पुनर्जन्म को प्रमाणित करती एक सत्य घटना

March 1999

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सूरदास की मन की आँखों के आगे त्रिलोकी के रहस्य खुले पड़े रहते थे। तन के चक्षुओं की निष्क्रियता के बावजूद वह बड़ी आसानी से जागतिक जीवन के सार-असार तत्वों का विश्लेषण कर लेते थे। जिज्ञासाएँ अपने सरलतम रूप से लेकर गंभीर रूप में उनके सम्मुख आती थीं और वह उन्हें दर्पण में बिम्ब के समान सही-सही देख सुलझा देते थे। उनके प्रवचन में ज्ञान बरसता था, वाणी में रस झरता था और छवि में आनंद तरंगित होता था।

शहंशाह शाहजहाँ के दोनों पुत्र औरंगजेब और दाराशिकोह एक दिन ऐसे ही प्रवचन पर्व में जा बैठे। बालक वयमान में अबोध थे, परंतु जिज्ञासा अगाध थी। उनकी पहली जिज्ञासा सुन प्रबुद्ध प्रवचनकर्ता ने कहा-हाँ मानव का पूर्वजन्म होता है।” उन्होंने आगे बताया-मैं और मेरे परिजन सभी पूर्वजन्म के कृत्यानुसार सुख-दुख भोगते हैं।” जिज्ञासु और श्रोताओं ने इसका शास्त्रोक्त प्रमाण माँगा तो संत ने उत्तर दिया, गीता में कहा है- शुचीनां श्रीमतं गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते अर्थात् पवित्र एवं समृद्ध कुल में पूर्व जन्म के भ्रष्ट योगी जन्म लेते हैं और सत्कर्मों को करते हुए, ये आवागमन के चक्र से मुक्त होकर कैवल्य पद पाते हैं।”

स्तन ने इस गूढ़ रहस्य को विस्तार से समझाया तो एक और व्यक्ति ने गहरी जिज्ञासा से सिर उठाया, “पूर्वजन्म के कर्मों का ज्ञान मानव को कैसे हो?” “इसका उत्तर तो कोई विद्वान ज्योतिषाचार्य ही दे सकता है, क्योंकि मानव की जन्मकुण्डली उसके पूर्व जन्म का लेखा-जोखा है। विद्वान ज्योतिषी जन्मकुण्डली के पंचम व नवम् भाव को देखकर मानव के पूर्वजन्मों के कर्मों को देख लेता है और बता सकता है कि उसे किस देवता की उपासना करनी चाहिए जिससे उसके

पापों का क्षय हो सके।”

जिज्ञासु संतुष्ट था, पर जिज्ञासा का अंत नहीं था। उसने फिर जिज्ञासा की- “क्या व्यक्ति अपना पूर्वजन्म देख सकता है? यदि हाँ तो कैसे?” “कोई भी व्यक्ति यदि ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नानादि से पवित्र होकर आज्ञाचक्र में दोनों भौंहों के मध्य दृष्टि केन्द्रित करके आधा घंटा ध्यान करे तथा फिर संपुटित महामृत्युञ्जय मंत्र का ध्यानयुक्त जप एक वर्ष नियमित रूप से करे तो भयंकरतम रोग तो नष्ट होते ही हैं, साथ ही पूर्वजन्म भी दिख जाता है और मानव की ऋतम्भरा प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है।”

“कुछ व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृतियाँ रहती हैं, इसका क्या कारण है?” “हाँ लाखों में से किसी एक को पूर्वजन्म की उपासना के कारण पूर्वजन्म की स्मृति रह जाती है।”

इस पर औरंगजेब तमककर बोला “हमारी शरीर में तो पूर्वजन्म का नामोनिशान नहीं है। तुम्हारी यह बकवास सर्वथा बेबुनियाद है।”

दाराशिकोह संत की वाणी में समाए ज्ञानरस में भीगता जा रहा था। उसे औरंगजेब का व्यवहार दुष्टतापूर्ण लगा। इसी वजह से उसने अपने इस छोटे भाई को समझाने की कोशिश की, पर यह कोशिश औरंगजेब के हठ के कारण कलह में बदल गयी। दोनों लड़ते-झगड़ते अपने पिता शाहजहाँ के पास पहुँचे। औरंगजेब को समझाना शाहजहाँ के भी वश का नहीं था और अब तो उसने हठ पकड़ ली थी कि उस अंधे संत को बुलवाया जाए और वही सिद्ध कर बताए कि क्या पुनर्जन्म वास्तव में होता है।

शाहजहाँ के मन में भी उत्सुकता थी। अतः संत को सम्मान सहित बुलवाया गया। शाहजहाँ ने बालक औरंगजेब की जिज्ञासा उनके सामने रखते हुए कहा, “यह बालकों का झगड़ा तो आपको निपटाना ही होगा।” शाहजहाँ के स्वर में आदेश नहीं मनुहार थी।

“अच्छा तो फिर आपके महल की सभी स्त्रियों, दास-दासियों को कहिए कि वे एक-एक करके मेरे सामने कुछ बोलकर जाएँ।

शाहजहाँ ने सबको बुलाकर कतार में खड़ा कर दिया और हुक्म दिया कि वे एक-एक करके आएँ और संत बाबा से सलाम कहकर इनके सामने से जाएँ। सबने आज्ञा मानी और जब सबसे अंत में जहाँआरा आई तथा उसने ज्यों ही ‘संत बाबा सलाम’ कहा तो अंधे संत ने कहा, “ललिता तोहे पूछत शाहजहाँ।” तो जहाँआरा के मुख से निकला, “उद्धव तुम हो, कृष्ण कहा?” और वह मूर्च्छित हो गयी।

एक-दूसरे ने एक-दूसरे के पूर्वजन्म कह सुनाया। संत ने शाहजहाँ को बताया कि ”पूर्वजन्म में यह कृष्ण सखी ललिता थी और मैं कृष्ण सखा उद्धव। संत ने शहंशाह को यह भी बताया कि इस जन्म में भी यह कन्या धार्मिक होगी, तुम्हारी बहुत सेवा करेगी और जब मृत्यु आएगी तो इसके हृदय पर धर्मग्रन्थ होगा तथा इसी जन्म में मोक्ष पा जाएगी।” संत सूरदास के इस प्रामाणिक कथन पर शाहजहाँ के परिवार को मानना पड़ा कि पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म आश्चर्यजनक लगते हुए भी पूर्णतया सत्य हैं।


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