सभ्य समाज का निर्माण किस बुनियाद पर

March 1999

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नैतिकता वह जीवन-व्यवस्था है, जिसके सहारे मानव-मंदिर का सफल निर्माण होता है। नैतिक शक्ति मानव जीवन के विकास की जड़ है। नैतिक जीवन जितना बलवान और पवित्र होगा, उसी परिमाण में व्यक्ति का विकास होता है। नैतिक निर्बलता व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा अड़ंगा है। समाज या राष्ट्र व्यक्तियों की नैतिक शक्ति पर ही पनपता है, अतः जिस देश के व्यक्तियों का नैतिक स्तर गिर जाता है, वह देश निर्बल हो जाता है। आज भारत में चारों ओर नैतिक शक्ति की गिरावट का स्पष्ट दर्शन होता है। देश में और देश के नेतृत्व में यदि सर्वव्यापी चिंता का कोई विषय है, तो वह है आज के भारत की सर्वव्यापी नैतिक गिरावट। जीवन के समस्त क्षेत्रों में चाहे वह राजनैतिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, धार्मिक हो अथवा शैक्षणिक हो, सबमें नैतिक स्तर गिरा हुआ है। इसका यह अर्थ नहीं कि देश के हर व्यक्ति का नैतिक स्तर गिरा है और समान रूप में गिरा है। आज देश में ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिनका नैतिक स्तर खूब ऊँचा है और यत्किंचित् भी उसमें कमी नहीं है। दूसरा वर्ग वह है जिसमें नैतिक स्तर के गिरावट की सीमा कुछ सीमित है और समाज में ऐसे अनेक लोग हैं, जिनका नैतिक स्तर बिलकुल गिरा हुआ है। राष्ट्र में उच्चस्तर के व्यक्तियों के होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर इसलिए गिरा हुआ दिखाई देता है, क्योंकि बहुसंख्यक जनता का स्तर गिरा हुआ है। बहुजन की स्थिति पर ही राष्ट्र की स्थिति निर्भर रहती है और इसीलिए आज संपूर्ण देश में नैतिक पतन का दृश्य दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में यदि देश को फिर से ऊँचा उठाना है, सभ्य समाज का महानता की चट्टान पर नव-निर्माण करना है, तो नैतिक शक्ति की बुनियाद पर ही ऐसा हो सकेगा। देश की सबसे प्रमुख समस्या संव्याप्त अनैतिकता ही है। उसका निवारण हर व्यक्ति की नैतिक शक्ति जगाने से ही संभव है। अब हमें यह देखना है कि नैतिक शक्ति क्या है, उसे किस प्रकार जगाया जा सकता है और उसे किस तरह परिणामकारी बनाया जा सकता है। सभ्य समाज व स्वस्थ मानव का नवनिर्माण ही नैतिकता का उद्देश्य है।

विश्व में जीवन-निर्माण के साथ जीवित रहने की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। पशु-पक्षियों में यह भावना जीवन व्यापी है। मानव के जीवन में इस भावनाशक्ति के साथ विचार-शक्ति ने जन्म लिया। मानव की बाल्यावस्था भावनामय अवस्था है। इसके बाद विचार-शक्ति का जन्म होता है और विचार-शक्ति का ही उन्नत स्वरूप विवेकशक्ति है। मनुष्य की विवेक-शक्ति जितनी परिष्कृत व उच्च होगी, उतना ही उसका नैतिक स्तर ऊँचा और प्रभावशाली होगा। विवेक मानव-जीवन की निर्णयात्मक सर्वश्रेष्ठ शक्ति है। कौन-सा कार्य उचित है और कौन-सा अनुचित, इसका निर्णय यही विवेकशक्ति करती है। यह शक्ति फिर विचारों से टकराती है और यदि विचार निम्न श्रेणी के हों तो विवेक न्याय-अन्याय का दर्शन करते हुए भी निर्बल रह जाता है और मनुष्य अन्याय मार्ग से कार्य करता रहता है। उदाहरण के लिए मनुष्य को कई प्रकार के व्यसन रहते हैं। विवेक कहता है कि व्यसन खराब हैं, हानिकारक हैं, पर व्यसन शक्ति बलवान रहती है। फलतः मनुष्य व्यसनों को त्याग नहीं सकता। दुनिया की किसी वस्तु को अनधिकार ले लेना, यह अनुचित विचार है। विवेक कहता है कि यह अनुचित कार्य है, पर उसकी आवाज निर्बल रहती है और मनुष्य अन्याय को जानते हुए भी जीवन में उसका अवलम्बन करता है। साराँश मनुष्य की विवेकशक्ति जितनी प्रभावी होगी, उतना ही व्यक्ति का नैतिक बल भी प्रभावी होगा। अतः समाज के स्वस्थ नव-निर्माण के लिए सर्वप्रथम इस बात की आवश्यकता है कि मनुष्य की विवेक-बुद्धि इतनी बलवान और जाग्रत हो कि वह अनुचित कार्य के मोह में न फँसे और जो न्याय दिखाई दे, उसी मार्ग पर जीवन को निश्चय के साथ अग्रसर कर सके।

नैतिक शक्ति का मूल स्रोत यद्यपि मानव की अंतस्थ विवेकशक्ति में है, पर यह अंतस्थ शक्ति बाह्य स्थिति से प्रभावित हुआ करती है और बाह्य शक्तियाँ इस अंतस्थ शक्ति को अपने अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया करती हैं। ये बाह्य शक्तियाँ हैं-मानव समाज की सामयिक स्थिति और व्यवस्था।

समस्त मानव-समाज का यदि अवलोकन किया जाय तो वहाँ नैतिकता मानव व्यापी दिखाई देगी। इस दृष्टि से नैतिकता ही मानव-समाज की सर्वश्रेष्ठ शक्ति है और इसकी बुनियाद पर ही देवमानव का एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होना संभव हो सकता है। नैतिकता यदि विवेक पर आधारित विश्वव्यापी बनेगी, तो वह आत्मशक्ति प्रेरित नैतिकता होगी। उस नैतिकता में निर्भयता रहेगी। वहाँ आत्मप्रेरणा का स्रोत रहेगा और मानव को अपनी जीवनीशक्ति का एक नया अनुभव आएगा। आज इस प्रकार की विश्व-व्यापी नैतिकता की माँग संसार में बढ़ रही है और यद्यपि सर्वत्र राज्य-सत्ता और संकुचित धर्म-सत्ता की प्रबलता दिखाई देती है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाला युग नैतिकता और विज्ञान शक्ति का युग होगा।

नैतिकता के क्षेत्र में दो बातों का स्पष्ट दर्शन होना चाहिए- (1) अपने मानवीय अधिकारों के रक्षण की सामर्थ्य और (2) हर कार्य में निर्भय-वृत्ति समाज में व्यक्ति के सुखों का और सामाजिक सुखों का समन्वय आवश्यक है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के सुख भिन्न-भिन्न होते हैं और जिनके पास अधिक शक्ति है, वे निर्बलों का शोषण करते हैं। निर्बल व्यक्ति शोषण को सहन करता है और जीवित रहता है, यह मानसिक अवस्था नीति युक्त नहीं। नीति का दर्शन वहाँ होगा, जहाँ व्यक्ति अपने सिद्धांतों एवं अधिकारों की रक्षा करने में समर्थ होगा और उसके लिए अपनी सारी शक्ति लगा देगा, यहाँ तक कि जीवन-समर्पण तक के लिए तत्पर रहेगा, तभी नैतिकता का सही अवलंब व्यक्ति के जीवन में दिखाई देगा। नैतिकता में अपने अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ दूसरों के अधिकारों की रक्षा का भी समावेश होता है। शक्तिशाली अनैतिक मनुष्य अपने अधिकारों की तो रक्षा करता है, पर वह निर्बलों का शोषण कर उनके अधिकारों पर आक्रमण करता है। सभ्य नीतिवान व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। अपने अधिकारों की रक्षा और अन्यों के अधिकारों का आदर उसका जीवन-लक्ष्य रहेगा। इस लक्ष्य से ही व्यक्ति और समाज के सुखों का समन्वय होकर शाँतिमय, कल्याणप्रद समाज-व्यवस्था स्थापित होगी।

नैतिकता का दूसरा लक्षण है, निर्भयता। धर्म और राजसत्ता से प्रभावित नैतिकता भयग्रस्त हुआ करती है, किंतु स्वप्रेरित नैतिकता पूर्णतः निर्भय होती है और वही स्थायी एवं सच्ची नैतिकता कहलाती है। भयपूर्ण नैतिकता की आड़ में मनुष्य छिपकर अनुचित कार्य करता है और छिपाने का प्रयत्न करता है। अनुचित कार्य करने पर वह व्यक्ति असत्य का आश्रय लेता है और जब सारा समाज असत्य की बुनियाद पर नीतिवान बनने का दावा करता है, तब अनीति सर्वव्यापी बन जाती है और समाज निस्वत्व बन जाता है। स्वप्रेरित नीतिवान व्यक्ति प्रथमतः अनुचित कार्य करेगा ही नहीं, पर किसी स्थिति में कर भी डाले तो उसे वह निर्भयता से स्वीकार कर लेता है। ऐसा करना यद्यपि समाज की दृष्टि से उचित न हो, पर नीति की दृष्टि से अनुचित नहीं होगा। कोई व्यक्ति भावनावश या अन्याय के प्रतिकार में किसी का खून कर डालता है, पर उसकी विवेक-शक्ति इतनी बलवान होती है कि वह थाने में जाकर अपने अपराध को स्वीकार करता है। शासन और धर्म के नाते भले ही उसका कार्य अनुचित हो, परंतु यदि वह निर्भयता से उसे स्वीकार करता है, तो वह व्यक्ति नीतिवान ही कहा जाएगा।

निर्भयता का दर्शन मानव-जीवन की आकांक्षाओं की पूर्ति में भी होता है और वह है कार्य की सफलता के लिए उचित साधनों का प्रयोग। नैतिकता के क्षेत्र में साध्य की अपेक्षा साधनों की शुचिता का अधिक महत्व होता है। नीतिवान व्यक्ति उचित एवं न्यायपूर्ण साधनों का ही अवलंब करता है। किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह अनुचित साधन का उपयोग नहीं करता है। ऐसी हालत में उसे निर्भयवृत्ति का परिचय देना ही पड़ता है। अनुचित साधनों का प्रयोग निर्भयता के साथ प्रायः नहीं किया जाता। अतः निर्भयता जीवन के कार्यक्षेत्र में बहुत बड़ी शक्ति है और वह शक्ति व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में नीतिमय बनाये रखने में सहायक होती है।

मानव-जीवन में अनेक गुणात्मक शक्तियाँ होती हैं। यथा-सत्य अहिंसा, अक्रोध आदि। इन सारी शक्तियों की जड़ भी निर्भयता में है। जिस

व्यक्ति के जीवन में भय है, वह दृढ़तापूर्वक सदा सत्य का पालन नहीं कर सकता। न वह अहिंसा का उपासक हो सकता है और न क्रोध को ही वश में रख सकता है।

सन्मार्ग के अवलंबन के लिए अनेक गुणों के समन्वय की आवश्यकता है। जीवन की पवित्रता और जीवन की श्रेष्ठता सन्मार्ग पर अवलंबित है। व्यक्ति और समाज दोनों की महानता व्यक्ति के गुण समन्वय पर आधारित है। सारे सद्गुणों की शक्ति का स्रोत निर्भयता है। निर्भयता में से ही अनेक गुणों का प्रवाह स्रवित होता है, जो जीवन-सरिता को सर्वत्र सन्मार्ग में प्रवाहित करता रहता है। देश की आज सर्वाधिक आवश्यकता जीवन के सर्वव्यापी क्षेत्र में सही मार्ग का अवलंब, उसका निर्भयता के साथ पालन एवं जीवन की सर्वव्यापी ऊँचाई की है। इसी में व्यक्ति के जीवन एवं समाज के विकास तथा शाँतिमय सहअस्तित्व की सफलता है।


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