कहीं आपने भी होली यों ही जलते हुए तो नहीं देखी

March 1999

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भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जीवन के हर पक्ष को इसके माध्यम से उल्लासमय बनाने का प्रयास किया गया है। ऋतुक्रम में हेमंत की ठिठुरन वसंत के आगमन के साथ पुलकन व उल्लास में बदलने लगती है, किंतु यह वसंत मात्र वसंत पंचमी के मनाने तक सीमित नहीं है। प्रायः 40 दिन की अवधि तक होली के पूर्व आने तक मनाया जाता है एवं वातावरण को एक अनोखी मादकता-पवित्र सात्विक भाव-अंतरंग से उभरकर आने वाली दिव्य शाँति से भर देता है। नवीन संवत्सर के आगमन के पूर्व की यह वेला जिसमें एक पर्व महाशिवरात्रि का भी बीच में आता है, आध्यात्मिक अनुदानों को ग्रहण करने की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है, साथ ही यह नवदुर्गा चैत्र नवरात्रि के आगमन की पूर्व वेला होने के नाते यह और भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। ऋतु-परिवर्तन से मानव-समुदाय आधि-व्याधि ग्रसित न हो जाय, इस कारण एक विज्ञानसम्मत निर्धारण हमारे ऋषिगणों ने प्रस्तुत पर्व के माध्यम से किया।

होली का पर्व यों तो दो दिन की अवधि तक मनाया जाता है, पर प्रायः भारतवर्ष के कई क्षेत्रों में इसकी शुरुआत वसंत पंचमी से ही हो जाती है एवं कहीं-कहीं रंगपंचमी तक चलती है। यह मूलतः एक यज्ञीय पर्व है। नई फसल पकने लगती है। भारत जैसे कृषि प्रधान राष्ट्र में इसका महत्त्व समझते हुए, इसके उल्लास में नवान्न यज्ञ के रूप में पहले अन्न देवता को यज्ञीय ऊर्जा से संस्कारित करने व तत्पश्चात समाज को समर्पित करने का भाव उसके पीछे रहा करता था। ऋषिगणों ने इसे वासन्ती नव-सस्येष्टि यज्ञ नाम दिया है। इसीलिए होली की अग्नि में नये अन्न की बालों को भूनकर खाना अनिवार्य एवं पावन कृत्य माना जाता है।

होली का त्योहार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन आता है। शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि को होलिका दहन किया जाता है व अगला दिन धुलण्डी के नाम से रंगोत्सव के रूप में, समता के पर्व के रूप में मनाया जाता है। समस्त भारतीय संस्कृति से जुड़े पर्व-त्यौहारों में यह सबसे विलक्षण व अपने ढंग का निराला है। होली ही एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें हिन्दू ही नहीं, समस्त मानव-समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का सामीप्य पा सकते हैं, बिना ऊँच-नीच जाति, वर्ग-भेद के परस्पर प्रेमपूर्वक मिल सकते हैं। छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी उच्चस्थिति के व्यक्ति के साथ बिना किसी औपचारिकता के व्यवहार कर सकता है। पारस्परिक सौहार्द्र, उल्लास, हार्दिक हास्य विनोद-समानता के तत्व इस त्योहार की प्रेरणाओं में भरे हुए हैं।

पौराणिक दृष्टि से यह त्योहार आरंभ कब हुआ, इसके बारे में विभिन्न मत हैं। पारंपरिक प्रचलन में तो यही है कि होलिका द्वारा प्रह्लाद को जाने की घटना इससे जुड़ी है। भविष्य पुराण के अनुसार ठुँठला नामक राक्षसी के द्वारा शिव-पार्वती से यह वरदान तपश्चर्या द्वारा प्राप्त किया गया था कि वह सुर-असुर नर-नाग किसी से न मारी जा सके एवं जिस बालक को खाना चाहे खा सके। ऐसी कथा है कि वरदान देते समय भगवान महादेव ने यह शर्त लगा दी कि वर्ष में केवल होली के एक दिन यह वरदान फलीभूत नहीं होगा और उस दिन जो भी बालक वीभत्स आचरण करते-निर्लज्जता पूर्वक फिरते पाये जाएँगे, उन्हें वह नहीं खा सकेगी। कहा जाता है कि उस राक्षसी से बचने के लिए तरह-तरह के वीभत्स स्वाँग रचने की परंपरा इस त्योहार से बनी। एक और मान्यता यह है कि आज ही के दिन के लिए महर्षि वशिष्ठ जी ने सब मनुष्यों के लिए अभयदान माँगा था, ताकि वे निःशंक होकर इस दिन हँस-खेल सकें, परिहास-मनोविनोद कर सकें।

प्रचलित पौराणिक मान्यताओं में आदर्श सत्याग्रही भक्त प्रह्लाद के दमन के लिए जब उनके पिता हिरण्यकश्यप के सभी प्रयास निरर्थक हुए तब उन्हें होलिका की गोद में बिठाकर जलाने का प्रयास किया गया, परंतु, होलिका जल मरी एवं प्रह्लाद तपे कंचन-आग में से निखरकर आये और भक्त के रूप में स्थापित हुए। इसके बाद पिता ने अपने पुत्र को स्वयं मारने का प्रयास किया एवं तब खंभे से नृसिंह भगवान ने प्रकट होकर हिरण्यकश्यप का अन्त कर दिया। यह सभी कथानक होलिका त्योहार से जुड़े हैं। इसी त्योहार की प्रेरणा स्वरूप भगवान नृसिंह का पूजन, मातृभूमि-रजपूजन निधा-समता देवी का पूजन, क्षमावरणी रजधारण एवं नवान्न यज्ञ आदि कृत्य इसमें सम्पन्न किये जाते हैं। सत्य, धर्म एवं विवेक के मार्ग पर दृढ़ रहने के लिए प्रह्लाद ने अपने अभिभावकों तथा दूसरों का घोर विरोध एवं दमन सहते हुए भी आदर्शवादी साहसिकता का परिचय दिया, हमारी स्थिति भी वैसी ही बन-यह प्रेरणा इस पर्व की है। मातृभूमि की रज मस्तक पर लगाकर समाज से असमानता का अभिशाप, पारस्परिक विग्रह मिटाकर देशभक्ति-राष्ट्र की एकता-अखंडता की प्रतिज्ञा लेने का यह दिन है। यज्ञीय कार्यों में अपना कुछ अंश नियोजित कर अपने अन्न-धन को पवित्र व सात्विक बना लेने की प्रेरणा भी इस पर्व की है। छोटा काम करने में भी गौरव अनुभव कर सामूहिक रूप से कूड़े-कर्कट की सफाई कर उसे जलाना, श्रमदान की प्रवृत्ति को सामूहिक क्रम में बढ़ावा देना-यह शिक्षण भी इसी पर्व का है। एक-दूसरे पर रंग डालने से अभिप्राय यह था कि सभी से समानता का व्यवहार करते हुए हँसी-खुशी का वातावरण बनाने, वर्षीर बनाए रखने का प्रयास करेंगे। इतनी दिव्य प्रेरणाओं से भरा यह पर्व आज के समाज में गंदे हँसी-मजाक से लेकर गंदगी भरे प्रदर्शन, अश्लीलता व क्षुद्रचिंतन के परिचायक स्वरूप में बदल गया है, यह एक विडंबना ही है। समाज में पारस्परिक सामंजस्य, समरसता-एकत्व स्थापित करने के लिए जिस पर्व का प्रावधान ऋषिगणों ने किया था, उसकी यह छीछालेदारी होगी-यह कभी सोचा भी न था।

अनेकानेक प्रेरणाओं में से आज जिन दो पर सर्वाधिक ध्यान जाना चाहिए- वे हैं टूटते-बिखरते समाज को जोड़ने के लिए इसे सामाजिक समानता-राष्ट्रीय एकता के पर्व-त्योहार के रूप में मनाया जाय- दूसरे यज्ञीय जीवन से नवीन संवत्सर को आदर्शवादी पराक्रम के साथ आरम्भ करने का प्रभु समर्पित जीवन जीने का संकल्प आज के दिन किया जाय। गायत्री परिवार के अधिष्ठाता-संस्थापक परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने पर्वों से लोकशिक्षण की परम्परा को आरंभ किया एवं न-जन तक धर्मतंत्र की इस प्रगतिशील प्रक्रिया को प्रचलित किया। आज इसे राष्ट्रीय ही नहीं, वैश्विक रूप देने की आवश्यकता है।

समाज आज धर्म-संप्रदायों की विविधता के नाम पर जाति-वर्ग-भेद के आधार पर, ऊँच-नीच धनी-गरीब पुरुष-नारी इन भेदों के नाम पर विभाजित है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नक्सलवाद अभी भी किन्हीं-न-किन्हीं रूपों में विद्यमान है। जिस ईश्वर ने यह सृष्टि रची, उसने कभी सोचा भी न होगा कि उसी परब्रह्म की संतानें अपनी उपासना पद्धति के नाम पर बनाये गये विभिन्न मार्गों-संप्रदायों के नाम पर परस्पर लड़ने लगेंगी, एक-दूसरे की जान लेंगी-और एक-दूसरे के पूजा गृहों को आग लगाएँगी। जब ईश्वर एक ही है, तब किसी का धर्मांतर जबरदस्ती, प्रलोभन से या भय से करना उतना ही बड़ा पाप है, जितना कि किसी दूसरे संप्रदाय से घृणा, द्वेष रखते हुए उन पर अत्याचार करना। भारतवर्ष में आज घट रही घटनाएँ एक गलत होली के जलने का संकेत दे रही हैं। जहाँ जातिगत एकता के सद्भाव से-मनोमालिन्य दूर होने के मैत्री भाव से होलिका पर्व मनाया जाता था- उस देश में आज जाति-वर्ग के नाम पर एक-दूसरे का सामूहिक नरसंहार किया जा रहा है। निरीह-भोले छोटे-छोटे बच्चों का क्या दोष है कि वे किसी जाति विशेष में पैदा हुए। किसी जाति विशेष से घृणा करके उनकी जान लेकर-नरसंहार की नृशंस होली जो आज बिहार व अन्य प्राँतों में खेली जो रही है, उतनी ही भर्त्सना की पात्र है जितनी कि किसी भी संप्रदाय के आधार पर इज्जत से खेलना-द्वेषभाव रखना एवं उनके साथ दुश्मनों जैसा बर्ताव करना। दूसरी ओर हिन्दू संस्कृति की सदाशयता-उदारता का लाभ उठाकर सनातन धर्म की मूल मान्यताओं पर प्रहार भी इस संधिवेला के परिवर्तन के क्षणों में यही बताता है कि दुर्जन-असुरों-विधर्मियों का अब जीवन-मरण का यह अंतिम युद्ध का समय आ गया है। होलिका पर्व सामूहिकता का संदेश लेकर इस वर्ष आया है एवं सभी को यही प्रेरणा देता है कि किसी भी स्थिति में असुरता जीतने न पाए। हिरण्यकश्यप एवं होलिका को जलना ही पड़ेगा। विकृतियों-सामाजिक असमानताओं, राजनैतिक अराजकताओं-वर्गभेदों को इस होली में जलकर भस्म होना ही पड़ेगा। यदि वह न हो सका तो मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा एवं सभी आदिम मानव की तरह एक-दूसरे की जानें लेकर इस सुंदर धरती को नष्ट कर देंगे।

इस विश्व -वसुधा का यह सिद्धांत अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक विकृतियों को संघर्ष पूर्वक हटाती रहती हैं व जीवित रहती हैं। जो भाग्य भरोसे शुतुरमुर्ग की तरह बालू में मुँह गाड़कर निश्चिंत एवं निष्क्रिय बनी बैठी रहती हैं, वे नानाप्रकार के दुःख भोगते हुए नष्ट होती चली जाती हैं। हिन्दू संस्कृति जीवंत और पुरुषार्थी जाति-धर्म का शिक्षण देती है। इसलिए इसके प्रत्येक निर्धारण में विश्वराष्ट्र को एक-अखण्ड बनाए रखने का संकल्प छिपा हुआ है। प्रस्तुत होली पर्व यही संदेश संघे शक्तिः कलियुगी अंतिम प्रखर साधना वर्ष की वेला में लेकर आया है कि कहीं हम सभी ने भी इस वर्ष तो होली परंपरागत रूप में जलते हुए तो नहीं देखी, खूनी फाग देखकर मौन तो नहीं बैठे रह गये, बिना मन्यु जगाएँ कहीं सोये तो नहीं रह गये? जवाब हम सभी से संस्कृति के पुरोधा ऋषिगण माँग रहे हैं।


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