पापनाशक चांद्रायण व्रत-विविध रूप

March 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साधना क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए संचित पापकर्मों, कषाय-कल्मषों कुसंस्कारों का परिशोधन आवश्यक है। इसके लिए धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित के अनेक विधि-विधानों का उल्लेख है। पापों के प्रायश्चित के लिए जिन तपों का शास्त्रों में वर्णन है उनमें चांद्रायण व्रत का महत्त्व सर्वोपरि है। विभिन्न शारीरिक और मानसिक स्थिति के व्यक्तियों के लिए, विभिन्न पापों के प्रायश्चितों के लिए, आत्मबल को विभिन्न दिशाओं में बढ़ाने के लिए विविध प्रकार के चांद्रायण व्रतों का वर्णन मिलता है। देश, काल, पात्र के भेद से भी इस प्रकार के अंतर पाये जाते हैं। प्राचीनकाल में लोगों की शारीरिक-मानसिक स्थिति बहुत अच्छी होती थी। वे देर तक कठोर उपवास एवं तप-साधना कर सकते थे। इसलिए उन परिस्थितियों को देखते हुए उस प्रकार के कठोर विधानों का बनाया जाना स्वाभाविक ही था। आज की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। कठिन तप-साधनाएँ विरले ही कर पाते हैं। इतने पर भी प्रायश्चित्तपरक तपश्चर्या की महत्ता असंदिग्ध है।

चांद्रायण व्रत के विविध रूपों को समझने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि प्रायश्चित्त किसे कहते हैं? प्रायश्चित शब्द ‘प्रायः’ और ‘चित्त’ शब्दों से मिलकर बना है। इसके दो अर्थ होते हैं।

प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं वै तद्विषोधनम्। प्रायोनाम् तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते॥

अर्थात् (1) ‘प्रायः’ का अर्थ है-पाप और ‘चित्त’ का अर्थ है- शुद्धि। प्रायश्चित अर्थात् पाप की शुद्धि।

(2)’प्रायः’ का अर्थ है-तप और ‘चित्त’ का अर्थ है निश्चय। प्रायश्चित्त अर्थात् तप करने का निश्चय।

दोनों अर्थों का समन्वय किया जा तो यों कह सकते हैं कि तपश्चर्या द्वारा पापकर्मों का प्रक्षालन करके आत्मा को निर्मल बनाना।” तप का यही उद्देश्य भी है। चांद्रायण तप की महिमा और साथ ही कठोरता सर्वविदित है।

यों तो शास्त्रों में प्रायश्चित्त प्रकरण में कई प्रकार के विधानों का वर्णन है जैसे- कृच्छ, अतिकृच्छ, तप्त-कृच्छ सौम्यकृच्छ, पादकृच्छ, महाकृच्छ, कृच्छातिकृच्छ, साँतापन, कृच्छसाँतापन, महासाँतापन, प्रजापात्य, पराक, ब्रह्मकूर्य आदि। किंतु इनमें चांद्रायण व्रतों को तप में सर्वप्रमुख माना गया है।

स्कंदपुराण में चांद्रायण व्रत की चर्चा के संदर्भ में युधिष्ठिर और कृष्ण का संवाद मिलता है। युधिष्ठिर पूछते हैं-

चक्रायुध नमस्तेस्तु देवेष गरुणध्वज। चांद्रायण विधि पुण्यमारव्याहि मम्॥

अर्थात् चक्रायुध और गरुणध्वज धारण करने वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करके, युधिष्ठिर ने पवित्र चांद्रायण व्रत का वर्णन करने की प्रार्थना की।

भगवान श्रीकृष्ण ने इस महाव्रत का माहात्म्य बताते हुए कहा-

चंद्रायणेन चीर्णेन यत् कृतं तेन दुष्कृतम्। तत् सर्व तत्क्षणादेव भस्मी भवति काष्ठवत्॥

अर्थात् चांद्रायण व्रत करने से मनुष्य के किये हुए पाप उसी प्रकार दूर हो जाते हैं, जैसे जलती हुई अग्नि में सूखी लकड़ी जल जाती है।

अनेक घोर पापानि उपपातकमेवच। चंद्रायणेन नष्यन्ति वायुना पाँसवो यथा॥

अर्थात्- अनेक घोर पाप तथा सामान्य पाप चांद्रायण व्रत से उसी प्रकार उड़ जाते हैं जैसे आँधी चलने पर धूलि के कण।

प्राचीन साधना ग्रंथों के अनुसार ‘कृच्छ’ और ‘मृदु’ भेद से दो प्रकार के चांद्रायण व्रत माने गये हैं। कृच्छ चांद्रायण व्रत का विधान उन लोगों के लिए है, जिनसे कोई बड़े पाप बन पड़े हैं अथवा तीव्र तपश्चर्या कर सकने की सामर्थ्य जिनमें है। प्रायः इनका उपयोग सतयुग आदि पूर्व युगों में होता था जब मनुष्य की सहनशक्ति पर्याप्त थी।

मृदु चांद्रायण-शारीरिक और मानसिक दुर्बलता वाले व्यक्तियों के लिए है। इसे स्त्री-पुरुष बाल-वृद्ध सभी कर सकते हैं। छोटे पापों के शमन और थोड़ा आत्मबल बढ़ाने में भी इस व्रत से सहायता मिलती है। आरोग्य की दृष्टि से यह चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है। मृदु चांद्रायण को कई ग्रंथों में शिशु चांद्रायण भी कहा गया है, क्योंकि वह कठोर चांद्रायण की तुलना में बालक ही है।

कृच्छ चांद्रायण के विधि-विधान के संदर्भ में शास्त्रकार कहते हैं-

शोधयेत् तु शरीरं स्वं पंचगव्येन मंन्त्रितः। सः षिरः कृष्णपक्षस्य तत् प्रकुर्वीत वापनम्॥

शुक्लः वासाः शुचिर्भूत्वा मौंजीं बन्धीत मेखलाम्। पलाष दण्डमादाय ब्रह्मचर्य व्रते स्थितः॥

कृतोपवासः पूर्व तु शुक्ल प्रतिपादे द्विजः। नदी संगम तीर्थेषु शुचौ देषे गृहेऽपिवा॥

अर्थात् शरीर को दस स्नान-विधान से शुद्ध करे। अभिमंत्रित करके पंचगव्य पिये और फिर सिर को मुड़ा कर कृष्ण पक्ष में व्रत आरंभ करे। श्वेत वस्त्र पहने, पवित्र रहे, कटिप्रदेश में मेखला धारण किये रहे। पलाश की लाठी दंड लिए रहे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। नदी के संगम, तीर्थ, एवं पुण्य प्रदेशों अथवा घर में रहकर भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चांद्रायण व्रत आरंभ करे।

नदीं गत्व विषुद्धात्मा सोमाय वरुणाय च। आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात् समाहितः॥

उत्तीर्योदकमाचम्य च स्थत्वा पूर्वतो मुखः। प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रेभि सेचनम्॥

वीरघ्नमृषभं वापि तथा चाप्यघमर्षणम्। गायत्री मम देवीं वा सावित्रीं वा जपेत् ततः॥

अर्थात्- शुद्ध मन से नदी में स्नान करे। सोम, वरुण और सूर्य को नमन करे। पूर्व को मुख करके बैठे। आचमन, प्राणायाम, पवित्रीकरण, अभिसिंचन, अमर्षण आदि संध्या-कृत्यों को करता हुआ सावित्री-गायत्री का जप करे।

आधारावाज्य भागो च प्रणवं व्याहृतिस्तथा। वारुणं चैव पंचैव हुत्वा सर्वान् यथाक्रमम्। प्रणम्य चाग्निं सोमं च भस्म घृत्व यथाविधि॥

अर्थात् आधारहोम, आज्य-भाग प्रणव, व्याहृति, वरुण आदि का विधिपूर्वक हवन करे और अग्नि तथा सोम को प्रणाम करके मस्तक पर भस्म धारण करे।

अंगुल्यग्र्रे स्थितं पिंड गाय «याचाभिमंत्रयेत्। अंगुलीभिस्त्रिभि पिण्डं प्राष्नीयात् प्रांमुख शुचिः॥

यथा च वर्धतेसोमो ह्रसते च यथा पुनः। तथा पिंडाष्च वर्धन्ते हृसन्ते च दिने-दिने

अर्थात् - तीन उँगलियों पर आ सकें, इतना अन्न का पिण्ड गायत्री महामंत्र से अभिमंत्रित करके पूर्व की ओर मुख करके खाएँ। जिस प्रकार कृष्णपक्ष में चंद्रमा घटता है, उसी प्रकार भोजन घटाएँ और शुक्ल पक्ष में जैसे चंद्रमा बढ़ता है, उसी प्रकार बढ़ाते जाएँ।

अध्यात्मशास्त्रों में कृच्छ चांद्रायण के चार भेद बताये गए है- (1) पिपीलिका मध्य चांद्रायण (2) यव मध्य चांद्रायण (3) यति चांद्रायण (4) शिशु चांद्रायण। यों तो चांद्रायण का सामान्य क्रम यह है कि जितना सामान्य आहार हो, उसे धीरे-धीरे कम करते जाना और फिर निराहार तक धीरे-धीरे बढ़ते हुए सामान्य आहार तक पहुँचना, किंतु कृच्छ चांद्रायण के नियम भिन्न और कठोर हैं। चारों प्रकार के कृच्छ चांद्रायण व्रतों में 240 ग्रास भोजन ही एक महीने में करने का विधान है।

कृच्छ चांद्रायण के चारों प्रकारों के विधि-विधान संक्षेप में इस प्रकार हैं-

(1) पिपीलिका मध्य चांद्रायण

इस संदर्भ में शास्त्रों में उल्लेख है-

‘ऐकेकं ह्रासयेत पिण्डं कृष्ण शुक्ले च वर्धयेत्। उपस्पृषंस्त्रिषवणमेतच्चंद्रायणं स्मृतमं॥’

अर्थात् पिपीलिका मध्य चांद्रायण में पूर्णमासी को पंद्रह ग्रास भोजन करते हैं। फिर प्रतिदिन क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं और अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पुनः पंद्रह ग्रासों पर जा पहुँचते हैं। इस व्रत में पूरे एक माह में कुल 240 ग्रास ग्रहण करते हैं।

(2) यव मध्य चांद्रायण

एतमेव विधि कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे। शुक्ल पक्षादि नियतष्चरंष्चंद्रायणं व्रतम॥

अर्थात् यव मध्य चांद्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास भोजन लेते हैं। इसके पश्चात् पूर्णिमा तक एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पंद्रह ग्रास तक पहुँचते हैं। इसके बाद कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाते हुए चतुर्दशी को एक ग्रास खाते हैं और अमावस्या को पूर्ण निराहार रहते हैं। इस प्रकार इस व्रत में भी 240 ग्रास ही खाने का विधान है।

(3) यति चांद्रायण

अष्टौ अष्टौ समष्नीयात् पिण्डान माध्यन्दिने स्थिते। नियतात्मा हविष्याषी यति चंद्रायणं स्मृतम्॥

अर्थात् प्रतिदिन मध्याह्नकाल में आठ-आठ ग्रास खाता रहे। इसे यति चांद्रायण कहते हैं। इसमें न किसी दिन कम करते हैं और न अधिक। इससे भी एक मास में 240 ग्रास ही खाये जाते हैं।

(4) शिशु चांद्रायण

च्तुरः प्रातरष्नीयात् पिंडान् विप्रः समाहितः। - चतुरोऽस्त मिते सूर्ये षिषुचंद्रायणं स्मृतम्॥

अर्थात् चार ग्रास प्रातःकाल और चार ग्रास सायंकाल खाएँ। यही क्रम नित्य रहता है। इस प्रकार शिशु चांद्रायण में प्रतिदिन आठ ग्रास खाते हुए एक मास में 240 ग्रास पूरे किये जाते हैं। तिथि की वृद्धि या क्षय हो जाने पर ग्रास की भी वृद्धि या कमी हो जाती है।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि इस व्रत के समय आहार स्वरूप लिया जाने वाला ग्रास कितना बड़ा होना चाहिए? ग्रास का अर्थ क्या है? ग्रास के दो अर्थ किये गये हैं- बौद्धायन का कथन है- “पिंडान प्रकृति स्थात प्राष्नति” अर्थात् साधारणतया मनुष्य जितना बड़ा ग्रास खाता है, वही ग्रास का परिमाण है।

उपर्युक्त चारों प्रकार के चांद्रायण व्रतों में आहार ग्रहण करते समय प्रत्येक ग्रास को प्रथम गायत्री महामंत्र से अभिमंत्रित करते हैं, तत्पश्चात् ( / भूः / भुवः / स्वः / महः / जनः / तपः / सत्यं / यशः / श्रीः / अर्क / इट् / ओजः / तेजः / पुरुषः / धर्मः / शिवः - इन मंत्रों के आरंभ में ( और अंत में नमः स्वाहा संयुक्त करके उस मंत्र को उच्चारण करते हुए ग्रास का भक्षण किया जाता है। यथा- “ ( सत्यं नमः स्वाहा” ऊपर जो मंत्र लिखे गये है, इनमें से उतने ही मंत्र प्रयोग होंगे जितने कि ग्रास भक्षण किये जाएँगे। उदाहरण-स्वरूप जैसे चतुर्थी तिथि को चार ग्रास लेने हैं तो - (1) ( ( नमः स्वाहा (2) ( भूः नमः स्वाहा (3) ( भुवः नमः स्वाहा (4) ( स्वः नमः स्वाहा। इन चार मंत्रों के साथ क्रमशः एक-एक ग्रास ग्रहण किया जाएगा।

चांद्रायण व्रतों के दिनों में संध्या, स्वाध्याय, देवपूजा, गायत्री जप, हवन आदि साधनात्मक-उपासनात्मक धार्मिक कृत्यों का नित्य-नियम रखना चाहिए। भूमिशयन एवं ब्रह्मचर्य पालन का विधान आवश्यक है। व्रत का संकल्प लेते समय मुंडन कराने का भी शास्त्र आदेश है, साथ-ही-साथ चांद्रायण का उत्तरार्द्ध पक्ष यह है कि जो खाई खोदी गयी है अर्थात् जो दुष्कृत्य अपने से बन पड़े है, उनकी किसी-न-किसी रूप में भरपाई की जाय। व्रत की समाप्ति पर सामर्थ्यानुसार हवन-यज्ञ ब्राह्मण या कन्याभोज, ब्रह्मभोज जैसे उपक्रम भी अपनाये जा सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118