युग परिवर्तन एवं गायत्री महाशक्ति का अवतरण

October 1991

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युग परिवर्तन अपने समय का एक सुनिश्चित तथ्य है। इस विश्व उद्यान का सृजेता अपनी इस अनुपम संरचना को इस तरह नष्ट भ्रष्ट होने नहीं देना चाहता जिस तरह वसुधा इन दिनों विनाश के गर्त में जा गिरने के लिए द्रुतगति से बढ़ती जा रही है। मनुष्य परम पिता परमात्मा के वर्चस् और वैभव का प्रतीक है। सारा कौशल एकत्र कर बड़े अरमानों के साथ बनाने वाले ने उसे बनाया है। किन्तु जब वही सामूहिक आत्महत्या के सरंजाम जुटा रहा हो एवं उसका बुद्धि वैभव रूपी भस्मासुर संस्कृति की पार्वती को हथियाने और शिव को मिटाने पर उतारू हो रहा हो तो “यदा यदा हि धर्मस्य---” का आश्वासन निष्क्रियता ओढ़े ऐसे ही नहीं रह सकता। सन्तुलन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नियति को अपने नियमन का गतिचक्र चलाना ही था। सो वह इन्हीं दिनों संपन्न हो रहा है। जिन्हें पूर्वाभास की संवेदन शक्ति उपलब्ध है, वे देखते हैं कि निशा बीत गई और ऊषा की मुसकान आने में अब बहुत विलम्ब नहीं है।

भगवान के अवतार, समय की आवश्यकता के अनुसार अपने स्वरूप और कार्यक्षेत्र को विनिर्मित करते रहे हैं। जब जिस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं तब उसी संतुलन को सही करने के लिए सूक्ष्म जगत में एक दिव्य चेतना प्रादुर्भूत हुई है। सृष्टि के आदि में सब ओर जल ही जल था तब उस क्षेत्र की अव्यवस्था को मत्स्यावतार ने संभाला था। जल और थल पर जब छोटे प्राणियों की हलचलें बढ़ीं, तो तदनुरूप क्षमता वाली कच्छप काया उस समय का संतुलन बना सकी। उन्हीं के नेतृत्व में समुद्र मंथन का पुरुषार्थ संभव हुआ। हिरण्याक्ष द्वारा जल में समुद्र में छिपी सम्पदा को ढूँढ़ निकालने तथा तस्कर का दमन करने में वाराह रूप ही समर्थ हो सकता था, वही धारण भी किया गया।

उच्छृंखलता बढ़ने पर नृसिंहों की आवश्यकता पड़ती है व उनका ही पराक्रम अग्रणी रहता है। भगवान ने उन दिनों की आदिम परिस्थितियों में नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझकर ही दुष्टता के दमन हेतु कदम उठाए। संकीर्ण स्वार्थ, संचय व उपभोग की पशु प्रवृत्ति बढ़ने पर उदारता के विस्तार की आवश्यकता पड़ी ताकि संपन्नों को वितरण के लिए स्वेच्छा सहमत किया जाय। यही वामन अवतार है।

परशुराम, राम, कृष्ण व बुद्ध के अवतार इसकी अगली कड़ी में हैं। सबके अवतरण का लक्ष्य एक ही था बढ़ते हुए अनाचार का प्रतिरोध और सदाचार का समर्थन-पोषण। परशुराम ने सामन्तवादी आधिपत्य को शस्त्रबल से निरस्त किया। श्रीकृष्ण ने छद्म से घिरी हुई परिस्थितियों को शमन करने हेतु “विषस्य विषमौषधम्” का उपाय अपनाया। उनकी लीलाओं में इसीलिए कूटनीतिक दूरदर्शिता की प्रधानता है। भगवान बुद्ध ने धर्मत्व में विकृतियों के समावेश को देखते हुए धर्म व्यवस्था, सज्जनों के संगठन एवं विवेक को सर्वोपरि मानने का प्रवाह बहाया था। ‘धर्मं शरणं गच्छामि’ से लेकर ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ तक का शंखनाद ही बुद्ध का लीला संदोह है।

अतीत के कुछ प्रसंगों में दुष्टता की उद्दण्डता ही विश्व विनाश के लिए उभरती रही है। फलतः उसे निरस्त करने के लिए शस्त्रधारी भगवान अवतरित होते रहे हैं। वाराह के दाँत, नृसिंह के नख, परशुराम का फरसा, श्रीराम का धनुष व श्रीकृष्ण का चक्र उसी प्रसंग में सहज ही सामने आ जाते हैं। इस बार दुष्टता नहीं, भ्रष्टता का उभार है। उसके लिए बुद्ध की परम्परा ही कारगर हो सकती है। प्रज्ञावतार ही बुद्धावतार का उत्तरार्ध या दशावतार है एवं युग चण्डी का साक्षात्कार दुष्टता व भ्रष्टता के प्रखर व उच्चस्तरीय उपचार के रूप में हम सब इन्हीं दिनों करने जा रहे हैं। विकारों से आगे बढ़कर आस्थाओं के क्षेत्र में समाई हुई भ्रष्टता को निरस्त करना अपेक्षाकृत जटिल कार्य है। इतना व्यापक इतना जटिल और इतना कठिन काम भगवती आद्य शक्ति ही कर सकती है, इस बार के अज्ञानजन्य अनाचार को अपने प्रचण्ड आलोक से मिटाने महाप्रज्ञा को, ब्राह्मी शक्ति को स्वयं ही आना पड़ा है। पार्षदों से यह काम चलने वाला नहीं था।

इस बार युग परिवर्तन की रणस्थली जिस “धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्रे” की विस्तृत भूमि में फैली है, उसे लोक मानस कह सकते हैं। परिष्कार-परिवर्तन इसी क्षेत्र में होना हैं। सेनापतियों के खेमे उसी भूमि में गड़ रह है। लक्ष्य जनमानस का परिष्कार है। प्रस्तुत समस्याएँ इतनी जटिल हैं कि उनका समाधान बाह्य उपचारों से किसी भी प्रकार संभव न हो सकेगा। चिंतन का प्रवाह उलटे बिना, विनाश की विभीषिका को विकास की संभावना में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। चिन्तन की दिशाधारा को सुव्यवस्थित करने वाले दिव्य प्रवाह को युगान्तरीय चेतना कहा जा सकता है। यही युग शक्ति गायत्री है और इसी को युग परिवर्तन का उद्गम स्रोत समझा जाना चाहिए।

गायत्री मंत्र यों सामान्य दृष्टि से देखने पर पूजा उपासना में प्रयुक्त होने वाला हिन्दू धर्म में प्रचलित एक मंत्र मात्र प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से उसकी आकृति और परिधि छोटी मालूम पड़ती है। किन्तु वास्तविकता इससे कहीं अधिक व्यापक है। गायत्री मंत्र शक्ति से ओतप्रोत है। उसका प्रत्यक्ष रूप चौबीस अक्षरों के गुँथनों में देखा जा सकता है। भारतीय धर्म का उसे प्राण-उद्गम एवं मेरुदण्ड कह सकते हैं। शिखा एवं यज्ञोपवीत गायत्री है। उसे वेदमाता, देवमाता कहा गया है। ब्रह्मविद्या का तत्वज्ञान और ब्रह्मवर्चस् का तप विधान इसी उद्गम केन्द्र में गंगोत्री यमुनोत्री की तरह प्रकट प्रस्फुटित होते हैं। इसी गायत्री महाविद्या के आलोक में हमारे देवमानवों के अन्तःकरण उत्कृष्टता के ढांचे में ढलते रहे हैं।

गायत्री महाशक्ति का प्रथम अरुणोदय भारत भूमि पर-ब्रह्मवर्त में हुआ। इसके लिए स्वभावतः इसी क्षेत्र में सर्वप्रथम और सर्वाधिक परिणाम में अपना वर्चस्व प्रकट कर सकना अनायास ही संभव हो सका। पर इससे यह आशय नहीं निकाला जाना चाहिए कि उसका सीमा-क्षेत्र उतना ही स्वल्प है। जापानी अपने देश में सर्वप्रथम सूर्य का उदय होने की मान्यता बनाए हुए हैं और अपने को सूर्य पुत्र कहते हैं। तिस पर भी यह देखा जा सकता है कि भगवान सूर्य जापान तक सीमित नहीं हैं। वे समस्त भूखण्ड को समान रूप से अपने अनुग्रह से लाभान्वित करते हैं। गायत्री को इसी रूप में समझा जाना चाहिए। वेदमाता उसका आरंभिक रूप है। उसकी व्यापकता देव माता और विश्वमाता के रूप में होती देखी जा सकती है। अस्तु हिन्दू धर्मानुयायियों ने अधिक प्रचलित संस्कृत शब्दावली में गुन्थित ओर उपासना उपचार में प्रयुक्त होने पर भी उसे इतनी ही परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता। उसका कार्य क्षेत्र और विस्तार असीम है, अत्यधिक है।

छोटे से बीज के अन्तराल में विशाल वृक्ष की समस्त विशेषताएँ सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती हैं। परमाणु तनिक सा होता है पर उसकी अंतरंग क्षमता और गतिशीलता को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। शुक्राणु में पाए जाने वाले गुण सूत्र प्रत्यक्षतः बहुत ही सूक्ष्म होते हैं पर उनमें महान मानव का अस्तित्व जमा बैठा होता है। गायत्री मंत्र को भी ऐसी ही उपमा दी जा सकती है। ऋषियों के अनुसार उसका आकार छोटा होते हुए भी व स्थूल रूप से उपयोग तनिक सा दीखने पर भी वस्तुतः संभावना इतनी व्यापक है कि उसे नई दुनिया गढ़ देने में समर्थ कहा जा सकता है।


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