महात्मा आनन्द स्वामी जो आर्य समाज के प्रधान रहे, उच्चकोटि के गायत्री साधक थे। 12 वर्ष की आयु तक वे देश-विदेश में गायत्री का प्रचार करते रहे। “गायत्री महामंत्र” व “आनन्द गायत्री कथा” जैसी पुस्तकों के लेखक स्वामी जी ने स्वयं के जीवन के बारे में व्यक्त किया है कि वे पढ़ने की दृष्टि से कमजोर थे। बचपन में प्रायः पिताजी की मार उन्हें खानी पड़ती थी क्योंकि पढ़ा हुआ याद नहीं रहता था। एक बार आर्य समाज के स्वामी नित्यानन्द उनके गाँव आए। उनके आतिथ्य का भार बालक खुशहाल (महात्माजी का पूर्व नाम) को सौंपा गया। उनका दुख देखकर स्वामी नित्यानन्द जी ने उन्हें गायत्री मंत्र लिखकर दिया व कहा कि “तेरे सभी रोगों की औषधि है यह। प्रातः उठकर इसका जप करने से बुद्धि भी कुशाग्र होगी व सब तेरा सम्मान करेंगे।” देखते-देखते वे न केवल पढ़ाई में अव्वल नंबर पर आने लगे, वरन् सारी प्रतिकूलताएँ समाप्त हो गयीं। ‘मिलाप’ पत्र का प्रकाशन आरंभ कर वे एक सफल पत्रकार बने। समय आने पर वानप्रस्थ लेकर गायत्री महाशक्ति के माहात्म्य के प्रचार-प्रसार तथा आर्यसमाज का संदेश घर घर पहुँचाने में उनने अपना सारा जीवन लगा दिया।
गायत्री माँ की गोद में बैठकर जिसने अमृत का पयपान किया हो, उसका हर तरह कल्याण ही होता है।