आध्यात्मिक विकासवाद ही देता है अन्ततः समाधान

March 1999

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इन दिनों मानवी-मूल्यों और आदर्शों में इतनी गिरावट आई है कि जो समाज-व्यवस्था कभी नैतिक की सुदृढ़ नींव पर टिकी थी, वह पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई। न कहीं सुख-चैन रहा, न शाँति की शीतल छाया। मारकाट से लेकर अपहरण-अत्याचार तक की विद्रूपता समाज में इस कदर छायी हुई है, मानो यह सब जीवन के सामान्य प्रसंग हो। बेईमानी को देखकर ऐसा लगता है, जैसे ईमानदारी अप्रासंगिक हो गई हो। ऐसे में मनुष्य को ‘मनुष्य’ कहने में संकोच होता है। उसे नरपशु कहना चाहिए। यदि वह इतना पतित हो चुका है, तो उसका अभ्युत्थान सर्वोच्च शिखर तक कैसे हो? इस दिशा में विज्ञान और दर्शन दोनों ही अपने-अपने ढंग के प्रयास कर रहे हैं। देखना यह है कि इनमें सबसे सर्वसुलभ, समयानुकूल, सरल और व्यावहारिक कौन है? पहले विज्ञान पक्ष को लें। वैज्ञानिक इस संदर्भ में अत्यंत आशावान् स्तर का बनाया जा सकना संभव है। उनकी चिंतन- परिधि चूँकि स्थूलशरीर तक सीमित है, इसलिए वे इसी में सुधार-संशोधन कर मनुष्य को श्रेष्ठ और संस्कारवान बनाने की बात सोचते हैं। विज्ञान की अवधारणा में मनुष्य के संस्कार कोष उसके ‘जीन’ हैं। इसी के गर्भ में इसकी समस्त अच्छाइयाँ और बुराइयाँ छुपी हुई होती है। यदि वह अपराधी, हत्यारा, चोर-डकैत क्रूर-कठोर है, तो इसके लिए इसका जीन जिम्मेदार है और यदि वह संत हृदय जैसा सरल, शिष्ट और सदाचारी है, तो इसके पीछे भी उसी ‘जीन’ की भूमिका है। चाहे वंशानुगत रोग हो या त्वचा की स्निग्धता, बालों का रंग हो या स्वभाव का चंचलता- सभी के लिए वह समान रूप से उत्तरदायी है-यहाँ शरीर-शास्त्रियों का कहना है कि यदि ऐसा है, तो उक्त विकृति (जन) को निकालकर अथवा नवीन श्रेष्ठ जीन प्रत्यारोपित कर व्यक्ति के स्वभाव और संस्कार को उदात्त बनाया जा सकता है। इसके लिए यूजेनिक्स (सुजनन विज्ञान) एवं जीन अभियांत्रिकी जैसी शरीरविज्ञान की कितनी ही शाखाएँ सक्रिय हैं। वर्षों पूर्व मूर्धन्य मनीषी विलियम शोकले ने सुझाव दिया था कि मंद मति लोगों को प्रजनन न करने के लिए सहमत किया जाए और इसका उन्हें भत्ता दिया जाए। विगत बरस चीन की सरकार ने भी घटिया प्रजनन रोकने संबंधित अपने नीति-नियमों की घोषणा कर आगामी पीढ़ी को अधिक समुन्नत और प्रतिभासम्पन्न बनाने का संकेत दिया है। महामानवों की यह नई प्रजाति विकसित करने की दिशा में वहाँ की सरकार ने जो उपाय अपनाये हैं, उसके अंतर्गत गर्भवती महिलाओं का परीक्षण कर यह सुनिश्चित किया जाएगा कि गर्भ में पलने वाला भ्रूण स्वस्थ है या नहीं? यदि उसमें तनिक भी आनुवंशिक असामान्यता पायी गई, तो माता को गर्भपात कराना पड़ेगा। उसी प्रकार आनुवांशिकीय कमी वाले पुरुषों को प्रजनन की अनुमति नहीं दी जाएगी। साम्यवादी व्यवस्था की स्पष्ट झलक उसकी इस नीति में दृष्टिगोचर होती है। इसकी तुलना में सिंगापुर ने अधिक उदारवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए शोकले के सुझाव का अनुसरण किया है और साम्यवादी कठोरता लागू करने की अपेक्षा पूँजीवादी प्रोत्साहन के माध्यम से इसके क्रियान्वयन का प्रयास किया है। यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि नियंत्रण का तरीका क्या हो?मुख्य प्रश्न यह है कि पूरे राष्ट्र में गर्भपात की व्यवस्था कैसे हो? कोई भी माँ निजीतौर पर यह परेशानी मोल लेना नहीं चाहेगी कि वह अपने स्तर पर अपनी रुची से ऐसा करे। किसी को इतनी झंझट उठाने से क्या लाभ? फिर भ्रूण में यदि कोई दोष हुआ, तो उसे गिराकर स्वास्थ्य-संकट जैसी विपत्ति झेलना कौन पसंद करेगी? गाँव-गाँव और शहर-शहर में एक-एक महिला पर निगरानी रखना और उन्हें इसके लिए बाध्य या प्रेरित करना- यह बहुत ही कठिन कार्य है। तो भी यदि मान लें कि किसी प्रणाली द्वारा इसे संभव बना लिया जाता है, तो क्या यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण नहीं हुआ? इसको किसी के मौलिक अधिकारों से वंचित करना नहीं कहेंगे? अब जबकि संसार में लोकतंत्र की-मूलभूत अधिकारों की माँग की हवा बह रही है, तो इस स्थिति में ऐसी पाबन्दी लगा पाना असंभव है। तानाशाही और साम्यवाद का जमाना लद गया, जब व्यक्ति बलपूर्वक कुछ करने या नहीं करने के लिए विवश था। अब समान अधिकारों की माँग हर वर्ग, लिंग और क्षेत्र से उठ रही है। ऐसे में किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप अनुचित और अनैतिक ही कहलायेगा। कुछ देश इस तरह के प्रयास भले ही करते रहें, पर वे इसमें सफल ही होंगे-इसकी क्या गारण्टी है? भत्ते के रूप में प्रजनन अधिकार को खरीदना भी एक प्रकार से उसके नितांत निजी मामले में राष्ट्रीय अतिक्रमण ही है।

इसके विपरीत दोष यदि विकलांगता के रूप में शारीरिक है, तो इसके लिए शरीर वेत्ता मनुष्य को जिम्मेदार ठहराते और कहते हैं कि भ्रूणहत्या इसका विकल्प नहीं हो सकता, कारण कि रहन-सहन खान-पान और चिंतन इसका कारण है। जब तक अपनी इन आदतों में व्यक्ति सुधार-संशोधन नहीं कर लेता, तब तक मूल समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। चिकित्साविज्ञानी बताते हैं कि गर्भकाल में आहार-विहार यदि शुद्ध-पवित्र नहीं हुआ, तो गर्भस्थ शिशु पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता और बाद में अपंगता के रूप में सामने आता है। अनेक अवसरों पर ऐसा पाया गया है कि भ्रूण को पोषण देने अथवा प्रसव के स्वास्थ्य-संवर्द्धन हेतु जब आवश्यकता से अधिक दवाओं का सेवन किया जाता है, तो उसका दुष्परिणाम गर्भ में पल रहे बालक पर कायिक विकृति के रूप में प्रकट होता है। ऐसे ही उस दौरान यदि रहन-सहन में सावधानी बरती नहीं गई, तो उसका भी नतीजा वाँछनीय नहीं होता। गर्भिणी के आस-पास का वातावरण यदि स्वास्थ्य के प्रतिकूल हुआ, तो वहाँ स्वस्थ शिशु के प्रसव की उम्मीद नहीं की जा सकती। हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिराये जाने के बहुत वर्ष बाद तक बच्चे लूले-लँगड़े पैदा होते रहे। इससे यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि बाह्य वातावरण का गर्भस्थ बालक पर कितना अवांछनीय असर पड़ता है। चिंतन की समर्थता जब शरीर की स्वस्थता-अस्वस्थता को प्रभावित कर सकती है, तो उदरदरी में विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले कोमल माँस पिण्ड पर उसका कितना घातक असर होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। इसलिए इस संदर्भ में गर्भपात की नहीं, चिंतन, वातावरण और आदत में परिवर्तन-परिष्कार की आवश्यकता है। इतना यदि हो सका, तो विज्ञान द्वारा मनुष्य की एक सुविकसित प्रजाति के निर्माण का एक पहलू पूरा हो जाता है, कारण कि विज्ञान की अवधारण का ‘सुपरमैन’ हर दृष्टि से स्वस्थ, सुंदर और सुगठित होना चाहिए, जबकि अध्यात्म तत्त्वज्ञान में इसके लिए अंतरंग पक्ष को महत्त्वपूर्ण माना गया है।

इसका दूसरा पहलू जीन अभियांत्रिकी से संबंधित है। काया यदि सुंदर और सुडौल बना ली गई। पर गुण, कर्म, स्वभाव उसके अनुकूल न हुए, तो इसे एकांगी और अधूरा प्रयास ही कहेंगे। देह-लालित्य का महत्त्व तब है, जब उसके साथ चित्ताकर्षक आचरण भी जुड़ा हुआ हो, अन्यथा रंग बिरंगे मोहक सर्प की समीपता शायद वही पसंद करे, जिसे अपनी जान प्यारी न हो। ‘जीन इंजीनियरिंग इस अंतरंग पहलू को ही सुधारने-सँवारने का नाम है। इसमें दोषपूर्ण जीन को काट-छाँटकर व्यक्तित्व के घटियापन को बढ़िया बनाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति नृशंस है, तो इसके लिए निश्चित रूप से कोई-न-कोई ‘जीन’ जिम्मेदार होगा, जो उसे बार-बार क्रूरता बरतने के लिए प्रेरित करता है। उक्त विज्ञान द्वारा इसकी पहचान कर उसे निकाल दिया जाता है। यह वैसा ही हुआ, जैसा विषधर को निर्विषय करना। इस स्थिति में सर्प का बाहरी आकर्षण उसके भीतरी स्वभाव से पूरी वह मेल खाता है, अतः इसे वाँछनीय कहेंगे। व्यक्ति में इस प्रकार के कितने ही दोष-दुर्गुण हो सकते हैं, जिनसे संबद्ध जीन की कटाई-छँटाई करनी पड़ती है, पर इस प्रक्रिया में अनेक कठिनाइयाँ हैं। सिद्धांत रूप में यह प्रणाली जितनी सरल लगती है, उतनी वस्तुतः है नहीं। प्रथम तो सैकड़ों जीन में से दोषयुक्त की पहचान करना न सिर्फ श्रमसाध्य है, वरन् समयसाध्य भी। दूसरे, जटिल प्रक्रिया होने के कारण यह इतनी खर्चीली होगी कि उसका भार वहन कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं। तीसरे, यह उच्च एवं नवीनतम तकनीक है, अतः सर्वत्र सुलभ नहीं होगी। इसके अतिरिक्त इसमें एक और बड़ा अवरोध है, वह यह कि यह निर्णय कौन करेगा कि कौन-से गुण वाँछनीय हैं और कौन अवांछनीय। यह फैसला यदि प्रयोक्ता के ऊपर छोड़ दिया गया, तो वह भी अपने निजी मानदंड और मनःस्थिति के अनुसार ही इसका चयन करेगा। वह उदात्त अंतराल वाला हुआ, तो वैसे ही संस्कार कोष उसमें डालना चाहेगा तथा बुरों को निकालना चाहेगा। इसके विपरीत हेय अंतःकरण अपनी ही एक अन्य अनुकृति गढ़ना चाहेगा। फिर गुण-दोष के बीच कोई स्पष्ट सीमा-रेखा भी नहीं। वे सापेक्षिक स्थितियाँ हैं। यह आवश्यक नहीं कि जो विशिष्टता किसी को गुण प्रतीत हो रही हो, उसे दूसरे भी पसंद करें-गुण समझें। चोर, डकैत, धूर्त, ठग आदि को अपने दुर्गुण कभी दोष प्रतीत नहीं होते। वे चाहेंगे कि उनमें कोई ऐसा बीज कोष डाल दिया जाए, जिससे अपने-अपने क्षेत्र और अपनी-अपनी विधा में और निष्णात हो जाएँ। ऐसे में जो अतिमानव निर्मित होगा, वह कदाचित महर्षि अरविंद की अवधारण वाला ‘सुपरमैन’ न होकर नीत्से का ‘सुपरमैन’ हो जाए। इस प्रकार सम्पूर्ण मनुष्यजाति को महामानव बनाने की विज्ञान की आकांक्षा पूरी न हो सकेगी।

कितने ही विशेषज्ञ इसकी तुलना में उत्तम प्रजाति और उत्तम गुणों वाले नर-नारी का पारस्परिक समागम की वकालत करते और कहते हैं कि इससे उपर्युक्त लक्ष्य को प्राप्त करना आसान होगा। किंतु यहाँ भी कम बाधाएँ नहीं हैं। यह मिलन भले ही रज-वीर्य के रूप में परोक्ष रूप से परखनली में हो, फिर भी हर समाज और संस्कृति के लोग इसे स्वीकार कर सकेंगे- इसमें संदेह है। यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न नैतिकता संबंधी उठ खड़ा होगा। क्या ऐसी संतान नैतिक कही जा सकेगी? समाज उसे मान्यता प्रदान करेगा? इसके अतिरिक्त दो सर्वथा भिन्न समाज, संप्रदाय अथवा वर्ग के अनुयायी उसके माता-पिता उस बालक को भावनात्मक पोषण किस प्रकार दे सकेंगे? क्या माता का सामीप्य एवं स्नेह तथा पिता की छत्र-छाया न मिल पाने के कारण शिशु का वैसा विकास हो सकेगा, जैसा अभीष्ट है? व्यक्तित्व का एक पहलू यदि रज-वीर्य से जुड़ा है, तो दूसरा अधिक महत्वपूर्ण पक्ष माता-पिता का प्यार-दुलार एवं निकटता है। वह न मिल सका, तो जिस प्रकार खाद-पानी के अभाव में अच्छे बीज भी भली प्रकार नहीं पनप पाते और अच्छी फसल नहीं दे पाते, वैसी ही स्थिति ऐसे बालकों के व्यक्तित्व में भी परिलक्षित होगी।

मनुष्य के साथ यहाँ एक और कठिनाई यह है कि दो श्रेष्ठ गुणों वाले नर-नारी के संयोग से उत्पन्न बालक श्रेष्ठ ही होगा- यह आवश्यक नहीं। यह ठीक है कि गधे और घोड़े के मिलन से भार-वहन में अधिक समर्थ खच्चर पैदा होता है, पर आनुवांशिकी के ‘प्रभाविता का नियम’ (ला ऑफ डोमिनेन्स) के अनुसार माता-पिता के किन्हीं विशिष्ट गुणों को दृष्टिगत रखकर यदि ऐसा किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वे गुण संतति में प्रकट ही हो जाएँ। वह उसमें अप्रभावित और अप्रकट स्थिति में भी बने रह सकते हैं। यह भी संभव है कि जो लक्षण माता-पिता में लेशमात्र भी नहीं, वह अभिव्यक्त हो जाएँ। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि मंदबुद्धि पिता से सदा वैसी ही संतति पैदा होगी। ऐसे ही खूबसूरत माँ से बदसूरत संतान भी पैदा हो सकती है, ऐसा प्रजनन-विज्ञान के आचार्यों का कथन है।

जॉर्ज बर्नार्डशा के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार उनके निकट एक रूपवती महिला विवाह प्रस्ताव लेकर आई और कहने लगी कि हमें आप जैसा एक बुद्धिमान पुत्र चाहिए, जो हमारी तरह सौंदर्य संपन्न हो। बर्नार्डशा कुरूप थे। उन्होंने विनोद करते हुए कहा- कहीं उलटा हो गया तो? अर्थात् तुम्हारी बुद्धि और हमारा सौंदर्य उसे मिला, तो क्या तुम उसको उतना ही प्यार दे सकोगी? महिला बिना कुछ कहे वापस लौ गई।

उक्त प्रसंग कितना सच है, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर उसमें जिस संभावना की चर्चा है, वह जेनेटिक के नियमों के अनुसार शत-प्रतिशत संभव है। इसलिए विज्ञान द्वारा महामानव निर्माण की प्रक्रिया दुरूह ही नहीं, असंभव और अव्यावहारिक भी है।

अध्यात्म-दर्शन काया की तुलना में चेतना को प्रधानता देता है और उसके परिष्कार द्वारा महामानव के विकास की बात कहता है। भौतिक शास्त्र पदार्थसत्ता का अनुसंधान-अन्वेषण करने वाला जड़ विज्ञान है और इस संसार को उसका जखीरा भर मानता है, जबकि दर्शन पदार्थसत्ता का आदिकारण चेतना को बताता और यह स्वीकारता है कि उसमें जो स्पंदन और ऊर्जा है, उसका मूल स्रोत वही है। मनुष्य के संदर्भ में उसके गुण, कर्म, स्वभाव का आधार और स्तर भी उसी को माना गया है, इसलिए व्यक्तित्व निर्माण का वास्तविक शुभारंभ वहीं से होना चाहिए, ऐसा उसका मत है। यह बात तब और स्पष्ट हो जाती है, जब हम मानवी विकास पर गहराई से चिंतन करते हैं। स्कूल-कालेजों में पढ़ाया जाने वाला विकासवाद शारीरिक विकासयात्रा की व्याख्या-विवेचना भर करता और यह बताता है कि उसका वर्तमान स्वरूप इस स्तर तक किस प्रकार विकसित हुआ। आदमी के संबंध में उसकी मान्यता है कि उसका वर्तमान शरीर चिंपांजी अथवा गोरिल्ला प्रभृति प्राणियों से विकसित हुआ है। इसका प्रमाण वह क्रोमैग्नन, नीण्डरथल आस्ट्रेलो-पिथैकस एपमैन जैसी कितनी ही आदिमानव प्रजातियों की श्रृंखलाबद्ध कड़ियों द्वारा जोड़-तोड़कर देता है और कहता है कि वर्तमान मनुष्य का इसी प्रकार क्रमिक विकास हुआ। जहाँ कोई कड़ी नहीं मिलती, उसकी व्याख्या के लिए नवीन सिद्धांत गढ़ देता है। इस प्रकार उसने मानव की एक सुसम्बद्ध विकासवादी श्रृंखला बनाकर तैयार कर दी। उल्लेखनीय है कि यह उसकी शारीरिक विकास-यात्रा है।

दर्शन चेतनात्मक विकास की बात करता है। उसका कहना है कि चेतना के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ जीव-चेतना का देह-परिवर्तन या योनि-परिवर्तन होने लगता है अर्थात् यदि कोई कीटक है, तो उसकी चेतना के तनिक उच्चस्तरीय हो जाने के बाद संभव है, अगली बार उसे कुछ उच्चतर छिपकली की देह प्राप्त हो जाए। उसमें आगे और प्रगति होने पर मुर्गा, मुर्गा से कुत्ता, कुत्ते से घोड़ा, घोड़ा से हाथी, हाथी से गाय, गाय से गोरिल्ला और फिर मनुष्य की काया मिले। तत्त्वज्ञानी कहते है कि जीव विकास क्रम में चेतना उन्नत होते हुए जिस-जिस देह-स्तर को प्राप्त करती चलती है, उसे वही-वही योनि मिलती जाती है। इस विकास-यात्रा के अन्त में जब उसे मानव-शरीर मिलता है, तो उसमें पिछले समस्त जन्मों के लक्षण, आदत, अभिरुचि और प्रवृत्तियाँ संस्कार के रूप में संचित होती हैं। यह संस्कार समय-समय पर मानवी विचार-व्यवहार में प्रकट भी होते रहते हैं। इनमें से अधिकाँश ऐसे होते हैं, जिन्हें पाशविक कहना चाहिए, कारण कि वे सभी निम्न योनि वाले जीवों से आते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति बात-बात पर आगबबूला हो उठता है, तो ऐसा कहा जा सकता है कि उसमें सर्पयोनि के संस्कार अधिक प्रभावी हैं। कोब्रा, करैत जैसे विषधर तनिक-से खटके से भी फन फैलाकर आक्रमण की मुद्रा में आ जाते हैं और यदि ऐसे समय अनजाने में भी कोई उनके निकट आ जाए तो वे डसने से नहीं चूकते। ऐसे ही यदि किसी में भय का भूत बढ़े-चढ़े परिमाण में है, तो चेतना विज्ञानी यही कहते हैं कि उसमें शुतुरमुर्ग जैसे किसी डरपोक प्राणी के संस्कार हैं।

शरीर विज्ञानी इसकी व्याख्या शरीरस्तर पर करते और कहते हैं कि इसके लिए मस्तिष्क का एनीमल ब्रेन (रेप्टिलियन ब्रेन) जिम्मेदार है, जिसमें पूर्व संचित पशु-प्रवृत्तियाँ एवं कुसंस्कार छाये रहते हैं। दर्द, भय, भूख, क्रोध, आक्रमण आदि के केन्द्र इसी में हैं। किन्हीं बाह्य उद्दीपनों के प्रभाव में आकर जब ये केन्द्र उत्तेजित होते हैं, तो मस्तिष्क में कुछ विशिष्ट प्रकार के रसायनों की प्रतिक्रिया स्वरूप भिन्न-भिन्न मनोदशाएँ पैदा होने लगती हैं। उदाहरण के लिए, जब बाह्य कारकों के प्रभाव से मस्तिष्क का हाइपोजैन्थिन ट्रांसफरेज एंजाइम का रस स्राव रुक जाता है या कम पड़ जाता है, तो यह स्थिति यूरिक एसिड पैदा करने लगती है, जो क्रोध, आक्रमण जैसी मनःस्थिति के लिए उत्तरदायी है। इसी प्रकार मस्तिष्क में जब मोनो अमीन ऑक्सीडेज एन्ज़ाइम (माओ) का रस स्राव बढ़ जाता है, तो भय, बेचैनी, तनाव जैसी अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं। शरीरवेत्ताओं के उक्त तर्क यदि कुछ क्षण के लिए मान भी लें, तो आगे यह प्रश्न पैदा होगा कि उन्हें नियंत्रित कैसे किया जाए? वैज्ञानिक इसका कोई समुचित उत्तर दे पाने में असमर्थ हैं। इसका हल मनोविज्ञान देता है।

मनोविज्ञान चेतना विज्ञान के निकट का शास्त्र है। वह रोगों का समाधान काया में न ढूँढ़कर मानवी मन की गहराइयों में तलाशता है, फलतः उसे घटाने-मिटाने में सफल भी होता है। चिकित्साविज्ञान भी अब मनःकायिक रोगों की वकालत कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है। उसके अनुसार रोग पहले मन में पनपते हैं, फिर शरीर में उभरते हैं। यही कारण है कि पश्चिमी देशों में अब किसी भी शरीरगत व्याधि के उपचार से पूर्व रोगी का गहन मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है, ताकि रोग का सही-सही निदान और निराकरण किया जा सके।

अस्तु, अध्यात्म दर्शन की यह मान्यता ठीक ही है कि आदतों, आकांक्षाओं, भावनाओं, प्रवृत्तियों को शोधन-सुधारने के लिए चेतनास्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। उसी की अभिव्यक्ति मनुष्य जीवन में चरित्र, चिंतन, व्यवहार के रूप में होती है। यदि वह श्रेष्ठ और समुन्नत स्तर की हुई, तो मानव के महामानव बनते देर न लगेगी। जप, तप, व्रत, अनुष्ठान का विधान और विज्ञान इसी निमित्त विनिर्मित है, जो कषाय-कल्मषों को गला-जलाकर समाप्त करता और चेतना एवं साथ-साथ मनुष्य को अधिक प्रखर एवं पवित्र बनाता है। यह शुचिता और श्रेष्ठता ही महान बनने की प्रथम तथा अंतिम शर्त है। चूँकि उक्त राजमार्ग सभी के लिए समान रूप से खुला हुआ एवं अधिक व्यावहारिक तथा अपेक्षाकृत सुगम है, अतएव वर्तमान समय के लिए महामानव गढ़ने-ढालने का यही एकमात्र विकल्प हो सकता है- ऐसा मनीषियों का कथन है।


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