महर्षि विश्वामित्र ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ऋषि है। गायत्री मंत्र का प्रथम दर्शन वैदिक युग के क्राँति काल में ऐतिहासिक महर्षि विश्वामित्र के माध्यम से ही हुआ हैं। उनका जीवन देखने पर पता चलता है कि वे कर्म के अनुसार आर्य जाति का अस्तित्व मानते थे और यह विश्वास रखते थे। आर्य धर्म का पालन और गायत्री जप करके दस्यु-दुर्दान्त व्यक्ति भी आर्यधर्मी हो सकता है।
महर्षि वशिष्ठ ने व्यवस्था दी कि विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ है। अतः वे तपस्या करने पर भी केवल राजर्षि हो सकते हैं। ब्रह्मर्षि कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। विश्वामित्र ने इन सब रूढ़ियों का विरोध किया। वशिष्ठ का एक अनुयायी त्रिशंकु जब निराश होकर संदेह स्वर्ग जाने की इच्छा लेकर उनके पास आया तो उनने नरक व स्वर्ग की व्याख्या कर उसे समझाया कि नरक और स्वर्ग सब इसी जीवन में हैं। यद्यपि आगे चलकर त्रिशंकु का पतन हुआ किन्तु इतिहास साक्षी है कि वह विश्वामित्र की कृपा से ही मुक्त हो कर स्वर्ग का अधिकारी एक बार बना था।
उनकी सभी परीक्षाओं के अंत तक गायत्री साधना ने उनके ब्रह्मवर्चस् की रक्षा की व अन्त में मुनि वशिष्ठ ने भी कर्म के अनुसार जाति का अस्तित्व स्वीकार करके उन्हें ब्रह्मर्षि कहकर संबोधित किया था।
वह प्रक्रिया है जिसमें शरीर रूपी रेडियो को ईश्वर की अनेक शक्तियों के साथ ‘ट्यून’ करना होता है। जिसके द्वारा ईश्वर के महासागर में से, विपुल वैभव में से हम अपनी आवश्यकताएँ एवं सम्पदायें प्राप्त कर सकते हैं। उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठ को कार्यान्वित होते देखकर ही ऐसी मनःस्थिति बनती हैं। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही सचमुच ही सामने विराजमान है और उनकी किसी
जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर की जान जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। यदि उतने समय शरीर रहित भौतिक प्रभावों से मुक्त ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महाज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप पतंग जैसी आकाँक्षा उठ रही है,तो समझना चाहिए कि उपासना का स्वरूप अपना लिया गया और उससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है।
उपासना फलीभूत तब होती है, जब इष्ट निर्धारण स्पष्ट होता है। प्रगति के किस बिन्दु तक पहुँचना है, इसका सुदृढ़ निश्चय होना आवश्यक है। भव्य भवन बनाने के लिए एक श्रेष्ठ आर्चीटेक्ट से अभीष्ट निर्माण का नक्शा बनवाया जाता है। वस्तुतः इष्ट निर्धारण से मन को एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ने और तदनुरूप प्रयास करने हेतु साधन जुटाने का मार्ग मिल जाता है। जिस स्तर का तादात्म्य इष्ट के साथ है, उसी स्तर की अन्तःक्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियाँ जागने लगती हैं। परब्रह्म के शक्ति भण्डार में से इसी स्तर की अनुग्रह वर्षा भी आरंभ हो जाती है।
ईश्वरीय सत्ता का मनुष्य में अवतरण “उत्कृष्टता” के रूप में होता है। चिन्तन और चरित्र में उच्च स्तरीय उमंगे उभरने लगती हैं तथा उसी स्तर की गतिविधियाँ चल पड़ती हैं। उत्कृष्टता की उपासना ही ईश्वर की उपासना है। उपास्य, लक्ष्य, इष्ट इसी को बनाना पड़ता है। प्राचीन काल में इस संबंध में तत्वज्ञानियों ने एकमत हो स्वीकार किया था कि आत्मिक प्रगति की साधना के लिए इष्ट रूप में गायत्री का ही वरण होना चाहिए। सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी ने कमल पुष्प पर बैठ कर आकाशवाणी द्वारा निर्देशित गायत्री उपासना की थी और सृष्टि सृजन का सामर्थ्य प्राप्त किया था। त्रिदेवों की उपास्य गायत्री ही रही है।
यों गायत्री का स्थूल रूप चौबीस अक्षरों के एक शब्द गुच्छक के रूप में है और उसकी प्रतिभा हंसारूढ़ देवी के रूप में बनती है। किन्तु यह नाम और रूप का निर्धारण है। चिन्तन को किसी दिशा में आगे बढ़ाने के लिए नाम, रूप का अवलम्बन अनिवार्य है। श्रद्धा का आरोपण संवर्धन इस प्रतिभा प्रतिष्ठापन के सहारे महज-सुलभ रीति से अग्रगामी बनता है। मानवी श्रद्धा ही अपनी अभिरुचि एवं आकाँक्षा के अनुरूप किसी केन्द्र बिन्दु का, आस्था का समीकरण करती है उसे सशक्त बनाती है और उससे असाधारण लाभ उठाती है। जिसे साकार रूप में मानना हो वह एकलव्य के द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली की तरह गायत्री माता के रूप में उनका भाव निर्धारण कर सकता है। जो निराकार रूप में मानते हो, वे उत्कृष्टता के रूप में ऋतम्भरा, प्रज्ञा के रूप में, सविता के स्वर्णिम प्रकाश के रूप में महामंत्र के शब्दार्थ में छुपे हुए भाव के अनुरूप परमात्मा के गुणों के रूप में मानते हुए अपनी उपासना को गतिशील कर सकता है।