बुद्धिमानो! बुद्धि का सदुपयोग करो

March 1999

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इस माह से यह विशिष्ट सामग्री देने का क्रम आरंभ किया जा रहा है। इसमें परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा आज से पचास वर्ष पूर्व संपादकीय के रूप में लिखें अमृत वचनों को उद्धत किया जाएगा। पृष्ठ सीमा के कारण अभी यह पठन सामग्री मात्र एक पृष्ठ की होगी। इस माह, मार्च 1949 के संपादकीय से लिया गया यह अंश यहाँ प्रस्तुत है।

हर आदमी विद्या-बुद्धि की शक्ति से सम्पन्न नहीं होता। किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान सम्पदा मिलती है। सृष्टि में चौरासी लाख प्रकार के जीव-जन्तु, कीट-पतंग पशु-पक्षी बताये जाते हैं। इनमें नाममात्र की बुद्धि होती है, उसके सहारे वे बेचारे मुश्किल से अपनी जीवन यात्रा पूरी कर पाते हैं। उनका बुद्धिबल इतना कम होता है कि कई बार तो उन बेचारों को छोटी-छोटी अड़चनों के कारण अपने प्राण तक गँवाने पड़ते हैं और आये दिन तरह-तरह के दुख भोगने पड़ते हैं। यदि उनकी बुद्धि थोड़ी अधिक विकसित रही होती, तो भी मनुष्य की भाँति सुखी और समृद्ध रहे होते। परंतु कर्म की गति गहन होने के कारण उन्हें वह साधन प्राप्त नहीं हैं, फलस्वरूप मनुष्य की अपेक्षा कई दृष्टियों से अधिक सक्षम होते हुए भी जैसे-तैसे जीवन का भार ढो रहे हैं।

मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता, कच्छ-मच्छ की तरह जल में किलोल नहीं सकता, हिरन और घोड़े की बराबर बोझ नहीं ले जा सकता। हाथी के बराबर बोझ नहीं ले जा सकता। सिंह-व्याघ्र जैसा बलवान नहीं, भेड़-बकरी की तरह शाक–पात खाकर गुजारा नहीं कर सकता। ऊँट की तरह कई दिन बिना खाये-पिये नहीं गुजार सकता। सर्प की तरह सैकड़ों वर्ष जी नहीं सकता, जुगनू की तरह चमक नहीं सकता। मोर-सा सुन्दर नहीं, बन्दर-सी छलाँग नहीं मार सकता, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकता। इतना निर्बल-पिछड़ा होते हुए भी वह अन्य समस्त जीव -जंतुओं से आगे बढ़ा हुआ है सृष्टि का मुकुटमणि है, सबका नेता तथा स्वामी है। इतनी बड़ी सफलता का एक ही कारण है-उसका बुद्धिबल ने ही उसे एक साधारण प्राणी से महान मानव बना दिया है।

नीति का वचन है कि ”बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धस्य कुतोबलम्” जिसमें बुद्धि है, उसमें बल है, निर्बुद्धि में बल कहाँ से आया? जो जितना ही बुद्धिमान है, वह उतना ही बलवान है। इसी की न्यूनाधिकता के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर दिखाई देता है। जिसमें जितना बुद्धितत्त्व अधिक है, वह उतना ही बड़ा आदमी बन जाता है। बहुत-थोड़े मनुष्य इस संसार में ऐसे हैं, जिनको विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, जो दूर की सोचते हैं, जिनका विवेक परिमार्जित है, जो बहुश्रुत हैं, जिनने विशाल अध्ययन किया है एवं जो असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं।

ज्ञान परमात्मा की अमानत है, धरोहर है। वह इसलिए दी गई है कि इस वह परमात्मा की इच्छानुसार, उसके बताये हुए प्रयोजनों में खर्च करे। बुद्धिमानों का परम पवित्र उत्तरदायित्व यह है कि वे अपने बुद्धिबल को जनकल्याण में लगायें। ठाट-बाट जमाने और गुलछर्रे उड़ाने में बुद्धि का उपयोग करने की बात सोचना उचित नहीं। एक राजा अपने नौकरों को नियत मात्रा में वेतन देता है, जिससे वे अपना गुजारा कर सकें, परंतु किसी विशेष को वह विश्वासपात्र समझकर उसे खजांची नियुक्त करता है और उसके पास बड़ी-बड़ी रकम जमा करता है। ये रकम इसलिये खजांची को दो जाती हैं कि वह उन्हें सुरक्षित रखें और सिर्फ उन कामों में खर्च करे, जिनके लिए राजा आज्ञा दे, राज का हित हो। यदि वह मनमाने उपयोग की बात सोचने लगा तो अनुचित होगा, उसे दंड मिलेगा। यदि खजांची को मौज-मजा करने के लिए धन राजा ने दिया होता तो इसी प्रकार दिनभर परिश्रम करने वाले अन्य कर्मचारियों को भी उतना ही धन क्यों नहीं दिया। यदि नहीं दिया तो राजा को पक्षपाती ठहराया जाएगा। यही बात परमात्मा के बारे में कही जा सकती है। उस के सभी पुत्र समान हैं, वह समदर्शी है, निष्पक्ष है। बड़ा उत्तरदायित्व मिलना किसी की योग्यता-श्रेष्ठता का सर्वोपरि प्रमाण है। जिम्मेदारी हर किसी के ऊपर नहीं डाली जाती। जो उसके अधिकारी है, उन्हें ही वह गौरव दिया जाता है। यह गौरव इतना बड़ा आनंद है कि उसकी तुलना इंद्रियों की क्षणिक खुजली मिटाने के-भोग भोगने के सुख से किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। महानता का गौरव प्राप्त करना एक आनंद है और वह इतना उत्तम, इतना उच्चकोटि का आनंद है कि उसके लिए इन्द्रियों के भोग और लोभ की तृष्णा को तिलाञ्जलि दी जा सकती है। बड़प्पन एक श्रेष्ठ आनंद है, पर वह आनंद यों ही नहीं मिल जाता। उसको प्राप्त करने वाले को त्याग करना पड़ता है, तप करना पड़ता है और तुच्छता से ऊपर उठना पड़ता है।


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