाएक गुरुदेव के शब्दों ने आश्रम की शाँति को भंग किया। उनका तेजस्वी स्वर गूँज उठा- राजकुमारों! जाओ, संध्यावंदन का समय हो गया है। अभ्यास बंद कर शीघ्र ही नित्य कर्म करो।”

इस आदेश के साथ ही हाथ के तीरों ने तरकस की शरण ली। सब राजकुमार अपनी-अपनी कुटिया की ओर उन्मुख हो गए। गुरुवर भी उठ खड़े हुए। दो कदम बढ़ाए तो समीप ही अर्जुन खड़े नजर आए। “तुम नहीं गए वत्स?” गुरुदेव ने रुकते-रुकते पूछा।

“हाँ गुरुदेव! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।” - अर्जुन ने अपने शब्दों में विनय लाने का प्रयत्न करते हुए हाथ जोड़कर कहा।

“हाँ, हाँ, वत्स!” निःसंकोच होकर पूछो।” कहते हुए गुरुदेव दो कदम पीछे हटे और

उसी शिलाखंड पर जा विराजे।

अर्जुन बढ़े और बोले- “गुरुदेव! प्रातःकाल आपने समस्त राजकुमारों से कहा था कि आज धनुर्विद्या सीखने का अंतिम दिन है। जितनी शिक्षा आप इस विषय की दे सकते थे, वह हमें दे चुके हैं। कल, सब अपने-अपने घर जा सकते हैं, लेकिन गुरुदेव मैं इससे भी अधिक कुछ और सीखना चाहता हूँ। बतलाए मैं क्या करूँ?”

“वत्स! तुम्हारी ज्ञान-पिपासा की मैं मुक्तकण्ठ से सराहना करता हूँ। इस संसार में इतना ज्ञान है, इतनी विधाएँ हैं कि उनका कोई पार नहीं पा सकता है। फिर भी धनुर्विद्या में मैं जितना ज्ञान रखता था, तुम्हें दे चुका हूँ। सचमुच ही तुम उस ज्ञान के पूर्ण अधिकारी पात्र भी हो! वत्स! आगे इस विद्या को सीखना हो तो तुम्हें देवराज इंद्र को अपना गुरु वरण करना होगा, क्योंकि वे शस्त्रविद्या के प्रकाण्ड पंडित हैं, किन्तु वत्स! यह कभी मत भूलना कि देवराज से शिक्षा ग्रहण करना, उनका शिष्यत्व स्वीकार करना सहज साध्य नहीं है। यह यात्रा बड़ी काँटों भरी है। वहाँ शिष्यत्व से पूर्व तुम्हें कितनी ही कठिन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना होगा और उन परीक्षाओं में सबसे कठिन होगी-संयम व ब्रह्मचर्य की परीक्षा। जहाँ पग-पग पर फिसलने का डर बना रहता है।” गुरुदेव ने अर्जुन को समझाते हुए कहा।

यह सुनकर अर्जुन के मुख पर देदीप्यमान चमक आ गयी। दृढ़ता के भाव उनके चेहरे पर छिटक गए। कुछ क्षण वे विचार करते रहे। फिर धीरे से बोले - “गुरुदेव! यदि आप आज्ञा दे तो मैं देवराज के पास जाकर शस्त्रविद्या सीखूँ? आपका आशीर्वाद साथ है, तो निश्चित रूप से मैं एक नहीं सैकड़ों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर, योग्य शिष्य होने का गौरव प्राप्त कर लूँगा।”

“वत्स! मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। जाओ! अपने राष्ट्र, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों का मान बढ़ाओ। जाओ, तुम सदा विजयश्री का वरण करोगे।” कहते-कहते भरितकंठ गुरुदेव के कदम अपनी पर्णकुटी की ओर बढ़ गए-जहाँ संध्यावंदन की सामग्री उनकी बाट जोह रहीं थी।

कुछ दिनों के उपरांत अर्जुन देवराज इंद्र के सान्निध्य में पहुँच गए। उस समय देवराज इंद्र सिंहासन पर आसीन थे। उनके समीप देवगण, यक्ष, किन्नर और भूलोक के कई सम्मान्य अतिथिगण भी उपस्थित थे। सभी ओर एक ही फुसफुसाहट हो रही-अब समय आ पहुँचा है परीक्षा का।” देखें, कौन इस परीक्षा में विजयी होकर इंद्र के शिष्यत्व का पात्र बनता है? सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने का अधिकारी कौन होता है?

मुसकराते हुए देवराज का आदेश पाते ही नृत्यायोजन प्रारंभ हुआ। यक्ष, किन्नर और गंधर्व गण सबके सब अपने वाद्ययन्त्रों में तन्मय हो गए। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। वातावरण एक अजीब प्रकार की मादकता से भर गया। वातावरण में माने सम्मोहन छा गया। सभी अपनी सुध-बुध भूल गये। देवराज इंद्र यह सब देखकर मन-ही-मन मुस्करा रहे थे। मुसकराते हुए उन्होंने अर्जुन की ओर दृष्टि घुमाई। अर्जुन आँखें नीची किए विचारमग्न बैठे थे। उन पर मानो इस मादकता का कोई असर नहीं था। उनकी भावमुद्रा देखकर लगता था कि अर्जुन इंद्र सभा में नहीं, निर्जन अरण्य में बैठे हों।

अप्सराएँ आतीं, अपना नृत्य-कौशल दिखलाती और वापस चल देतीं। इसी प्रकार नृत्य चलता रहा और सभासद उस मस्ती में अपने आपको निमग्न करते रहे। तभी एकाएक देवराज की आज्ञा हुई- उर्वशी को बुलाया जाए।”

देखते-ही-देखते स्वर्ग की अद्वितीय सुंदरी सभागृह के मंच पर आयी। अनेक ऋषि-मुनियों और त्यागी तपस्वियों का तप भंग करने का उसे गर्व था, जो बारंबार उसके चेहरे से छलक पड़ता था, देवराज को प्रणाम कर वह नृत्य में लीन हो गई। वह नाचती रही-थिरकती रही, उसका अंग-अंग गतिमान हो उठा। सभा में जादू-सा छा गया। दर्शकगण संज्ञाशून्य से हो गए। देवराज ने फिर अर्जुन की ओर मुँह फेरा। वे तो अभी तक उसी प्रकार बैठे थे, मौन-निर्विकार देवराज ने मन-ही-मन कहा- क्या अर्जुन पर इस मायाजाल का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा। नृत्य चलता रहा, लेकिन अर्जुन ‘जल में कमलवत’ ही बैठे रहे। अचानक न मालूम उन्हें क्या सूझा और उनके नेत्र उठ गए। मुख ऊपर उठते ही उनकी आँखें उर्वशी की आँखों से जा टकराई। फिर झुक गयीं। अर्जुन ने देखा- नृत्य निरत उर्वशी अपलक उन्हें निहार रही है। उस विमुग्धकारी दृष्टि की कल्पना मात्र से ही अर्जुन का शीश अमित श्रद्धा से झुक गया। नेत्र अधमुँदे से हो गए। उधर उर्वशी ने मन-ही-मन सोचा कि चलो मेरा तीर ठीक निशाने पर बैठ गया प्रतीत होता है।

झन-झन-झनन करती पायलें रुक गयीं। वाद्ययंत्र बंद हो गए। सब एकदम चौंक से पड़े, मानो गहन निद्रा से किसी ने उन्हें जगा दिया हो। देवराज इंद्र स्वयं बड़ी देर तक विचार करते रहे। आखिर इस परीक्षा में किसकी विजय हुई-सौंदर्य की या संयम की। पर वह कोई निर्णय नहीं ले पाए। अंततोगत्वा सभा विसर्जित हुई और देवराज इंद्र संयम की जय और सौंदर्य की विजय के ऊहापोह में विचारमग्न हो उठ खड़े हुए।

कुछ समय के उपरांत रात्रि आ पहुँची। पल-क्षण बीतते नीरव रात्रि का दूसरा प्रहर हो आया। अर्जुन अपने शयन-कक्ष में न मालूम किस व्यग्रता में करवटें बदल रहे थे। इतने में कक्ष के मुख्य द्वार पर थपथपाहट हुई। अर्जुन शय्या से उठ खड़े हुए और बोले-कौन

मैं-एक क्षीण, किंतु मृदुमोहक ध्वनि कक्ष के बाह्य भाग में गूँज उठी।

अर्जुन समझ गए कि यह देवी उर्वशी ही है, परंतु मन का कुतूहल छिपाते हुए बोले- “देवी

उर्वशी

“हाँ, वीरवर! उर्वशी

“गहन तिमिराच्छादित नीरव रात्रि में देवी का इस अकिंचन के द्वार पर कष्ट करने का हेतु?”

“प्रथम द्वार तो खोलो, वीरवर! इतने निष्ठुर होकर प्रश्नावलियों की झड़ी मत लगाने लगो।”

ये शब्द कानों में पड़ते ही अर्जुन के मन में संशय की एक लकीर खिंच गयी। मुख पर गंभीरतापूर्ण कठोरता छा गयी और उसने तत्क्षण ही द्वार खोल दिया। उर्वशी ने अंदर आते ही कहा- “वीर श्रेष्ठ, मैं तुम्हें अपना हृदय देने आयी हूँ। इस नीरव किन्तु, सरस रजनी में तुम भी शायद असहमत नहीं हो, क्योंकि इसकी साक्षी तुम्हारे प्रेमविह्वल नेत्रों ने मुझे देव सभा में ही दे दी थी।”

“मैं यह क्या सुन रहा हूँ देवी! यह तुम्हारी भूल है। मैंने तुम्हें नृत्य के समय देखा अवश्य था, लेकिन देवी! यदि तुम अपने हृदय में पवित्रता लिए होती, तो अवश्य ही मेरे मन की शुद्धता एवं पवित्रता को भी देख पातीं।”

“परंतु वीरवर! मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने तुम्हारे इन नेत्रों में प्रेम का अदम्य सागर लहराते देखा था। आप उस समय..........................”

“देवी तुम पुनः गलती पर हो। वह प्रेम न होकर श्रद्धा के उत्कट भाव थे। मैंने तुम्हारी उत्कृष्ट कला की खूब प्रशंसा सुनी थी। अतः कला का पुजारी होने के नाते केवल श्रद्धा-भक्ति से तुम में कला की देवी के दर्शन कर रहा था। तुम्हें ज्ञात है देवी, उस समय मैं क्या सोच रहा था? शायद नहीं। तो सुन लो। देवी! आज तक मैं यही मानता रहा था कि मेरी माता ही संसार में सर्वाधिक सुंदर है। परंतु मैंने सोचा कि काश! मैं तुम्हारी कोख से जन्म लेता तो और भी अधिक सुंदर होता।”

सामने खड़ी उर्वशी सुन रही थी, अपने अतुल सौंदर्य की प्रशंसा। पर अंत के वाक्यों को सुनते ही मानो वह सातवें आसमान से गिर पड़ी। उसका हृदय वेदना और प्रायश्चित की अग्नि में जल उठा। किंकर्तव्यविमूढ़-सी स्थिति में उसके कदम धीरे-धीरे अर्जुन के शयन-कक्ष से दूर हटते गए। उसके कानों में अर्जुन के अंतिम शब्द ही सतत् गूँज रहे थे- “काश! मैं तुम्हारी कोख से जन्म लेता।”


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