गायत्री मंत्र में निहित प्रचण्ड शब्द सामर्थ्य

October 1991

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शब्द-शक्ति में निहित अकूत सामर्थ्य की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसमें इतनी क्षमता विद्यमान है कि इस विराट ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति भी इसी शब्द-शक्ति से हुई बतायी जाती है। मंत्रों में इसी शब्द शक्ति को भिन्न-भिन्न रूपों में क्रियान्वित हुआ देखा जा सकता है।

वैसे तो दैनिक जीवन में भी कटु व प्रेम भरे शब्दों की क्रिया-प्रतिक्रिया हम देखते सुनते रहते हैं, पर वर्तमान समय का सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाने वाला क्षेत्र-पदार्थ विज्ञान के विशेषज्ञों ने भी इसके अद्भुत सामर्थ्य को न सिर्फ स्वीकारा है, वरन् अब वे विभिन्न क्षेत्रों में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग करने लगे हैं।

“एचीवमेण्टस् ऑफ फिजिकल रिहैबिलिटेशन” नामक पत्रिका में इसी संदर्भ में एक घटना का विवरण छपा है, जिसके अनुसार एक महिला हाथ के पक्षाघात से इस कदर पीड़ित थी, कि वह उससे कोई काम करना तो दूर, उसे हिला-डुला भी नहीं सकती थी, किन्तु जब उसके उक्त हाथ का पराध्वनि चिकित्सा पद्धति से कुछ दिनों तक उपचार किया गया, तो वह बिल्कुल स्वस्थ हो गई और सामान्य महिला की तरह जीवन बिताने लगी। इसी प्रकार की कर्णातीत ध्वनियों का प्रयोग सालवेंट्री हास्पिटल पेरिस में करके अगणित रोगियों को दुःसाध्य रोगों से छुटकारा दिलाया गया। माउण्ट सिनाई अस्पताल, न्यूयार्क में ऐसे ही एक बार एक ऐसा मरीज लाया गया, जो बुरी तरह जल गया था, किन्तु ध्वनि चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञों ने उसे कुछ महीनों के इलाज द्वारा पूर्णतः ठीक कर दिया।

जब इतनी सामर्थ्य सामान्य स्तर की ध्वनियों में हो सकती है, तो मंत्र तो विशेष प्रयोजन के लिए विशेष प्रकार से ऋषियों द्वारा निर्मित किये गये है। उनमें क्षमता भी विशिष्ट स्तर की हो,तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर चौबीस शक्ति पुँज के प्रतीक है। इसमें अक्षरों का गुँथन कुछ इस प्रकार किया गया है कि जब उसका मंत्रोच्चार किया जाता है, तो एक विशेष प्रकार की ध्वनि-तरंगें निःसृत होती हैं, जो साधक के षट्चक्रों, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं एवं ऐसे ही अनेकानेक सूक्ष्म अवयवों पर, लक्ष्य पर चलायी गई गोली की तरह असर करती है। यदि साधक कुछ दिनों तक निष्ठापूर्वक संलग्न रहें, तो उसका प्रतिफल भी हस्तामलकवत् परिलक्षित होने लगता है। यह ध्वनि-विज्ञान पर आधारित इसके विशेष अक्षर क्रम का प्रभाव है। तंत्र शास्त्र में ह्रीं क्लीं श्रीं, हौं, जों, क्षः, फट, जैसे कितने ही एकाक्षरी और द्विअक्षरी बीजमंत्र है, जिनका प्रकट में न तो कोई अर्थ निकलता है, न भाव, फिर भी जब इनका प्रयोग किया जाता है, तो वे लक्ष्य की ओर दनदनाती गोली की तरह भागते और कुछ क्षण में अपना चमत्कार कर दिखाते हैं।

संगीत शास्त्र के विशारद जानते है कि सितार वाद्य में सिर्फ तारों का क्रम ही पर्याप्त नहीं है, बजाने वाले की उँगलियाँ किस प्रकार थिरकती हैं, महत्वपूर्ण यह भी है। मात्र वाद्य यंत्रों में तारों का क्रम और गुँथन ही सब कुछ नहीं होता। मंत्र का शब्द संधान और साधक की विधिवत् उच्चारण प्रक्रिया-इन दोनों का समन्वय न सिर्फ साधक के अन्तः करण में वरन् अंतरिक्ष में भी एक विशिष्ट प्रकार की स्वर लहरी निनादित करते हैं। इनके प्रभाव से साधक के अन्तराल और सूक्ष्म जगत में शक्ति उपार्जित होने लगती है, जो मंत्रानुष्ठान के फलस्वरूप उपलब्ध होती हुई मानी गई है।

यों तो सद्बुद्धि के याचनापरक आर्षग्रन्थों में ढेरों मंत्र हैं। अन्य भाषाओं में भी ऐसी कितना ही कविताएँ मौजूद हैं। यदि अर्थ मात्र की ही बात रही होती, तो उन कविताओं और गायत्री मंत्र में कोई अंतर नहीं होता। कविता की दृष्टि से गायत्री मंत्र में छन्द दोष बताया जाता है। आठ-आठ अक्षर के तीन चरण होने पर शुद्ध गायत्री छन्द बनता है। इस प्रकार देखा जाय, तो गायत्री मंत्र में 23 अक्षर ही होते हैं, किन्तु ऋषियों-मनीषियों ने इसमें 24 अक्षर स्वीकार किये हैं और “ण्यं” ये उच्चारण को ध्यान में रखते हुए उसे “णियम्” बना कर, चौबीसवें अक्षर होने की पुष्टि की है। यह चौबीसवाँ अक्षर पूर्णतः उच्चारण शास्त्र पर आधारित है। रचयिताओं को निश्चय ही इस त्रुटि का ध्यान रहा होगा, फिर भी उन्होंने शब्द गुँथन से उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रवाह को ही महत्व दिया और उस रूप में रचा जैसा कि अब है।

मंत्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि प्रवाह साधक की समग्र चेतना को प्रभावित करता है और उसके कंपन अंतरिक्ष में बिखरी हुई परिस्थितियों को अनुकूल बनाते हैं, साथ ही साधक के स्थूल, सूक्ष्म कारण शरीरों में अनेक आवश्यक और उपयोगी परिवर्तन करते हैं। कोई भी शक्ति सबसे पहले अपने उत्पादन स्थल को प्रभावित करती है, फिर उसकी क्षमता अगले क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाती हुई आगे बढ़ती है। आग जहाँ लगेगी पहले वहीं स्थान गरम होगा, बाद में उस गर्मी का विस्तार अगले क्षेत्र में फैलता चला जायेगा मंत्र साधना से सबसे अधिक प्रभावित साधक का व्यक्तित्व ही होता है।

मंत्र साधना ध्वनि प्रधान होने के बावजूद उसके फलीभूत होने में और तीन प्रधान तथ्य काम करते हैं-(1) संयम (2) उपकरण (3) विश्वास शब्द संरचना और उच्चारण की शुद्धतायुक्त ध्वनि ही सार्थक होती है- यह तो सर्वविदित तथ्य है, किन्तु साधक के शरीर के शारीरिक-मानसिक संयम की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उपासना के दौरान माला, स्थान, उपकरण, उपचार आदि में प्रयुक्त हुए पदार्थों की शुद्धता का भी ध्यान रखना पड़ता है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है मंत्र के प्रति अटूट विश्वास। यह सभी बातें जहाँ भली-भाँति प्रयुक्त होती हैं, वहाँ मंत्रोपासना का प्रतिफल भी निश्चित रूप से दृष्टिगोचर होता है।

तंत्र शास्त्र में हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहा गया है। इन दोनों को ‘प्राण’ और ‘रयि’ नाम भी दिये गये हैं। भौतिकी के शब्दों में इन्हें ‘धन’ और ‘ऋण’ विद्युत प्रवाह भी कह सकते हैं। जिह्वा से मंत्र उच्चारण होता है। यह हलचल हुई। इसके भीतर जितनी शक्ति होगी उतना ही बढ़ा-चढ़ा प्रभाव उत्पन्न होगा। यह प्रभाव हृदय के बिजली घर से उत्पन्न होता है। यहाँ हृदय से तात्पर्य उस भावना स्तर से है, जो कृत्रिम रूप से नहीं, व्यक्ति की मूल सत्ता के आधार पर विनिर्मित होता है। हृदय को अग्नि और जिह्वा को सोम कहा गया है। दोनों के समन्वय से चमत्कारी आत्मशक्ति उत्पन्न होती है। भावना और कर्म की उत्कृष्टता से मंत्र साधना प्राणवान बनती है- इस रहस्य को यदि समझा और अपनाया जा सके तो किसी को भी इस क्षेत्र में निराश न रहना पड़े।

महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमाँसा में मंत्र शक्ति के विकास की चर्चा करते हुए उसके चार आधार बताये हैं-(1) प्रामाण्य-अर्थात् मनगढ़ंत नहीं, विधि के पीछे सुनिश्चित विधि-विधान होना। (2) फलप्रद-अर्थात् जिसका उपयुक्त प्रतिफल देखा जा सके (3) बहुलीकरण-अर्थात् जो व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करे (4) आयातयामता-अर्थात् साधक के श्रेष्ठ व्यक्तित्व की क्षमता। इन चारों तत्वों का समावेश होने से मंत्र प्रक्रिया में दैवी शक्ति का समावेश होता है और उसका चमत्कारी प्रतिफल देखा जाता है।

विश्वामित्र, वशिष्ठ, परशुराम आदि ने ऋषि श्रेष्ठों गायत्री शक्ति की आराधना करके दिव्य प्रतिफल प्राप्त किये थे, किन्तु सामान्य व्यक्ति वैसा नहीं कर पाते। इसमें मंत्र की श्रेष्ठता एवं उपासना की गरिमा का दोष नहीं। साधक का ओछा व्यक्तित्व अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करने योग्य न होने से ही निराशा हाथ लगती है।


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