कबीर सिद्धपुरुष की तरह प्रख्यात हो गये।
दूर-दूर से जिज्ञासु लोग आते। तब भी वे पहले की तरह ही कपड़ा बनाते रहते और साथ-साथ सत्संग चलाते। शिष्यों में से एक ने पूछा-आप जब साधारण थे तब कपड़ा बुनना ठीक था, पर अब जबकि सिद्धपुरुष हो गये और निर्वाह में कमी नहीं रहती तो आप कपड़ा क्यों बुनते हैं?
कबीर ने सरल भाव से कहा-पहले मैं पेट पालने के लिए बुलाता था पर अब मैं जन-समाज में समाये हुए भगवान का तन ढकने और अपना मनोयोग साधने के लिए बुनता हूँ।
कार्य वही रहने पर भी दृष्टिकोण की भिन्नता से उत्पन्न होने वाले अन्तर को समझने से शिष्य का समाधान हो गया।
एक जिज्ञासु कबीर के पास पहुँचा, बोला-दो बातें सामने हैं-संन्यासी बनें या गृहस्थ।
कबीर ने कहा-जो भी बनो आदर्श बनो। उदाहरण समझाने के लिए उन्होंने दो घटनाएँ प्रस्तुत कीं।
अपनी पत्नी को बुलाया। दोपहर का प्रकाश तो था, पर उन्होंने दीपक जला लाने के लिए कहा-ताकि वे कपड़ा अच्छी तरह बुन सकें। पत्नी दीपक जला लायी और बिना कुछ बहस किये रखकर चली गई।
कबीर ने कहा-गृहस्थ बनना हो तो परस्पर ऐसे विश्वासी बनना कि दूसरे की इच्छा ही अपनी इच्छा बने।
दूसरा उदाहरण सन्त का देना था। वे जिज्ञासु को लेकर एक टीले पर गये, जहाँ वयोवृद्ध महात्मा रहते थे। वे कबीर को जानते थे। नमाज के उपरान्त उनसे पूछा-आपकी आयु कितनी है? बोले-अस्सी बरस।
इधर-उधर की बातों के बाद कबीर ने कहा-बाबाजी आयु क्यों नहीं बताते? संत नो कहा था-बेटे अभी तो बताया था, अस्सी बरस। तुम भूल गये हो। टीले से आधी चढ़ाई उतर लेने पर कबीर ने सन्त को जोर से पुकारा और नीचे आने के लिए कहा। वे हाँफते-हाँफते चले आये। कारण पूछा, तो फिर वही प्रश्न किया-आपकी आयु कितनी है? सन्त को तनिक भी क्रोध नहीं आया। वे उसे पूछने वाले की विस्मृति मात्र समझे। कहा-अस्सी बरस है और हँसते वापस लौट गये। कबीर ने कहा-सन्त बनना हो तो ऐसा बनना जिसे क्रोध ही न आये।