सर्प हमारे शत्रु नहीं, मित्र हैं

March 1999

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सर्प को कालरज्जु कहा गया है। वह चलती-फिरती मौत जैसा है। उसको देखते ही होश उड़ जाते हैं। हुक्का-बक्का हुआ आदमी भी साँप को एक प्रत्यक्ष संकट दीखता है। दोनों के बीच में भय की भयंकरता आ खड़ी होती है। इस भयंकरता के दबाव में कितने ही अपने प्राण गँवा बैठते हैं। कुछ सर्प-दंशन से मरते हैं और कुछ आशंका-कुकल्पना के शिकार बनकर अपनी धड़कन बन्द कर लेते हैं। हाथ-पैर सुन्न होते देर नहीं लगती।

संसार में छह इंच से लेकर पंद्रह गज तक के चित्र-विचित्र साँप पाये जाते हैं। श्रीलंका के जंगलों में पाये जाने वाले बोआ सर्प 30 फुट लंबे होते हैं और वृक्ष की टहनियों से लटकते रहते हैं। साँप की कुल प्रजातियों में सिर्फ 15 प्रतिशत सर्प जहरीले होते हैं, शेष तो रस्सी का खिलौना जैसे, कीड़े-मकोड़े जैसे प्रकृति के प्राणिमात्र होते हैं।

साँप के काटने से संसार भर में पंद्रह हजार आदमी एक वर्ष में मरते हैं, किंतु आदमी एक साल में पचास हजार सर्प मार डालता है। पंद्रह हजार विषैले सर्पों में से कितने काटने के दोषी थे, यह सही-सही नहीं कहा जा सकता, पर यह कितना सत्य है कि वह निर्दोषों को नहीं काटता। ऐसी ही यह भी मिथ्या नहीं है कि अधिकाँश बेकसूर साँप भयभीत लोगों द्वारा मारे जाते हैं।

विश्व में साँपों के कितने ही पर्व प्रचलित हैं। दक्षिण अमेरिका के रेड इंडियनों का साल में एक दिन सर्प पर्व होता है। वे जहाँ भी साँपों का निवास समझते हैं, वहाँ चावल लेकर निमंत्रण देने जाते हैं। उनके पूजा-स्थल में पत्थर का एक छोटा खण्ड होता है, उसी की पूजा की जाती है। पर्व वाले दिन सैकड़ों सर्प उस पत्थर के गिर्द इकट्ठा हो जाते हैं। रेड इंडियंस उन्हें हाथ से पकड़-पकड़कर एक विशेष प्रकार की खीर खिलाते हैं। दिनभर यह क्रम चलता है। इस लोमहर्षक दृश्य को देखने के लिए दूर-दूर से लोग वहाँ एकत्रित होते हैं। जाते समय दाँतों तले उँगली दबाकर लौटते हैं। शाम होते-होते साँप भी विदा होने लगते हैं। दूसरे दिन ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते। यह पर्व उस समुदाय में लंबे समय से चला आ रहा है, पर अब तक किसी प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं घटी।

ग्रीक द्वीप सीफालोनिया में मार्कोपोलो एवं अर्जीनिया नामक गाँव के समीप होली स्नेक गिरजे में छह अगस्त की नियत तिथि को जो वर्जिन मेरी का दिन है, प्रतिवर्ष बिना बुलाये ही सैकड़ों सर्प मरियम के दर्शन करने आते हैं और 15 अगस्त, जो ईसामसीह का दिन है, तक वहाँ रहते हैं। इस दौरान सर्प मूर्ति के चरणों पर लोटते रहते हैं। दर्शकों का अप्रतिहत ताँता भी साँपों का ध्यान नहीं बँटा पाता और नौ दिनों तक वे लगातार प्रतिमा के है आस-पास चक्कर काटते रहते हैं। दसवें दिन वे जिस प्रकार आए थे, वैसे ही वापस लौट जाते हैं।

तार्किक और अविश्वासी लोग सर्वत्र पाये जाते हैं। वहाँ भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो इसे ‘झूठों का मिथ्या प्रचार’ बताते हैं। अतएव वहाँ के पादरियों ने इस भ्रम को दूर करने के लिए कुछ वर्ष पूर्व इस संपूर्ण दृश्य की एक वीडियो फिल्म बनायी, ताकि इस आश्चर्य को जनसामान्य देख-समझ सकें।

भारत में नागपंचमी बरसात का त्योहार है। शेषनाग के फन पर पृथ्वी हुई है, ऐसी मान्यता है। उस दिन सर्प दर्शन शुभ माना जाता है एवं नाग की पूजा की जाती है। कितने ही लोग उस अवसर पर उनके बाम्बियों के आगे पात्र में दूध रख आते और देव-भाव से उसे ग्रहण करने की उनसे प्रार्थना करते हैं।

यह सर्पों से संबंधित प्रचलन और मान्यताएँ हुईं। अब उनके आहार-विहार और प्रकृति की चर्चा कर ली जाए। साँप शिकार को निगलता है। चबाने लायक उसके दाँत नहीं होते। छोटे साँप एक बार का निगला हुआ एक सप्ताह में पचा पाते हैं। अजगर जैसे बड़े साँप भी हिरन या बकरी जैसी बड़ी शिकार पकड़ पकड़ लेते हैं और चार-पाँच महीने में पचा जाते हैं। इसका मध्यवर्ती अंतराल वे ऐसे ही लोट-पोट करने में गुजारते हैं।

साँप अंडज श्रेणी का प्राणी है। वह अंडे तो देता है, पर रक्त ठंडा होने से वह उन्हें सेने में समर्थ नहीं है। कुछ साँप जरायुज वर्ग के हैं और बच्चे देते हैं। जो सर्प बच्चे देते हैं, उन्हें गर्भाधान से जनन तक में 15 से 28 सप्ताह लगते हैं। अंडे देने वाले साँप अपेक्षाकृत कम समय लेते और एक बार में 4 से लेकर 100 तक अंडे देते हैं।

अधिकाँश साँप जमीन में रहते हैं, लेकिन अनेक ऐसे भी हैं, जो वृक्षों पर बसेरा करते हैं। भूमि में रहने वाले सर्प अक्सर चूहे आदि के बिलों में रहते हैं, जबकि पादपीय सर्प उनमें पाये जाने वाले गिलहरी के कोटरों में निवास करते हैं।

साँप को ‘विषधर’ कहा गया है, पर संसार में पाये जाने वाले अधिकतर सर्प विषहीन प्रकृति के होते हैं। मणिधर सर्प बहुत ही विषैला होता है। उसमें इतना घातक गरल है कि वैसे साँपों की उपस्थिति मात्र से शरीर में खाज-खुजली जैसी प्रतिक्रिया होने लगती है।

बात उन दिनों की है, जब चैतन्य महाप्रभु के कृष्ण-संकीर्तन का शुभारंभ ही हुआ था। उन्हीं दिनों महात्मा हरिदास नामक एक मुस्लिम भक्त पश्चिम बंगाल के शाँतिपुर के निकटवर्ती ग्राम फुलिया में एकांत सेवन और ईश्वर-स्मरण के निमित्त कुटिया बनाकर रह रहे थे। कुटिया गंगा किनारे एकांत में बनी हुई थी, फिर भी शाम के समय उनके दर्शन के लिए लोगों की भीड़ लगी रहती। दर्शन से उन्हें आत्मिक शाँति तो मिलती; पर पता नहीं क्यों उस दौरान दर्शनार्थियों के संपूर्ण शरीर में खुजली होने लगती। कुछ निष्णात वैद्यों ने वहाँ की जलवायु और टोपोलॉजी के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि यहाँ कोई महाविषधर सर्प होना चाहिए। इस बात को पक्का मानते हुए कुछ लोगों ने संत हरिदास से वह स्थान त्यागने का निवेदन किया। महात्मा जी ने अपनी सहमति प्रकट करने हेतु कहा कि यदि कल शाम तक उस विषधर ने इस जगह का परित्याग नहीं किया, तो वे स्वयं इसे छोड़कर अन्यत्र चले जाएँगे।

दूसरे दिन शाम को जब सब लोग वहाँ इकट्ठे थे, तो देखा कि एक टीले के निकट प्रकाश हो रहा है। धीरे-धीरे उसमें गति आई और वह गंगा के तट की ओर चल पड़ा। यह वास्तव में मणिधर सर्प ही था, जिसके सिर पर स्थित मणि प्रकाश बिखेर रही थी। उस दिन के बाद से फिर किसी को कोई शारीरिक कष्ट नहीं हुआ।

जिस सर्प को लोग साक्षात काल समझते हैं, वही कुछ लोगों के लिए खिलौने जैसा होता है। ऐसा ही एक व्यक्ति हैदराबाद के समीपवर्ती गाँव में रहता था। मुथैया नामक इस व्यक्ति को एक बार एक विषधर ने डस लिया; पर उसे हुआ कुछ नहीं। ऐसी बात नहीं कि वह जहरीला नहीं था। जब विष का बिलकुल प्रभाव नहीं पड़ा तो वह बहुत हैरान हुआ और स्वयं को विषरोधी मान लिया। इसी तरह एक बार जब वह एक किंग कोब्रा (नाग) पकड़ने का प्रयास कर रहा था, तो उसने उसे काट खाया। कुछ ही समय में वह मूर्च्छित हो गया। लगभग चार-पाँच घंटे की गहरी मूर्च्छा के बाद जब उसे होश आया, तो ऐसा लगा जैसे वह गहरी निद्रा से उठ रहा हो। अब वह बिलकुल स्वस्थ था। जहर का कहीं कोई असर नहीं था। इस संदर्भ में पूछे जाने पर मुथैया ने बताया कि वह वर्षों से नीम के दातौन का इस्तेमाल करता आ रहा है। संभव है इससे उसके रक्त में विषरोधी प्रभाव उत्पन्न हो गया हो। इसके अतिरिक्त मुथैया की दिनचर्या और आहार-विहार का क्रम बिलकुल साधारण ही था।

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में सर्पों की अगणित प्रजातियाँ देखी जा सकती हैं। सर्प विशेषज्ञों के अनुसार यह द्वीप उनका आदर्श वास-स्थान है, इसलिए संख्या के साथ-साथ प्रजातियाँ भी अधिक दृष्टिगोचर होती हैं। यहाँ एक विचित्र किस्म का ‘टाइफ्लस’ सर्प देखा जाता है। इसकी आँखें कमजोर होती हैं, जिसके कारण यह अपना रास्ता ढूँढ़ पाने में असमर्थ होता है। इसके लिए वह अपनी जीभ और नाक का इस्तेमाल करता है, जो अति संवेदनशील होती हैं। मार्ग खोजने के क्रम में पहले वह जीभ को बाहर फेंककर फिर अंदर लाता और तालू का स्पर्श कर मस्तिष्क को संदेश भेजता है, तत्पश्चात मस्तिष्क उसका मार्गदर्शन करता है। इसकी आँखें भी संवेदनशील होती हैं और दिशा संबंधी ज्ञान प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

साँप कीड़े-मकोड़ों एवं छोटे जीवों को अपना आहार बनाकर पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यदि वे ऐसा करना बन्द कर दें अथवा उनका समूल नाश हो

जाए, तो हानिकारक कीड़े-मकोड़ों की संख्या इतनी और इस कदर बढ़ जाएगी, जिससे यहाँ भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा।

सृष्टि का हर प्राणी एक वृहत श्रृंखला की कड़ी है। जिस प्रकार कड़ी के टूटने से श्रृंखला भंग हो जाती है, वैसे ही प्राणि जगत में जीवों की श्रृंखला है। यहाँ के हर छोटे-बड़े जीव उससे सम्बद्ध हैं। इनमें से यदि कोई भी प्राणि वर्ग विलुप्त हो जाए, तो पर्यावरण संबंधी भारी अव्यवस्था फैल जाएगी। इसलिए सृष्टि में उनके नियमन और संतुलन की एक स्वसंचालित प्रक्रिया है, इसमें हस्तक्षेप कर प्रकृति के स्वाभाविक क्रम को नहीं बिगाड़ना चाहिए।

साँपों के संबंध में प्रचलित अज्ञान को यदि हटाया जा सके और उनकी प्रकृति एवं उपयोगिता के संबंध में अधिक समझा जा सके, तो प्रतीत होगा कि सृष्टि का यह सुन्दर प्राणी अन्य जीवधारियों की तरह ही स्रष्टा की सुन्दर संरचना का एक आकर्षक प्रमाण है।


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