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October 1991

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गायत्री वेद जननी गायत्री पापनाशिनी।

गापत्र्यास्तु परन्नास्ति दिविचेह च पावनम्

- वशिष्ठ

गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री पापों का नाश करने वाली है। गायत्री से बड़ा और कोई पवित्र मंत्र स्वर्ग तथा पृथ्वी पर नहीं है।

वह जो गाय द्वारा खाने के बाद गोबर में निकली हों व निथारकर उसे संग्रहीत किया गया हो। स्वयं तप किए बिना वह शक्ति कहाँ से आती, जिससे अगले दिनों सारे विश्व को मथना था। इसी कारण गुरु ने आदेश दिया व शिष्य ने सिर झुकाकर उसे स्वीकार ही नहीं, चालू भी कर दिया।

“दिवमारुहत तपसा तपस्वी”हमारी श्रुतियों का आदेश है। तप में प्रमाद न करने का ऋषि-मुनियों का निर्देश है। तप से ही सृष्टि का उद्भव हुआ व सूर्य तपकर ही प्राण ऊर्जा का जगती के कण-कण में संचार करता है। यही सब प्रमाणों को साक्षी रख उनने चौबीस महापुरश्चरण भी किए व इस बीच अनेकानेक घटनाक्रम उनके जीवन में घटे। ब्राह्मण व तपस्वी सही अर्थों में वे थे व इसी कारण उन्हीं दिनों छिड़े स्वतंत्रता में उनने भागीदारी सक्रियतापूर्वक की। यहाँ तक कि बापू (महात्मा गाँधी) ने देहात के इस स्वयं सेवक से मिलना चाहा व उनसे नैनीताल में मिले। यज्ञोपवीत के नौ धागे जो उनने धारण किए थे, उसके एक-एक गुण उनके जीवन में फलितार्थ होते चले गए। सत्य, अहिंसा, अस्तेय मैत्री, ब्रह्मचर्य, साधना, स्वाध्याय, शुचिता, सेवा के एक से एक मार्मिक प्रसंग उनके जीवनक्रम में देखें जा सकते हैं। उनके अधिक विस्तार में न जाकर जब “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका का शुभारंभ हम देखते हैं तो पाते हैं कि यह छोटा सा बीजारोपण गायत्री के तत्वज्ञान के विस्तार का था। इस बीज से जो वटवृक्ष बनने वाला था, उसी की छाया में अगले दिनों गायत्री परिवार तथा युगनिर्माण योजना नामक विशाल संगठन बनना था। “एकोहं बहुस्यामि” का मूल मंत्र उनने “अखण्ड-ज्योति” के प्रकाशन से कार्य रूप में उतारना आरंभ किया व चिट्ठी की तरह निकली प्रारंभिक पत्रिका की सौ प्रतियाँ देखते-देखते हजार व लाखों में छपने लगीं। यह वस्तुतः उनकी साधना की प्रत्यक्ष सिद्धि का प्रमाण है कि आज उसी पत्रिका की पाँच लाख से अधिक प्रतियाँ आधुनिकतम मशीनों द्वारा छपती हैं व दस गुने पाठकों द्वारा पढ़ी जाती हैं। गायत्री परिवार को जन्म वस्तुतः “अखण्ड-ज्योति” ने दिया है व इसे पूज्य गुरुदेव “नवयुग के मत्स्यावतार” की उक्ति दिया करते थे,जोकि नितान्त सटीक है।

“गायत्री चर्चा” नामक स्तंभ के माध्यम से पूज्य गुरुदेव ने “अखण्ड-ज्योति” के पाठकों को प्रेरणा दी कि वे गायत्री उपासना को जीवन में स्थान दें। इसके चमत्कारी परिणामों से लेकर जीवन के ऊँचा उठने तक की बातें उनने पत्रिका,किताबों व व्यक्तिगत पत्र से सब तक पहुँचायी। जिनने सही अर्थों में गायत्री को समझा व जीवन में उसकी साधना को उतारा उसका जीवन ही बदल गया। कोई अभाव था, वह दूर होता चला गया, घर में साधन समृद्धि आ गयी व प्रतिकूलताएं मिटती चली गयीं। जीवन साधना के फलस्वरूप नीरोग, दीर्घ जीवन अनुदान रूप में मिला व सद्ज्ञान मिलते चलने से जीवन के भावी स्वरूप के प्रति दृष्टि मिली। ये प्रत्यक्ष अनुग्रह जिन्हें मिले उन्हें उनने उच्चस्तरीय कक्षाओं में चढ़ाया व उनके माध्यम से नये व्यक्तियों तक प्रेरणा पहुँचाई। देखते-देखते लाखों व्यक्ति जुड़ गए। गायत्री महाविज्ञान नामक एक विश्व कोश जिसमें गायत्री साधना संबंधी सब कुछ जो पाठक चाहते थे, वर्णित था इन्हीं दिनों पहले पाँच खण्डों में,फिर तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ। यह स्वयं में एक अभूतपूर्व रचना थी क्योंकि अब तक गायत्री महाशक्ति पर कही भी संकलित रूप में कोई ग्रन्थ नहीं था। संस्कृत में संहिताएँ सब कोई तो पढ़ नहीं सकते थे अतः सारे ग्रन्थों से सार निकाल कर अपना एक महत्वपूर्ण शोध प्रबन्ध उनने जन-जन को समर्पित कर दिया। 1948 में प्रकाशित इस ग्रन्थ के अट्ठाइस संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं व न्यूनतम पच्चीस लाख लोगों तक यह सद्ज्ञान पहुँच चुका है। अगणित व्यक्तियों की शंकाएँ मिटीं व गायत्री मंत्र जन-जन के लिए बिना किसी धर्म, जाति, मत, पंथ व लिंग के अब सुलभ हो गया है। यह क्राँति गायत्री


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