जीती जागती सिद्धियाँ एवं प्रत्यक्ष प्रमाण

October 1991

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शास्त्रों में उल्लेख है-“गायत्र्या सर्व संसिद्धिर्द्धिजानाँ श्रुति संमता।” अर्थात् वेद वर्णित सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती हैं। इस संदर्भ में देवताओं, ऋषि-महर्षियों, सिद्ध संतों, महापुरुषों ने भी अपने अनुभवों की चर्चा की है जिससे गायत्री की सर्वोपरि महत्ता का प्रतिपादन होता है और इस तथ्य का समर्थन होता कि जिन्होंने भी गायत्री उपासना का अवलम्बन लिया, उनने भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में उच्चस्तरीय सफलतायें प्राप्त कीं और आप्तकाम बने।

आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में उच्च सफलतायें प्राप्त करने वाले सिद्ध साधकों का इतिवृत्त बताता है कि इनमें से अधिकाँश ने गायत्री महाशक्ति का आश्रय लिया और आत्मोन्नति के चरम उत्कर्ष पर पहुँचे। काठिया बाबा भी उन्हीं में से एक हैं, जिन्हें गायत्री की सिद्धियाँ प्राप्त थीं।

ब्रजभूमि वृन्दावन को अपनी तपस्थली बनाने वाले काठिया बाबा कुछ समय पूर्व तक अपनी विभूतियों और ऋद्धि-सिद्धियों के कारण सर्व साधारण के केन्द्र बने हुए थे। नाम तो उनका महात्मा रामदास था, परन्तु वे काठ की कोपीन पहनते थे, इसलिए लोग उन्हें काठिया बाबा के नाम से ही अधिक जानते थे। इस काठ की कोपीन के अलावा उन्होंने शरीर पर भी कोई वस्त्र धारण नहीं किया। सिद्ध-संतों की यह विशेषता होती है कि उनके प्रारंभिक जीवन के संबंध में प्रायः किसी को विशेष कुछ मालूम नहीं होता, न वे स्वयं इसका परिचय देते हैं, क्योंकि कौन किस परिवार में जन्मा? किसका बचपन कैसे व्यतीत हुआ? यह नितान्त महत्वहीन है। लौकिक दृष्टि से किसी का जीवन चरित्र लिखने में इन बातों की आवश्यकता भले ही अनुभव हो, पर आध्यात्मिक दृष्टि से इन जानकारियों का कोई अर्थ या महत्व नहीं है। सो काठिया बाबा के सम्बन्ध में भी किसी को अधिक कुछ नहीं मालूम।

यदाकदा चर्चा प्रसंगों में वे अपने पूर्व जीवन के बारे में कोई संकेत करते भी थे तो वह केवल आध्यात्मिक जीवन से ही सम्बन्धित होता था। महात्मा रामदास को बचपन से ही गायत्री उपासना में रुचि हो गयी थी। अपने गाँव के एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर वे नियमित रूप से गायत्री जप करते थे। एक दिन कोई महात्मा उनके गाँव आये। बालक रामदास को उन्होंने वटवृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे देखा तो देखते ही रहे। ध्यान जब पुरा हुआ तो उन महात्मा ने रामदास से अकस्मात ही कहा-”बेटा तुम गायत्री उपासना करते हो न?”

“जी हाँ महाराज!” रामदास ने कहा और महात्मा के चरणों में प्रणाम कर लिया। आशीर्वाद देते हुए उन महात्मा ने कहा ‘गायत्री कामधेनु है। यह अपने उपासक की समस्त कामनायें पूरी करती है। जीवन में कभी भी इस उपासना को तुम मत छोड़ना, निरंतर प्रगति करते जाना। ‘

जिज्ञासावश रामदास ने पूछ लिया-’प्रगति के लिए क्या करूं महाराज?’

महात्मा का व्यक्तित्व इतना तेजस्वी था कि रामदास उन्हें देखते ही श्रद्धा से अविभूत हो उठे। महात्मा ने उन्हें बहुत देर तक गायत्री उपासना का मर्म रहस्य समझाया और कहा-’यदि तुम सवालक्ष गायत्री का जप कर लो तो तुम्हें गायत्री मंत्र सिद्ध हो जायगा।’

रामदास ने महात्मा जी की बतायी विधि के अनुसार ही श्रद्धा निष्ठापूर्वक सवालक्ष का गायत्री अनुष्ठान आरंभ किया। साधनाकाल में उन्हें विचित्र अनुभूतियाँ होती थीं। कभी एक विशेष प्रकार की सुगन्ध आने लगती तो कभी विचित्र दृश्य दिखाई देने लगते। जब जप के लिए बैठते तो मन ध्यान में ऐसा लगता था कि पता ही नहीं चलता कब समय बीत गया। कई बार उन्हें ध्यान करते समय ही गायत्री की छवि भी दिखाई देने लगती। ध्यान में मन इतना एकाग्र हो जाता था कि अपने शरीर की कोई सुध-बुध ही नहीं रहती थी।

इन अनुभूतियों से रामदास के मन में उथल-पुथल तो होती, पर उन्हें बताया जा चुका था कि ऐसी अनुभूतियाँ स्वाभाविक हैं और इस बात का संकेत भी कि साधना ठीक प्रकार से चल रही है। बालक रामदास प्रातः चार बजे ही उठकर और नित्यकर्म से निवृत्त होने के बाद शान्त निर्जन में स्थित उस वटवृक्ष के नीचे जा बैठते, जहाँ प्रायः कोई आना जाना न था। वहीं एकान्त में तीन-चार घण्टे तक वे साधना करते।

अनुष्ठान पूरा होने में एक सप्ताह का समय शेष था कि रामदास जी को सामने ध्यान के समय दिखाई देने वाली छवि साकार हो उठी। वह छवि गायत्री माता की ही थी। आशीर्वाद मुद्रा में दृष्टिगोचर हो रही छवि ने रामदास को इंगित कर कहा- वत्स अब तुम शेष जप ज्वालामुखी पर जाकर सम्पन्न करो।

रामदास जी ने अपनी आराध्य शक्ति का आदेश स्वीकार किया और ध्यान पूरा होते ही बिना घर की ओर मुख किये ज्वालामुखी की ओर चल दिये। ज्वालामुखी उनके गाँव से सत्तर-अस्सी मील अन्तर पर था। उन्होंने यह यात्रा पैदल ही सम्पन्न की और वहाँ जाकर शेष जप पूरा किया।

गायत्री अनुष्ठान पूरा होने के बाद भी उनकी उपासना का यही क्रम रहा। लौकिक कामनायें क्षीण हो गयीं और आध्यात्मिक चिन्तन में ही चित्त निरत रहने लगा। कहते हैं गायत्री सिद्ध होने के बाद ऐसा कुछ भी नहीं था जो उन्हें प्राप्त न हो। लौकिक कामनायें क्षीण होने के बाद उन्होंने संन्यास धारण कर लिया और केवल एक काठ की लँगोटी पहनने लगे। आप्तकाम हो के बाद उन्हें कई दिव्य शक्तियाँ-अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। उन्हें दूर दृष्टि प्राप्त थी, कहीं की भी कोई बात वे बिना बताये ही जान लेते थे। कितने ही लोगों को उन्होंने गायत्री उपासना में प्रवृत्त किया और उन्हें सफलता की मंजिल तक पहुँचाया। उनसे दीक्षा प्राप्त करने के बाद उनके शिष्यों पर कदाचित कोई संकट आता तो व उन्हें अनायास ही दूर कर देते थे। उनकी वाक्सिद्धि बड़ी विलक्षण थी, जो कह देते वह होकर रहता।

उनके निकटवर्ती लोगों को प्रायः सन्देह बना रहता था कि बाबा कोई गुप्त धन रखते थे। क्योंकि उनके पास जो भी जाता उसे वे बिना भोजन कराये ना जाने देते थे। इसलिए उनके पास रहने वाले निकटवर्ती जनों को यह सन्देह होना स्वाभाविक था। गुप्त धन को प्राप्त करने के लिए कुछ लोभी परिवार के लोगों ने उन्हें तीन बार विष भी दिया, परन्तु काठिया बाबा पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ। यही नहीं उन्होंने योगबल से यह भी जान लिया था कि विष किसने दिया है? विष देने वाले को उन्होंने बुलाकर यह बता भी दिया और उसे क्षमा भी कर दिया। यह गायत्री उपासना का ही प्रभाव कहा जाएगा कि जो उनके समक्ष जाता था, श्रद्धा से झुक जाता था। जीवन भर वे गायत्री के माहात्म्य व इनके कामधेनु का पयपान कर जीवन का सौभाग्य उदय करने का संदेश जन जन को देते रहे। जिनके मन कभी संशय उठता हो कि कहीं मंत्र जप से प्रत्यक्ष सिद्धि मिलती है, उनके लिए काठिया बाबा जैसे संत का जीवन जीता जागता प्रमाण है।

चमत्कार को नमस्कार की परम्परा में तुरन्त लाभ प्राप्त करने के लिए अगणित व्यक्ति ठगे जाते देख जाते हैं। यदि सही विधि-विधान को अपनाते हुए अपना जीवन गायत्रीमय बना लिया जाय, ब्राह्मणत्व की सच्ची साधना की जाय तो साधक के रोम-रोम में सिद्धियाँ फूट पड़ती हैं।

यह तथ्य आज भी उतना ही सही है, जितना कि प्राचीनकाल में कभी था।


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