असामान्य सुयोग उपलब्ध कराने वाली नवरात्रि की साधना

October 1991

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प्रकृति जगत में ऋतुएँ वर्ष में दो बार ऋतुमती होती हैं। सर्दी और गर्मी प्रधानतः दो ही ऋतुएँ हैं। वर्षा इनके बीच आँखमिचौनी खेलती रहती है। इन दोनों प्रधान ऋतुओं का ऋतुकाल, जब प्रकृति का रज तत्व अपने पूरे यौवन पर होता है, नौ-नौ दिन का होता है। इस संधिकाल को जिसमें दो ऋतुएँ मिलती हैं, नवरात्रि कहते हैं, कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को देखकर ऋतुओं के मिलन काल की संधिवेला को आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों के रूप में अति महत्वपूर्ण बताया है।

रात्रि और दिन का मिलन प्रातःकालीन और सायंकालीन “संध्या” के नाम से प्रख्यात है। इस मिलन बेला को मनीषियों ने अध्यात्म उपचारों की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण माना है। मिलन की बेला हर क्षेत्र में उल्लास से भरी होती है। मित्रों का मिलन, प्रणय मिलन, आकाँक्षाओं और सफलताओं का मिलन कितना सुखद होता है, सभी जानते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना तृप्तिदायक व आनंददायक होगा। पुराना वर्ष विदा होते ही नया वर्ष आता है। यह दिन बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। कृष्ण पक्ष और शुक्लपक्ष के परिवर्तन के दो दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा पर्वों के नाम से जाने जाते है। अधिकाँश पर्व इसी संधिबेला में मनाये जाते हैं। दीपावली, होली, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन, हरियाली अमावस्या, शरदपूर्णिमा जैसे प्रधान-प्रधान पर्व इन्हीं ऋतुसंध्या में आते हैं। नवरात्रि की ऋतुसंध्या का महत्व भी इस प्रकार बताया गया है।

जब भी ऋतु परिवर्तन होता है, कई प्रकार की सूक्ष्म हलचलें दृश्य प्रकृति व परोक्ष जगत में होती है। चैत्र में मौसम ठण्डक से बदलकर गर्मी का रूप लेता है व आश्विन में गर्मी से बदलकर ठण्डक का। वैसे यह परिवर्तन क्रमिक गति से समय तो अधिक लेता है परन्तु इन नौ दिन विशेषों में प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल व मानवी कार्यों का सूक्ष्म कलेवर एक विशिष्ट परिवर्तन प्रक्रिया से गुजरता है। शरीर में ज्वार-भाटा जैसी हलचलें उत्पन्न होती हैं और जीवनी शक्ति पूरी प्रबलता से देह में जमी विकृतियों को हटाने के लिए तूफानी स्तर का संघर्ष करती हैं। वैद्यगण इसे लाक्षणिक उभार काल कहते हैं। बहुधा बीमारियाँ इन्हीं समयों पर अधिक होने की संभावना रहती हैं किन्तु शोधन-विरेचन आदि के उपचार इन दिनों ही कराए जाने पर विशिष्ट सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। कायाकल्प के पंचकर्म इसी कारण इन्हीं दिनों संपन्न किए जाते हैं। नीम का, गिलोय का, घृत कुमारी एवं अश्वगंधा का सेवन इन्हीं विशेष दिनों में रोग निवारण एवं स्वास्थ्य संवर्धन का द्विमुखी प्रयोजन पूरा करते देखा जाता है।

नवरात्रि पर्व को अध्यात्म क्षेत्र में मुहूर्त के रूप में विशेष मान्यता प्राप्त है। आत्मिक प्रगति के लिए वैसे कभी भी किसी मुहूर्त की प्रतीक्षा नहीं की जाती। किन्तु नवरात्रियों में प्रारंभ किए गए प्रयास संकल्पबल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस बढ़ाते चले जाते हैं। इस अवसर पर देव प्रकृति की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्मकल्याण व लोकमंगल के क्रियाकलापों में अनायास ही रस लेने लगती है। सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह इन नौ दिनों में तेजी से उभरते व मानवी चेतना को प्रभावित करते देखे जाते हैं। जीवधारियों में से अधिकांश को इन्हीं दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती है। आधे गर्भाधान आश्विन और चैत्र के दूसरे पक्षों में होते व शेष आधे पूरे वर्ष को मिला कर संपन्न होते हैं इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपनी भूमिका निभाते हैं- सूत्र संचालन किसी अविज्ञात मर्म स्थल से होता है, जिसे सूक्ष्म या परोक्ष जगत नाम से अध्यात्म क्षेत्र में जाना जाता है। वस्तुतः नव रात्रियों में सब कुछ ऐसा वातावरण रहता है, जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनती देखी जाती है।

ज्वार भाटे हर रोज नहीं, अमावस्या व पूर्णिमा को ही आते हैं। सूर्य के उदय व अस्त होते समय प्राणऊर्जा की बहुलता सूक्ष्म जगत में बनी रहती है। चिन्तन प्रवाह को अप्रत्याशित मोड़ देने वाली उमंगें नवरात्रि के नौ दिनों में विशेष रूप से उभरती देखी गयी है। इस अवधि में अन्तराल में अनायास ही ऐसी हलचलें उठती हैं, जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं, सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है, मानो अदृश्य जगत से अप्रत्याशित अनुग्रह बरस रहा हो।

नवरात्रि के नौ दिनों में शरीर व मस्तिष्क में विशिष्ट रसस्रावों की बहुलता के कारण उल्लास उमंगे जन्म लेती हैं। इनका सुनियोजन उपासना, जप, व्रत, अनुष्ठान जैसे साधनात्मक विधानों की ओर न करने पर परिणाम हानिकारक भी होता है। अपराधवृत्तियों का बाहुल्य इन्हीं दिनों देखा जाता है। देव संस्कृति में नवरात्रि पर्व के दौरान किये जानें वाले विभिन्न क्रिया कृत्यों का विधान अंतः की शक्ति को सुनियोजन देने के लिए ही है, उदाहरण के लिए गुजरात में दोनों नवरात्रियों में गरबा नृत्य संपन्न किया जाता है। भक्ति भावना की पराकाष्ठा व अंदर के उल्लास की क्रिया रूप में परिणति इस माध्यम से संपन्न होती है। महालय, दुर्गाष्टमी, पोंगल आदि पर्व ऐसी विशिष्टताओं से भरे हुए हैं। ये सभी उपक्रम उसी बेला में ही संपन्न होते हैं। तत्वदर्शी ऋषि-मनीषियों न ऐसे ही तथ्यों को ध्यान में रखते हुए नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है और इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े तो इन नवरात्रियों में तो आध्यात्मिक तप साधनाओं का सुयोग बिठा ही लेना चाहिए।

तम और सत दो ही गुण इस प्रकृति के हैं। ‘तम’ अर्थात् जड़, ‘सत्’ अर्थात् चेतन। पर इन दोनों का जब मिलन होता है तो एक नई हलचल उठ खड़ी होती है, जिसे ‘रज’ कहते हैं। इच्छा, आकाँक्षा, भोग, तृप्ति, हर्ष, प्रतिस्पर्धा आदि चित्त को व्यग्र कर विविध क्रियाकृत्यों में जुटाए रहने वाले प्रवाह ‘रज’ गुण की ही प्रतिक्रियाएँ है। साधना ‘रज’ के इन निविड़ बन्धनों से शरीर चेतना को मुक्त करने के लिए करनी होती है, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के समुच्चय से बनी जड़ चेतन मिश्रित जीवचेतना हर घड़ी अशान्त बनी रहती है। इसी के परिमार्जन परिशोधन हेतु योगसाधना व तपश्चर्या की जाती है, जिसके लिए नवरात्रि की संधिबेला से श्रेष्ठ और कोई समय नहीं।

जीव के परिमार्जन, उन्नयन एवं समस्त ऋषि-सिद्धियों, श्री-वैभव एवं कला के सोपानों को प्राप्त करने के लिए नवरात्रि में ही विभिन्न उपासनाएँ चलती हैं। रामभक्त उन दिनों रामायण का अखण्ड पाठ करते हैं व कृष्ण भक्त गीता का पारायण करते हैं। तंत्र विज्ञान के अधिकाँश कौलकर्म इन्हीं दिनों संपन्न होते हैं, वाममार्गी साधक अभीष्ट मंत्र सिद्धि के लिए इसी अवसर की प्रतीक्षा करते हैं। तंत्र साधना में कुमारी पूजन, शव साधन तथा गायत्री की कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्र वेधन, आदि की साधनाएँ विशेष रूप से इन्हीं दिनों संपन्न की जाती हैं। देवी उपासकों द्वारा दुर्गा सप्तशती का पाठ इन्हीं दिनों विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।


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