गायत्री उपासना से जुड़ी शंकाएँ व उनका समाधान

October 1991

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गायत्री मंत्र के संबंध में इन दिनों लोगों में अनेक भ्राँतियाँ और शंकाएँ विद्यमान है। इस संदर्भ में एक शंका यह उठाई जाती है कि उसके कई रूप है। कई लोग उसका भिन्न-भिन्न ढंग से उच्चारण करते देखे जाते है। वस्तुतः उसका शुद्ध रूप क्या है? इस संबंध में सारे आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर है। भूः, भुवः स्वः के तीन बीज मंत्र ओजस, तेजस, वर्चस को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए है। प्रत्येक वेद मंत्र के, आरंभ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व ‘श्री पंडित ‘ जैसे आदर सूचक संबोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार, तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मंत्र वही है, जिसे हम इन दिनों जपते-लिखते हैं। ब्राह्मणों, शूद्रों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए भी यही एक गायत्री मंत्र जपनीय और मननीय है। उनके लिए पृथक-पृथक गायत्री मंत्रों का प्रावधान नहीं है, जो ऐसा बताते है,वह उनकी मनगढ़न्त मान्यता है। वस्तुतः गायत्री का शुद्ध स्वरूप उतना ही है, जितना गायत्री परिवार के लोग जपते और जानते है।

एक अन्य चर्चा जो गायत्री मंत्र के संबंध में की जाती है, वह यह कि गायत्री मंत्र गुप्त है। इसका उच्चारण निषिद्ध है। यह प्रचार वर्ण के नाम पर स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले धर्म मंच के दिग्गजों ने अधिक किया है। विशेष कर दक्षिण भारत में यह भ्रान्ति तो सर्वाधिक है। वस्तुतः गुप्त तो मात्र दुरभिसंधियों का रखा जाता है। श्रेष्ठ निर्धारणों को खुले में कहने में कोई हर्ज नहीं। गायत्री में सदाशयता की रचनात्मक स्थापनाएँ है। उन्हें जानने समझने का सबको समान अधिकार है। ऐसे पवित्र प्रेरणायुक्त उपदेश को उच्चारणपूर्वक कहने-सुनने में भला क्यों हानि हो सकती है? किसी को पता न चलने देने की बात तो वहीं सोची जाती है जहाँ कोई कुचक्र रचा गया हो, किन्तु जिससे सद्ज्ञान संवर्धन की बात बनती हो, उसका तो उच्च स्वर से उच्चारण होना ही चाहिए। कीर्तन आरती जैसे धर्म कृत्यों में वैसा होता भी है।

स्त्रियों को गायत्री का अधिकार है या नहीं? यह आशंका सभी उठाते देखे जाते हैं धर्माचार्य भी तथा शोषक पुरुष समुदाय भी। वस्तुतः नर और नारी भगवान के दो नेत्र, दो हाथ, दो कान, दो पैर के समान मनुष्य जाति के दो वर्ग हैं। दोनों की स्थिति गाड़ी के दो पहियों की तरह मिल-जुल कर चलने और साथ-साथ सहयोग करने की है। दोनों के कर्तव्य और अधिकार समान है। प्रजनन प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए एक का कार्य क्षेत्र परिवार, दूसरे का उपार्जन उत्तरदायित्व इस रूप में बँट गये है। इस पर भी वह कोई विभाजन रेखा नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, साहित्य, राजनीति आदि में किसी भी वर्ग पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी प्रकार धर्म अध्यात्म क्षेत्र में साधना उपासना के क्षेत्र में भी दोनों को स्वभावतः समान अधिकार प्राप्त हैं। इस प्रकार की भेद-भाव भरी मान्यता मध्यकाल के अन्धकार युग की देन है, जिसमें स्त्रियों को हेय,नीच कह कर उनके अधिकार उनसे छीन लिये गये। आज की विवेकशीलता की माँग है कि उन्हें उनके अधिकार वापस दिलाये जाएँ, मंत्र जप, गायत्री यज्ञ करना-कराने का उन्हें नर के समान ही अधिकार है व यह प्रयत्नपूर्वक दिलवाने का प्रयास पुरुषार्थ शाँतिकुँज ने किया है।

गायत्री मंत्र कीलित है। उसका उत्कीलन किये बिना उसकी उपासना कैसे की जाय? यह शंका भी आज के लोगों में समय-समय पर उठती रहती है। इस संबंध में आर्षग्रन्थों ने जो समाधान सुझाया है, वह इस प्रकार है। उनके अनुसार गायत्री उपासना के दो मार्ग है एक दक्षिण मार्ग दूसरा वाम मार्ग। एक को वैदिकी, दूसरे को ताँत्रिकी कहते हैं। तंत्र शास्त्र का हर मंत्र कीलित है अर्थात् प्रतिबन्धित है। इस प्रतिबंध को हटाये बिना वे मंत्र काम नहीं करते। बन्दूक का घोड़ा जाम कर दिया जाता है तो उसे दबाने पर भी कारतूस नहीं चलता। मोटर की खिड़की लॉक कर देने पर वह तब तक नहीं खुलती, जब तक कि उसका लॉक हटा न दिया जाय। ताँत्रिक मंत्रों में विघातक शक्ति भी होती है। उसका दुरुपयोग करने पर प्रयोक्ता को तथा अन्यान्यों को हानि उठानी पड़ सकती है। अनधिकारों, कुपात्र व्यक्तियों के हाथ में यदि महत्वपूर्ण क्षमता आ जाय, तो वे आग के साथ खेलने वाले बालकों की तरह उसे नाश का निमित्त बना सकते हैं।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भगवान शंकर ने समस्त ताँत्रिक मंत्रों को कीलित कर दिया है। उत्कीलन होने पर ही वे अपना प्रभाव दिखा सकते हैं। तंत्र मार्ग में यह कार्य अनुभवी गुरु द्वारा सम्पन्न होता है। किसी रोगी को कार्य औषधि किस मात्रा में देनी चाहिए, इसका निर्धारण कुशल चिकित्सक रोगी की स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरान्त ही करते हैं। यही बात मंत्र-साधना के संबंध में भी है। किस साधक को किस मंत्र का उपयोग किस कार्य के लिए किस प्रकार करना चाहिए, इसका निर्धारण ही उत्कीलन है।

यह ताँत्रिक साधनाओं का प्रकरण है। वैदिक-पक्ष में इस प्रकार के कड़े प्रतिबन्ध नहीं है, क्योंकि वे सौम्य है। उनमें मात्र आत्मबल बढ़ाने और दिव्य क्षमताओं को विकसित करने की शक्ति है। अनिष्ट करने के लिए उनका प्रयोग नहीं होता। इसलिए दुरुपयोग का अंश न रहने के कारण सौम्य मंत्रों का कीलन नहीं हुआ है। उनके लिए उत्कीलन की वह प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती, जैसी कि तंत्र-प्रयोजनों में। फिर भी उपयुक्त शिक्षा एवं चिकित्सा के लिए उपयुक्त निर्धारण एवं समर्थ सहयोग-संरक्षण की तो आवश्यकता रहती ही है। बिना मार्गदर्शक, बिना सहयोग संरक्षण के एकाकी यात्रा पर चल पड़ने वाले अनुभव हीन यात्री को जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, वे ही स्वेच्छाचारी साधकों के सामने बनी रहती हैं।

इस दृष्टि से मार्गदर्शक इतनी मात्रा में तो सभी साधनाओं के लिए आवश्यक है कि उन्हें अनुभवी संरक्षण में सम्पन्न किया जाए, स्वेच्छाचार न बरता जाय। जो इस प्रयोजन को पूरा कर सकें समझना चाहिए कि उनकी गायत्री साधना का उत्कीलन हो गया और उनकी सफलता सुनिश्चित हो गई।

कई जगह ऐसा कहा या सुना जाता है कि गायत्री मंत्र को शाप लगा हुआ है। इसलिए शापित होने कारण कलियुग में उसकी साधना सफल नहीं होती। ऐसा उल्लेख किसी आर्षग्रन्थ में कहीं भी नहीं है। मध्यकालीन छुट-पुट पुस्तकों में ही एकाध जगह ऐसा प्रसंग आया है। इनमें कहा गया है कि गायत्री को ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र ने शाप दिया है कि उसकी साधना निष्फल रहेगी, जब तक उसका शाप मोचन नहीं हो जाता। किन्तु यह प्रसंग बहुत विचित्र एवं असमंजस पैदा करने वाला है। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार गायत्री ब्रह्माजी की अविच्छिन्न शक्ति है। कही-कहीं तो उन्हें ब्रह्मा की पत्नी भी कहा गया है। वशिष्ठ वे हैं, जिनने गायत्री के तत्वज्ञान को देवसत्ता से हस्तगत करके मानवोपयोगी बनाया। विश्वामित्र इसी


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