ध्यान क्यों व कैसे किया जाय

March 1999

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मानसिक असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए, चित्तवृत्तियों के बिखराव को एकीकरण के द्वारा एकाग्रता की स्थिति में लाने के लिए ध्यान से श्रेष्ठ कोई उपाय नहीं। आज के भौतिकवादी युग में जहाँ सारे समाज में साधनों को बटोरने की बेवजह बेतहाशा दौड़-सी चल रही है, प्रायः सभी का मन असंतुलित, बिखरा हुआ-तनावग्रस्त देखा जाता है। कई बार मन क्रोध, शोक, प्रतिशोध, विक्षोभ, कामुकता जैसे उद्वेगों में फँस जाता है। उस स्थिति में किसी का हित नहीं सधता। अपना या पराया किसी का भी कुछ अनर्थ हो सकता है। उद्विग्नताओं के कारण आज समाज में सनकी-विक्षिप्त स्तर के व्यक्ति बढ़ते जा रहे हैं। सही निर्णय करना तो दूर वे कब आत्मघाती कदम उठा लेंगे, समझ में नहीं आता। इन विक्षोभों से मन-मस्तिष्क को उबारने का एक ही उपाय है- मन को विचारों के संयम का-संतुलित स्थिति बनाए रखने का अभ्यस्त बनाने पर जोर दिया जाय। इसी का नाम ‘ध्यान साधना’ है। मन को अमुक चिन्तन प्रवाह से हटाकर अमुक दिशा में नियोजित करने की प्रक्रिया ही ध्यान कहलाती है। शुभारंभ के रूप में भटकाव के स्वेच्छाचार से मन को हटाकर एक नियत-निर्धारित दिशा में लगाने के प्रयोगों का अभ्यास किया जाय तो शीघ्र सफलता मिलती है।

कहा गया है कि जो अपने को वश में कर लेता है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता (अध्याय 2)। बार-बार जब वे इन्द्रियों को वश में रखने की बात कहते हैं तो उसमें सबसे प्रधान है मन, जिसके इशारे पर शेष सारी इन्द्रियाँ नाचती हैं। आत्मनियंत्रण से प्रज्ञा के प्रतिष्ठित होने का पथ प्रशस्त होता है व उसके लिए बेसिर-पैर की दौड़ लगाने वाला अनगढ़ विचारों को बार-बार घसीटकर श्रेष्ठ-चिन्तन के प्रवाह में लाने का प्रयास-पुरुषार्थ करना पड़ता है। आसान नहीं है यह, पर असंभव भी नहीं। यदि यह किया जा सका तो आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से लाभ मिलते हैं। जहाँ इस वैचारिक तन्मयता की फलश्रुति आध्यात्मिक जगत में प्रसुप्त शक्तियों के जागरण से लेकर ईश्वरप्राप्ति-रसौ वै सः की आनन्दानुभूति के रूप में प्राप्त होती है, वहाँ भौतिक क्षेत्र में अभीष्ट प्रयोजनों में पूरी तन्मयता-तत्परता नियोजित होने से कार्य का स्तर ऊँचा उठता है, सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है और बढ़ी-बढ़ी उपलब्धियाँ मिलती हैं।

वस्तुतः विचारों का, श्रेष्ठ सकारात्मक विचार-प्रवाहों का व्यक्तित्व को कराया गया स्नान ही ध्यान है। सूक्ष्म व कारण सत्ता पर नित्य जमने वाले कषाय-कल्मषों की धुलाई इसी ध्यान रूपी साबुन से हो सकती है। ध्यान है। ध्यानयोग का मूलभूत लक्ष्य है- साधक को अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने आपे के बारे में बोध कराना। उसकी उस स्मृति को वापस लौटाना, जिससे कि वह भटका हुआ देवता अपने मूलस्वरूप को जान सके। आज का हर व्यक्ति आत्मविस्मृत मनःरोगी की स्थिति में जी रहा है। ऐसी स्थिति में व्यथित-ग्रसित लोग स्वयं तो घाटे में रहते ही हैं, अपने परिचितों, संबंधियों को भी दुखी करते रहते हैं। विस्मरण का निवारण एवं आत्मबोध की भूमिका में पुनः जागरण, यही है ध्यानयोग का लक्ष्य।

किसी संत ने कहा है कि ध्यान किया नहीं जाता है, हो जाता है। सही भी है, जब ध्यान के लिए मन पर बलात् दबाव डाला जाता है, मन अपनी चंचलता के शिखर पर पहुँचकर बहुत नचाता है। इसीलिए ध्यान के लिए बारबार श्रेष्ठ चिन्तन के प्रवाह को बुलाना, उन्हीं में रमण करना ध्यान होने की स्थिति ला देता है। मानवी मन वस्तुतः जंगली हाथी की तरह है, जिसे पकड़ने के लिए पालतू-प्रशिक्षित हाथी भेजने पड़ते हैं। सधी हुई बुद्धि पालतू हाथी का कार्य करती है। ध्यान के रस्से से जकड़कर उसे काबू में लाती है और फिर श्रेष्ठ प्रयोजनों में संलग्न हो सकने योग्य सुसंस्कृत बनाती है।

ध्यान के लिए इसी से सविचार स्थिति प्रारंभिक साधकों के लिए श्रेष्ठ है। धीरे-धीरे निर्विचार-निर्विकल्प स्थिति आती है। इसीलिए ध्यान में तन्मयता-तल्लीनता का भाव पैदा करने के लिए सृजनात्मक-विधेयात्मक चिंतन का अभ्यास करने की बात पर बार-बार जोर दिया जाता रहा है। तन्मयता की फलश्रुतियाँ अपार हैं। वैज्ञानिकगण अपने विषय में तन्मय हो जाते हैं और विचार समुद्र में गहरे गोते लगाकर नई-नई खोजों के रत्न ढूँढ़ लाते हैं। साहित्यकार-चिंतक-मनीषी तन्मयता के आधार पर ही राष्ट्रोत्थान के, समाज के नवनिर्माण के चिंतन को जन्म दे पाते हैं। तन्मय स्थिति में होना अर्थात् शरीर से परे होने का भाव पैदा कर स्वयं को विचार समुद्र में डुबा देना। लोकमान्य तिलक के जीवन की एक प्रसिद्ध घटना है कि जब उनके अँगूठे में एक फोड़े को चीरा लगाया जाना था, तो डॉक्टरों ने आपरेशन की गंभीरता बताकर दवा सुंघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा। उनने कहा कि “मैं अपने को गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगा दूँ। आप बेखटके आपरेशन कर लें।” डॉक्टरों को सुखद आश्चर्य हुआ कि पूरी अवधि में वे बिना हिले-डुले गीता पढ़ते रहे-शान्तिपूर्वक आपरेशन करा लिया। पूछने पर इतना ही कहा कि “तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी कि आपरेशन की ओर ध्यान नहीं नहीं गया और दर्द भी नहीं हुआ।”

विचारों के बिखराव का एकीकरण-चित्तवृत्तियों का निरोध यदि किया जा सके तो मनुष्य दुनिया के बुद्धिमानों की तुलना में असंख्य गुनी विचारशीलता, प्रज्ञा, भूमा प्राप्त कर सकता है, मात्र समझदार न कहलाकर तत्व द्रष्टा कहला सकता है। आत्मिक प्रगति का अभीष्ट प्रयोजन भी पूरा कर सकता है। मेडीटेशन-मनोनिग्रह की योग के प्रकरण में अक्सर चर्चा होती है, पर यह है वस्तुतः चित्त की वृत्तियों का अधोगामी चिंतन प्रवाह का निरोध एवं तदुपरान्त ऊर्ध्वीकरण। इसके लिए निराकरण ध्यान भी किया जा सकता है व साकार भी। कई व्यक्ति इसी ऊहापोह में रहते हैं कि कौन-सा ध्यान श्रेष्ठ है-निराकार या साकार। ध्यान उपासना के साथ जब भी जोड़ा जाता है, वह आत्मिक प्रगति के साथ भौतिक प्रगति का भी लक्ष्य पूरा करता है। ईश्वरप्राप्ति-जीवनलक्ष्य की प्राप्ति जैसे महानतम उद्देश्यों के कारण उपासना व ध्यान परस्पर जोड़कर किये जाते हैं व तुरंत लाभ भी देते हैं। विभिन्न संप्रदायों तथा विधियों में उसके प्रकारों में थोड़ा-बहुत अंतर भले ही हो, पर ध्यान का समावेश हर पद्धति में है।

साकार ध्यान में भगवान की अमुक मनुष्याकृति को मानकर चला जाता है-उनके गुणों का ध्यान किया जाता है, वहीं निराकार ध्यान में प्रकाशपुँज पर आस्था जमाई जाती है। सूर्य जैसे बड़े आग के गोले-सविता देवता का ध्यान और प्रकाश बिन्दु जैसे छोटे आकार का ध्यान भी एक प्रकार का साकार ध्यान नहीं है। अंतर मात्र इतना ही है कि उसमें मनुष्य जैसी आकृति नहीं है। ध्यान के कई तरीके हैं, जिनमें से जिन्हें जो उपयोगी हो, वह करके लाभान्वित हो सकता है। प्रखर साधना वर्ष में सारे भारत व विश्व में अखण्ड जप के साधना-आयोजन चल रहे हैं। उन सभी में ध्यान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। बिना ध्यान का जप मात्र जीभ का व्यायाम है। जप में प्राण-प्रतिष्ठा ध्यान द्वारा की जाती है। अतः ध्यान को तकनीक न मानकर भाव प्रवाह के रूप में समझते हुए करने का अभ्यास यदि इष्ट मंत्र के जप के साथ किया जाय तो वह निश्चित ही जप को प्रभावी व फलश्रुति परक बना देता है।

एक प्रकार का ध्यान प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य का, सविता देवता का किया जा सकता है। स्वर्णिम प्रकाश की किरणें साधक के शरीर में प्रवेश कर रही हैं एवं वह अंदर से बाहर तक निर्मल, पवित्र, प्रकाशवान होता चला जा रहा है। यह ध्यान सर्वश्रेष्ठ है एवं इसमें सतत् सूर्य के पापनाशक तेज से आत्मसत्ता के घिरे होने के भाव चित्र बनाए जा सकते हैं, प्रार्थना की जा सकती है कि यह तेज सभी कषाय-कल्मषों को नष्टकर सद्बुद्धि का उदय कर सत्कर्म की ओर प्रेरित कर दे। यदि उदीयमान सूर्य देख पाना हर किसी के लिए अपने आवा, कमरे, पूजाकक्ष कर स्थिति के कारण संभव नहीं है, तो ऐसे चित्र का ध्यान कर भावपटल पर ऐसा चिंतन किया जा सकता है।

सूर्य का छोटा संस्करण है- दीपक। जलती हुई दीपक की लौ को थोड़ी देर खुली आँखों से देखना-फिर कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद कर उसे भ्रूमध्य नासिका के अग्र स्थान पर जहाँ दोनों नेत्र मिलते हैं-ज्योति के रूप में देखना-ज्योति अवतरण की बिंदुयोग साधना कहलाती है। इससे बहिर्त्राटक व अन्तर्त्राटक की क्रियाओं द्वारा उसे साधकर पीनियल-पिट्यूटरी एक्सिस को- आज्ञाचक्र को जगाया जा सकता है। खुली आँखों से देखने का क्रम क्रमशः कम करते हुए लौ को बार-बार देखने का अभ्यास करना चाहिए, साथ में धीरे-धीरे मानसिक जप भी चलते रहना चाहिए व खींची श्वास के साथ पवित्र वायु के-ज्योतिष्मान प्रकाश के प्रवेश का भाव एवं छोड़ी हुई निश्वास के साथ मलीनता भरे विचारों के बहिर्गमन का भाव भी साथ-साथ किया जा सकता है। यह ध्यान बुद्धि-लब्ध भाव-लब्ध स्मृति बढ़ाने से लेकर अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियों के द्वार खोलता है।

एक ध्यान हिमालय का किया जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव हिमालय को अपना संरक्षक, अभिभावक व पारस कहते थे। चार बार यात्रा कर व सतत् हिमालय का ध्यान कर उनने अपने को दिव्यदर्शी, प्रज्ञापुरुष, अवतारीसत्ता के रूप में विकसित किया। हिमालय, अध्यात्म-चेतना का ध्रुव केन्द्र है। ऋषियों की तपःस्थली हिमालय से सतत् चैतन्य धाराओं का प्रवाह आ रहा है एवं मन-मस्तिष्क को शीतल बना रहा है-तपते हुए अंतःकरण पर ठंडे छींटे लगा रहा है-यह भाव किया जा सकता है।

हिमालय सदा से ही अध्यात्म-पिपासुओं-जिज्ञासु साधकों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है। फिर उसका ध्यान तो निश्चित ही अलौकिक क्षमताओं का जागरण करने की शक्ति रखता है। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रही मानवजाति के तपते-तनावग्रस्त तन के लिए हिमालय का ध्यान-सतत् वहीं रमण करते रहने का चिंतन एक श्रेष्ठतम चिकित्सा-उपचार हो सकता है।

एक और तरीका ध्यान का है-दर्पण में अपनी आकृति देखते हुए बार-बार आत्मबोध की स्थिति में अपने अंतस् को ले जाना। तत्वमसि, अयमात्माब्रह्म, सच्चिदानंदोऽहम् का भाव लाते हुए कि हम शरीर नहीं, हाड़-माँस का पुतला नहीं हम श्रेष्ठता की प्रतिमूर्ति हैं, भाव-संवेदनाओं का पुँज हैं-हम वही हैं जो भगवान हैं। हमें वैसा ही बनना है जैसे भगवान हैं। “मुखड़ा देख ले दर्पण में” शीर्षक वाले श्री प्रदीप के गीत पर जब प्राण-प्रत्यावर्तन सत्रों (1973-74) में ध्यान का क्रम चल पड़ता था तो साधक फूट-फूट कर रो पड़ते थे। उन्हें बार-बार स्मरण दिलाया जाता था कि अब तक जो जीवन जिया था वह एक पशु का था। अब मानव, देवमानव का जीवन जीना है। दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। सारे विगत कर्मों का उसमें देखते हुए साधक को ईश्वरीय स्वरूप का बोध होता है। आभास होता है कि हमें अपने आपको अब क्या बनाना है।

एक ध्यान अपने इष्ट पर किया जा सकता है। ध्यान में याद रखना चाहिए कि आकृति से पीछा छूटना आसान नहीं है। ध्यान-धारणा के सहारे आत्मचिन्तन का प्रयोजन पूरा हो सके, इसके लिए इष्ट चाहे वे शिव-पार्वती हों, शिवलिंग हों, भगवान श्रीकृष्ण, विष्णु, माँ गायत्री, अम्बा, भवानी, दुर्गा, सरस्वती अथवा गणेश या हनुमान एवं काबा का ध्यान हो, चाहे ईसामसीह का पैगम्बर का हो अथवा अपने गुरु का-उन पर मन आरोपित कर ध्यान को प्रगाढ़ बनाना चाहिए। इष्टदेव के समीप-अति समीप होने, उनके साथ लिपट जाने, उच्चस्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। इसमें भगवान और जीव के बीच माता-पुत्र स्वामी-सेवक जैसा कोई भी सघन संबंध बनाया जा सकता है। इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में मदद मिलती है। भक्त अपनी अहंता-संकीर्णता को भगवान के इष्ट के चरणों में अर्पित करता है। भावना करता है कि यह सारी सत्ता-सारा वैभव उसी दैवी शक्ति की धरोहर है। सद्गुरु अथवा भगवान -किसी पर भी ध्यान आरोपित कर वह शक्ति पायी जा सकती है, जिसकी कि कल्पना भी नहीं की जा सकती।

एक ध्यान जिस विपश्यना के रूप में भी प्रचलित माना गया है- खींची व छोड़ी श्वास पर ध्यान केन्द्रित करने का किया जा सकता है। हर श्वास को प्रेक्षक की तरह देखना व उस पर ध्यान केन्द्रित करना, धीरे-धीरे श्वासगति को कम कर पूरे शरीर को शिथिल करते चले जाना - यह इस ध्यान की मूल अचेतन क्रियाएँ हैं। इससे सारा शरीर सक्रिय ऊर्जा से भर जाता है। इसी की उच्चावस्था गायत्री की सोऽहम् साधना अथवा हंसयोग के रूप में बतायी गयी है, जिसमें अजपा जप भी चलता है, साथ ही खींची श्वास के साथ ‘सो’ तथा छोड़ी के साथ हम का भाव किया जाता है। ‘सो’ के साथ भगवत् चेतना का अंदर प्रवेश तथा ‘हम’ के साथ अपनी आत्मसत्ता का उसमें सराबोर होना-अपने अहं भाव को बाहर विसर्जित करना। ध्यान किसी भी पद्धति से हो, अपनी सुविधानुसार चयन कर नियमित उसे करते रहना चाहिए। अभी यहाँ ध्यान की कुछ पद्धतियाँ बतायी गयी हैं, अगले अंक में कुछ और पर प्रकाश डालकर साधकों का पथ प्रदर्शन किया जाएगा।


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