साकार एवं निराकार उपासना की पृष्ठभूमि

October 1991

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आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य यह है कि आत्मा का हर दृष्टि से विकास विस्तार परमात्मा के समतुल्य हो। बूँद समुद्र में मिले। छोटा निर्झर गंगा में अपने आपको समर्पित करके अपनी लघुता को महानता में विकसित करे। ईश्वर व्यापक है-जीव सीमित। ईश्वर दिव्यता का समुद्र है- जीव पर मलिनता की परत छायी हुई है। अतः उस परत को हटाना और ईश्वर की दिव्यता का साक्षात्कार आत्मा को कराना ही समीपता-सायुज्यता- तद्रूपता अथवा दूसरे शब्दों में उपासना है।

ईश्वर इतना विराट है कि उसके समग्र स्वरूप एवं क्रियाकलापों को न तो उपकरणों के माध्यम से प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष किया जा सकता है और न मानवी बुद्धि अपनी समीपता के कारण उस असीम की विवेचना कर सकती हैं। “अणोरणीयान् भहती महीयान्” की व्याख्या विवेचना तो नहीं पर अंतरात्मा के मर्म स्थल में अनुभूति हो सकती है। इस अनुभूति के दो आधार हैं- एक साकार दूसरा निराकार उपासना। साकार परमेश्वर यह विश्व ब्रह्मांड है। शिवलिंग और शालिग्राम की गोलमटोल प्रतिमाएँ इसी के प्रतीक रूप में गढ़ी गई हैं। भगवान राम ने कौशल्या और काकभुशुंडि को-भगवान कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को यही अपना विराट रूप दिखाया था। साकार ईश्वर की उपासना लोकमंगल के सत्प्रयोजनों में संलग्न रह कर की जा सकती है।

निराकार ईश्वर भाव सम्वेदनाओं और उत्कृष्ट विचारणाओं में परिलक्षित होता है, उन्हीं की प्रेरणा से आदर्श कर्तृत्व बन पड़ता है। अंतरंग जीवन में निराकार ईश्वर की प्रतिष्ठापना करनी होती है और बहिरंग क्रियाकलाप में विराट विश्व के लिए अपने साधनों को समर्पित करना होता है।

साकार उपासना में इष्ट के समीप अति समीप होने और उनके साथ लिपट जाने, उच्च स्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना की जाती है। इसमें भगवान और जीव के बीच माता-पुत्र, पति-पत्नि, सखा-सहोदर, स्वामी-सेवक जैसा कोई भी सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है। इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में सहायता मिलती है। नवधा भक्ति में ऐसे ही आदान-प्रदान की वस्तुपरक अथवा क्रियापरक कल्पना की गई हैं। मूलतः लक्ष्य एक ही है कि भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति करने वाला आदान-प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी अहंता को क्रिया, विचारणा, भावना रूपी संपत्ति को भगवान के चरणों पर अर्पित करते हुए सोचता है, यह सारा वैभव उसी दिव्य सत्ता की धरोहर है।

साकार उपासना में नर और नारी की दोनों ही आकृतियों में परब्रह्म की प्रतिमा बनाई जाती रही है। दोनों में पवित्रता, कोमलता, उदारता, सेवा, समर्पण, स्नेह, वात्सल्य जैसी भावनाओं के आधार पर देखना हो तो नारी की गरिमा अधिक बैठती है। नारी दानी है और नर उपकृत। ईश्वर की प्रतिमा को किस रूप में माना जाय? इस दृष्टि से विवेक का झुकाव नारी पक्ष में जाता है। अधिक अच्छा यही है परब्रह्म को नारी रूप में-मातृसत्ता का प्रतीक मानकर चला जाय।

गायत्री माता के रूप में परब्रह्म की स्थापना सर्वोपयोगी है। उसके सान्निध्य में माता की गोदी में खेलने वाले बालक को मिलने वाले वात्सल्य एवं पयपान जैसे स्थूल-सूक्ष्म लाभों की अनुभूति होती है। सोलह वर्ष की सुन्दर कन्या में मातृसत्ता के दर्शन करने से नारी के प्रति अचिन्त्य चिंतन का जो प्रवाह इन दिनों चल पड़ा है उसे रोकने और भाव भरी दिव्य श्रद्धा की प्रतिमा उसे मानने की, जन चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से भी यह स्थापना अतीव उपयोगी है। गायत्री माता का वाहन हंस माना गया है। हंस अर्थात् स्वच्छ, धवल, कलेवर, नीर क्षीर विवेक का प्रतिनिधि, मोती चुगने या लंघन करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ। वास्तव में यह परिभाषा आध्यात्मिक हंस की हैं। संकेत यह है कि परमात्मा की दिव्य शक्ति को धारण करने के लिए साधक को अपनी उत्कृष्टता हंस स्तर की विकसित करनी चाहिए। उसे क्रियात्मक स्थूल जीवन में धर्मपरायण विचारात्मक, सूक्ष्म जीवन में विवेकवान और आस्थापरक, अन्तः प्रवेश में सद्भाव सम्पन्न होना चाहिए। गायत्री माता के एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में जल कमण्डलु होने के पीछे भी सद्ज्ञान और शान्तिदायक सत्कर्मों की धारणा का संकेत है।

उपासना सार्वभौम सार्वजनीन बन सके इसके लिए आवश्यक है निराकार उपासना को भी मान्यता मिले। इस दृष्टिकोण से सविता देवता की उपासना एवं ज्ञान ज्योति दिव्य ज्योति की उपासना सार्वभौमिक हो सकती है, निराकारवादी अन्तर्मुख होकर दिव्य-ज्योति के रूप में परमात्म सत्ता का दर्शन करते हैं और इसे सूर्य का प्रतीक मानते हैं। आध्यात्म साधना में अग्निपिंड सूर्य की प्रतिमा भर माना गया है। उसकी मूल सत्ता दिव्य ज्ञान कही गई है। निराकार प्रज्ञा तत्व का साकार रूप सविता है अर्थात् सद्ज्ञान को अन्तःकरण में आलोकित करने वाला प्रकाशवान परब्रह्म। सूर्य की उपासना करते हुए यह अनुभूति विकसित की जाती है कि वह आलोक साधक के शरीर मन और अन्तरात्मा में स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों में सक्रियता सद्ज्ञान एवं सद्भाव बनकर प्रकाशवान हो रहा है। इस प्रकार सूर्य को न केवल आलोक दर्शन की दिव्य प्रक्रिया मात्र मानकर बात समाप्त कर दी जाती है। वरन् उसकी आभा से आत्मसत्ता को पूरी तरह प्रकाशित एवं प्रभावित भी देखा जाता है। निराकार उपासक के लिए भी भगवान व्यक्ति बन जाता है और उसे स्थान विशेष पर प्रतिष्ठित नहीं वरन् व्यापकता के सहित अनुभूति में उतारा जाता है।

साकार अथवा निराकार मान्यताओं की, महत्ताओं की महत्ता अपने स्थान पर है किन्तु वास्तविक महत्ता उपासना रूपी उस राजमार्ग की है, जिसमें ईश्वर के साथ एकाकार हो जाने, समुद्र में बूँद का अस्तित्व मिला देने एवं पतंगे की तरह दीपक की लौ में प्राण न्यौछावर करने की आकुलता एवं श्रेष्ठ बनने का विश्वास मुख्य होता है। दृढ़ विश्वास एवं आकुलता तड़पन वह आकर्षण है जो हमें इष्ट तक ले जाने एवं तद्रूप बना देने में समर्थ है। कहा जाता है कि भृंग नाम का कीड़ा झींगुर पकड़ लाता है और उसके सामने निरन्तर गुँजन करता रहता है। उस गुँजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मन स्थिति भृंग जैसी हो जाती है, वह अपने को भृंग समझने लगता है। अस्तु धीरे-धीरे उसका शरीर ही भृंग रूप में बदल जाता है। रामकृष्ण परमहंस जब स्त्रैण साधना कर रहे थे, तो उनकी मान्यताओं एवं भावनाओं के आधार पर स्त्रियोचित गुण ही नहीं शारीरिक लक्षणों का भी प्रकटीकरण होने लगा था। झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप मान्यताओं पर ही आधारित है। जिस चिकित्सक पर विश्वास होता है उसकी झाड़फूँक और राख भभूत भी संजीवनी बूटी का काम करती हैं, जिस पर सन्देह हो उस सुयोग्य चिकित्सक की उपयोगी दवा भी काम नहीं करती हैं।

ईश उपासना वह आकर्षण एवं वह चुम्बकत्व है जो ईश्वरीय विभूतियों ऋद्धि-सिद्धियों दैवी गुणों एवं महानता को खींच ले आती है। उपासना


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