मानवीसत्ता का अस्तित्व दो तत्वों के संयोग से है एक है-पदार्थपरक भौतिक शरीर, तथा दूसरा चेतनापरक अंतःकरण चतुष्टय। जड़ पदार्थों से विनिर्मित स्थूल शरीर में चेतना के स्पन्दन के कारण ही प्राण है। मानवी काया के भौतिक पक्ष शरीर को समर्थ, सुविकसित, स्वस्थ, सुन्दर बनाने के लिए अनेकानेक प्रयास किए जाते हैं किन्तु मानवी चेतना के परिष्कार के प्रयास बहुत कम होते दीखते हैं। चेतना के उन्नयन के लिए, मानवी अंतःकरण को पुष्ट व सशक्त बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम है-उपासना।
शरीर को अन्न, जल, वनस्पति देकर हम उसकी खुराक पूरी करते हैं, पर चेतना का ईंधन क्या हैं, इस पर बहुत कम का ध्यान जाता है। चेतना को परिपूर्ण पोषण न मिलने पर मनुष्य और पशु दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। अंतःचेतना को जीवन्त और प्रखर बनाए रखने का एक ही माध्यम है- उस महत् चेतना- परमात्मसत्ता से संबंध बनाए रखना। इस संबंध को अधिक सघन, अधिक सशक्त बनाना ही ईश्वर उपासना कहलाता है। उपासना के निमित्त जो भी पूजा उपचार किए जाते हैं, उनसे तात्पर्य, मात्र इतना है कि चेतना संस्थान को उत्कृष्टता के ढांचे में ढालने का व्यापक प्रशिक्षण दिया जाय। जो भी साधक बिना किसी उपचार के अथवा कर्मकाण्डों के सहारे अपने चेतना क्षेत्र को जितना समुन्नत बनाने का प्रयास करता है, वह उतना ही ऊँचा उठता, आगे बढ़ता व देवत्व के क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकारी बनता है।
उपासना आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने की महायात्रा पूरी करने के निमित्त नित्य की जाती है। आत्मा अर्थात् अन्तःकरण, भाव संस्थान जिसके साथ मान्यताएं आकांक्षाएं लिपटी पड़ी हैं। परमात्मा अर्थात् उत्कृष्ट आदर्शवादिता-श्रेष्ठताओं का समुच्चय। परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, वरन् सृष्टि में जितना भी देव पक्ष है, उसी का समुच्चय है। व्यापक क्षेत्र की सत्प्रवृत्तियों में समग्र रूप को आदर्शवादिता एवं सद्गुणों से भरी पूरी सत्ता को ही परमेश्वर माना जाना चाहिए। यही मनुष्य का इष्ट उपास्य है। इसी के साथ आत्मसात, घनिष्ठतम एकाकार होते जाना परमात्मा की उपासना है। यह तथ्य सर्वविदित है कि उपासक का स्तर ऊँचा होगा और उपास्य का स्वरूप वास्तविक होगा तो दोनों की घनिष्ठता का प्रभाव इसी रूप में प्रकट होगा कि उपासक उपास्य के तद्रूप बनता चला जाय। तद्रूप बनना, एकाकार हो जाना तादात्म्य हो जाना ही उपासना की चरम स्थिति हैं।
तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट भगवान की अन्तःस्थिति का समन्वय एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो अचिन्त्य है, अगोचर है, अगम्य है पर उपासना जिस परमात्मा की जाती है, वह आत्मा का ही परिष्कृत रूप हैं। वेदान्तदर्शन में उसे सोऽहम् शिवोऽहम्, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय के रूप में परमात्मा कहकर संबोधित किया गया है। उसके साथ मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है, जब दोनों के मध्य एकता, एकात्मता सामीप्य सघनतम हो। इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बँधें धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं।
उपासना वस्तुतः भावनाओं को परिष्कृत कर जीव को ब्रह्म से मिलाने की दिशा में अग्रसर करने वाली, अपनी सत्ता का अस्तित्व भुलाकर महत्सत्ता से एकाकार करने वाली भक्तियोग की प्रक्रिया है, जिसे भगवान कृष्ण ने गीता में सर्वश्रेष्ठ योग कहा है। परमात्मा के साथ आत्मा का संबंध इस माध्यम से जितना निकटवर्ती एवं सुचारु होगा, उसी अनुपात से पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला चलेगा और छोटे पक्ष, आत्मा को, जीव को, उसका लाभ मिलेगा। दो तालाबों के बीच नाली खोद दी जाए व उनका संबंध जोड़ दिया जाए तो नीचे वाले तालाब में ऊंचे तालाब का पानी दौड़ने लगता है और देखते-देखते दोनों की ऊपरी सतह समान हो जाती है। छोटे-छोटे उपकरण बिजली घरों के साथ तार से जुड़ जाने पर अपनी महत्वपूर्ण हलचलें दिखाने में समर्थ हो जाते हैं। बल्ब व पंखे चलने लगते हैं एवं बड़े-बड़े काम उस विद्युत के माध्यम से संपन्न होने लगते हैं, जो मध्यवर्ती तारों से उपकरणों में आती है। संबंध कट जाने पर तो यह यंत्र ठीक दिखाई देते हुए भी निष्क्रिय बन जाते हैं, ठीक इसी तरह ईश्वर इस ब्रह्मांड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है, जिसका एक छोटा अंश जीव को मिला हुआ है ताकि वह दैनन्दिन जीवनचर्या चला सके। उस ईश्वरीय सत्ता से, विशाल जेनरेटर से जो चेतना का उत्पादन करता है, कितनी अधिक मात्रा से विशिष्टता खींची व धारण की जा सकती है, इसी प्रयास पुरुषार्थ को उपासना कहा जाता है।
उपासना का अर्थ है समीप बैठना। “उप” उपसर्ग के साथ “आस्” धातु से उपासना शब्द बना है। पर “पास बैठना” इस शाब्दिक अर्थ से ही “उपासना” का पूरा भाव प्रकाशित नहीं होता वस्तुतः भावार्थ है किसी के पास बैठकर उससे तादात्म्यता संबंध स्थापित कर लेना। किसके साथ बैठकर? अपने उपास्य देव-श्रेष्ठता से अभिपूरित परमात्मसत्ता के समीप बैठकर उनके श्रेष्ठ गुणों को अपने अंदर ले लेना परमात्मा की अनुकम्पा का भागीदार, शेयर होल्डर, साझीदार बन जाना। तैत्तिरीय उपनिषद् में ऋषि कहते हैं यानि अस्माकं सुचरितानि। तानि त्वा उपास्यानि नो इतराणि (1/11/2) अर्थात् हे स्नातक तुमने हमारे अंदर जो उत्तम गुण देखे हैं, उन्हीं की उपासना करो, दूसरों की नहीं। यह वस्तुतः उपासना है, जिस में उपास्य देव में गुणों का ही बार बार ध्यान किया जाता है व वैसा ही बनने का प्रयास किया जाता है।
आग के पास बैठने से शरीर गर्म हो जाता है। शक्तिशाली तत्वों के जितना निकट पहुँचते हैं, उतना ही उनकी विशिष्टता का लाभ मिलता है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते-पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और ईंधन एक स्वरूप हो जाते हैं। चमकता हुआ लाल प्रदीप्त अंगारा ही शेष रह जाता है, यह है उपासना का प्रतिफल। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे झाड़ झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। पारस को छूकर अनगढ़ सा लौह खण्ड भी सुवर्ण बन जाता है। चुम्बक से कुछ समय लोहा सटा रहे, तो वह भी चुम्बक की विशेषताओं से युक्त हो जाता है। गंदा नाला भी जब पवित्र गंगा में मिल जाता है तो अपना पुराना अस्तित्व खोकर पुण्यतोया पापनाशिनी गंगा नाम से ही संबोधित किया जाता है। पानी दूध में मिलकर फिर उसी भाव बिकता है, जितना दूध। ये अगणित उदाहरण यही बताते हैं कि भक्त और भगवान की समीपता की परिणति क्या होती है व इस एकरूपता, तद्रूपता का स्तर क्या होना चाहिए?
उपासना वस्तुतः एक मंगलमय सुयोग है जिसके द्वारा छोटा पक्ष बड़े पक्ष का सहारा लेकर लाभाँवित हो सकता है। एक समर्थ वृक्ष का आश्रय पाकर बेल उससे लिपट कर आसमान चूमने लगती है।