प्रार्थना एक विनम्र पुरुषार्थ

March 1999

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चिकित्साशास्त्र पर नोबुल पुरस्कार विजेता, फ्राँस के लियोविश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. एलेक्सिस कैरेल ने जटिल-से-जटिल रोगों का उपचार कर दिखाया है। उन्होंने चिकित्साविज्ञान को अपनी प्रतिभा द्वारा कई महत्वपूर्ण अवदानों से भी संपन्न बनाया। जिन रोगों का उपचार तो दूर, निदान करना भी बड़े-बड़े डॉक्टरों के वश में नहीं था, डॉ. कैरेल ने उनके अचूक इलाज और कारगर औषधियाँ खोज निकाली। उनसे जब इस सफलता का रहस्य पूछा गया तो वे बोले, “आम लोगों की तरह में भी एक साधारण मनुष्य हूँ और उनसे अधिक मेरी कोई सामर्थ्य भी नहीं है। मुझे जो सफलताएँ प्राप्त करने का श्रेय मिला है, वे मेरे पुरुषार्थ का कम, परमेश्वर के दिव्यसहयोग का प्रतिफल अधिक है।

प्रार्थना सभी करते हैं। उसमें ईश्वर से कुछ माँगते और याचना भी करते हैं, परंतु देखा जाता है कि किन्हीं लोगों की प्रार्थना अथवा याचना फलीभूत होती है और किन्हीं को सर्वथा निराश ही होना पड़ता है। डॉ. कैरेल जिस किसी भी रोगी का उपचार करते, उससे कहते थे, प्रार्थना करो, सच्चे मन से प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए पश्चात्ताप और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रतिज्ञा के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो वह जरूर सुनी जाएगी। सच्चा इलाज तो प्रार्थना है और जो सच्चे हृदय से प्रार्थना करेगा वह शारीरिक ही नहीं, आँतरिक रोगों से भी छुटकारा पा जाएगा।

वस्तुतः प्रार्थना फलित होती ही तब है जब वह सच्चे मन से की जाए। उसके लिए हृदय में सच्ची माँग उत्पन्न की जाए, क्योंकि प्रार्थना में अवलम्बन तो ईश्वर का ही लिया जाता है, पर वह ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्वव्यापी और परमकारुणिक सत्ता है। उसे हर किसी की इच्छा और आवश्यकता का ज्ञान है तथा वह उपयोगी और लाभदायक इच्छाओं की पूर्ति भी करना चाहता है, परंतु इच्छा मात्र से कुछ नहीं होता। उसके लिए पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। जन्म देने और पालन करने वाला पिता भी अपनी संतान के प्रति सभी जिम्मेदारियाँ तब तक निभाता है, जब तक कि वह अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य नहीं हो जाता। आत्मनिर्भर होने के बाद वह उन्हीं कार्यों में योगदान देता है, जो पुत्र के वश की बात नहीं है और पिता अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें पूरा करा सकता है।

पुरुषार्थहीन प्रार्थना तो याचना ही कही जाएगी और याचना अपने आप में हेय है, क्योंकि दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसके साथ जुड़ी हुई है, जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती है। हाथ चाहे किसी व्यक्ति के सामने पसारा जाए अथवा भगवान के सामने झोली फैलाई जाए, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। बात एक ही है। चोरी चाहे किसी मनुष्य के घर में की जाए अथवा भगवान के मन्दिर में, चोरी तो चोरी है, बुराई है और बुराई हर स्थान पर बुराई ही रहेगी।

जिस प्रार्थना को सच्ची प्रार्थना कहा जा सकता है, उसका अर्थ अपनी आत्मा को परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह अपने में ऐसी पात्रता विकसित करे, जिससे आवश्यक विभूतियाँ उसकी योग्यता के अनुरूप सहज ही मिल सकें। वर्षा होती है। पहाड़ों, मैदानों और सरोवरों में बिना किसी भेदभाव के बादल पानी बरसाते हैं, पर पहाड़ की चोटियों पर पानी नहीं ठहरता, मैदानों पर वह जाता है और सूख भी जाता है। लेकिन नदियाँ-सरोवर और गड्ढे-कुएँ पानी से भर जाते हैं, क्योंकि उनमें वह रिक्तता-पात्रता विद्यमान रहती है, जिसमें कि पानी ठहर सके।

यहाँ एक तथ्य और भी ध्यान देने योग्य है कि सरोवर हो या गड्ढे, बाहर से उनमें पानी आता है तो वह उतना ताजा नहीं रहता, जितना कि नदियों व कुओं में ताजा और निर्मल रहता है, इसका कारण है- नदियों तथा कुओं के स्रोत अपने आप में होते हैं। अपने में निहित स्रोतों से कुओं और नदियों में निरन्तर जल आता रहता है। वह ताजा और शुद्ध तो रहता ही है, कभी सूखता भी नहीं, जबकि तालाब और गड्ढे-पोखरों का पानी थोड़ी-सी धूप और जरा-सी गर्मी पड़ने पर सूख जाता है।

प्रार्थना मनुष्य का संपर्क विश्वव्यापी महानता के साथ बढ़ाती है। सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना का परिणाम आदर्शों के रूप में, भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में होता है। उसके साथ जुड़ जाने पर प्रतीत होता है कि अपने दुःख-क्लेशों का हेतु कोई और नहीं, अपनी ही तमसाच्छन्न मनोभूमि है, जिसमें अज्ञान और आलस्य ने जड़ें जमा ली हैं। प्रार्थना की कुदाली से अन्तःभूमि में व्याप्त कुत्सा और कुंठा का निराकरण कर अंतःशक्ति के स्रोत को खोलने का प्रयास किया जाए, तो मनुष्य की कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहती। कोई भी आकांक्षा बिना पूरी हुए नहीं रहती।

अन्तःशक्ति को जगाने वाली अन्तःज्योति की एक भी किरण उग सके तो उस अंधकार से सहज ही छुटकारा मिल सकता है, जिसमें पग-पग पर ठोकरें लगती हैं और उनसे शोक-संताप उत्पन्न होता है। उस स्थिति में यह अन्तःप्रकाश उत्पन्न होता है, परमेश्वर यों साक्षी, द्रष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है, पर उसके जिस अंश की हम उपासना या प्रार्थना करते हैं, वह सर्वात्मा है और पवित्रात्मा है।

यह प्रकाश उत्पन्न होने पर व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने तथा पेट और प्रजनन के लिए सीमाबद्ध रखने वाली वासना-तृष्णा की मूढ़माया से छुटकारा पाने के लिए मन तड़पने लगता है। वासना-तृष्णा के इस भवबन्धन से छुटकारा पा लेना और अपने आत्मविस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही ‘आत्मोद्धार’ है। इसी को आत्मसाक्षात्कार भी कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्मस्तर से, परमात्मा से यही प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करें और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करें, जिससे सर्वत्र दिखाई पड़ने वाला अन्धकार दिव्यप्रकाश के रूप में परिणत हो सके।

प्रार्थना वही सच्ची है, जो अपनी आत्मा की गौरव-गरिमा के अनुरूप कही जाएगी, जिसमें यह कामना जुड़ी रहे कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये, जिसमें हम उसके सच्चे भक्त, अनुयायी एवं पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकें। प्रार्थना में ईश्वर से वह शक्ति प्रदान करने की विनती की जाती है, जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर विवेकसम्मत कर्तव्यपथ पर साहसपूर्वक चला जा सके और इस मार्ग में जो अवरोध आते हैं, उनकी उपेक्षा करते हुए अटल रहा जा सके। कर्मों के फल अनिवार्य हैं, अपने प्रारब्धभोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्यपूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनाते रहा जा सके।

मन को इतना निर्मल बना देने का अनुनय हो कि कुकर्मों की ओर प्रवृत्ति ही न हो और हो भी तो उन्हें करने का दुस्साहस न उठे। इस प्रकार मनुष्य जीवन को अपनी आत्मा के स्तर को निरंतर ऊँचा उठाने और गतिशील बनाये रहने की माँग ही सच्ची प्रार्थना कही जाएगी। जिसमें धन, सम्मान, स्वास्थ्य, सफलता आदि की याचना की गई हो, वह प्रार्थना नहीं कही जा सकती। जिसमें अपने पुरुषार्थ, कर्तव्य के अभिवर्द्धन का स्मरण न हो ऐसी प्रार्थना को याचना मात्र कहा जाएगा और ऐसी याचनाओं की सफलता प्रायः संदिग्ध ही रहती है।

अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है। जिसमें यह संकल्प भी जुड़ा रहता है कि भावी जीवन परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार पवित्र और पुरुषार्थी बनकर जिया जाएगा। ऐसी गहन अन्तस्थल से निकली हुई प्रार्थना, जिसमें आत्म-परिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो, भगवान का सिंहासन हिला देती है। ऐसी प्रार्थना के परिणाम भी इतने अद्भुत होते हैं कि उन्हें ‘चमत्कार’ भी कहा जा सकता है।

जब मन दुर्बल हो रहा हो, मनोविकार बढ़ रहे हों और लगता हो कि पैर अब फिसला, तब फिसला, तो सच्चे मन से परमात्मा को पुकारना चाहिए। गज को ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान, पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल आर्तभक्त की पुकार अनसुनी नहीं करते हैं और उस मनोबल के रूप में अन्तःकरण में उतरते हैं, जिसे गरुड़ कहा जा सकता है तथा जो पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों को उदरस्थ करने का अभ्यासी है भी। परमात्मा से यही माँगा भी जाना चाहिए। समझदारी इसी में है। भिखारी बनकर राजा के पास पाँच-दस पैसे माँगने पहुँचा जाए तो उसे मूर्ख ही कहा जाएगा। फिर ईश्वर तो राजाओं का भी राजा, सम्राटों का भी सम्राट और अधिपों का भी महाधिपति है, उससे लौकिक याचनाएँ पूरी करने के लिए कहना भिखारी जैसी मूर्खता करने जैसा है। भगवान से वही माँगना चाहिए, जिन्हें देने में वह भी संतुष्ट होता है और प्राप्त होने पर स्वयं को भी गौरव की अनुभूति होती है। यह माँगने योग्य वस्तु आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध, अंतःप्रकाश अथवा समर्पण स्वीकार ही है।

भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाया होने की अनुभूति जब इतनी प्रबलता के साथ अनुभूत होने लगे कि उसे कार्यरूप में परिणत किये बिना रहा ही न जा सके, तो यही समर्पण भाव की परिपक्वता है। ऐसी शरणागति व्यक्ति को द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती है तथा यह गतिशीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता सहित भक्त के व्यक्तित्व में उतरना पड़ता है।

आरंभ अपने पापों के पश्चाताप, निर्मल जीवन जीने के संकल्प और सफलताओं के लिए विनम्रतापूर्वक ईश्वर को धन्यवाद देने से करना चाहिए। निस्संदेह सफलताएँ अपने ही परिश्रम-पुरुषार्थ का प्रतिफल होती हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उस परिश्रम-पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वाला परमात्मा अपने अंतःकरण में ही विद्यमान है। यदि इस तथ्य को नकारकर अपने क्षुद्र अस्तित्व का अभिमान किया जाता है, तो मदोन्मत्त हाथी की तरह न केवल अपनी शक्तियों का विध्वंसकारी दुरुपयोग होने की संभावना बनती है, वरन् उनके भी नष्ट होने का संकट खड़ा रहता है। अस्तु, जो कुछ प्राप्त है, उसके लिए परमात्मा के प्रति कृतज्ञता और धन्यवाद के बोध से भरकर परमात्मा से आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध के ही दिव्य वरदान की माँग की जाए। सर्वतोभावेन परमात्मा के प्रति समर्पित भक्त का योगक्षेमं वहन करने की प्रतिज्ञा भगवान ने स्वयं की है, पर उस शर्त को भी तो पूरा किया जाना चाहिए, जो पात्रता विकसित करने, हृदय को वासनाओं और तृष्णाओं से रिक्त करने के रूप में जुड़ी हुई है।


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